स्वतंत्रता दिवस विशेष: हम शुरू करें बहुआयामी स्वतंत्रता की मांग

आजादी के 75वें वर्ष में हमें गहराई से सोचना चाहिए कि लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को हर भारतीय के लिए बहुआयामी स्वतंत्रता के इकलौते, अविभाज्य, अपरिवर्तनीय और अहस्ताांतरणीय राष्ट्रीय मिशन के तौर देखना और आगे बढ़ाना चाहिए।

नवजीवन
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आजादी की 75वीं सालगिरह पर हमने कुछ जाने-माने भारतीयों से इस सवाल का जवाब जानने की कोशिश की है कि ‘आज हम कितने आजाद हैं?’ उनके विचार देश में एक नई शुरुआत की पृष्ठभूमि तैयार करते दिख रहे हैं। इन विचारों को एक श्रृंखला के तौर पर हम आपके सामने लेकर आ रहे हैं। हम आपको इन विचारों से लेखों के माध्यम से रूबरू करा रहे हैं। इसी कड़ी में आज पढ़िए वरिष्ठ स्तमंभकार और लेखक सुधींद्र कुलकर्णी का लेख:

महात्मा गांधी की अगुवाई के तहत भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में हुए भारत के आजादी के आंदोलन की मुख्यधारा के तीन अंतर्संबंधित लक्ष्य थे। एक था ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासन का अंत करते हुए राष्ट्रीय स्वतंत्रता हासिल करना। यह 15 अगस्त, 1947 को हासिल कर लिया गया। दूसरा था लोकतांत्रिक समाज और सरकार के लोकतांत्रिक स्वरूप की स्थापना। यहां लोकतंत्र का मतलब ज्यादा-से-ज्यादा अर्थ में समझा गया- राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक। 26 जनवरी, 1950 को अंगीकार किया गया प्रबुद्ध संविधान इस दिशा में विधिपूर्ण शुरुआत थी।

संविधान ने हमें शासन की संसदीय व्यवस्था दी, सभी नागरिकों की समानता के सिद्धांत को भरोसा दिया। इसने न महज कानून के नजरिये से ‘समानता’ बल्कि सामाजिक समानता, सामाजिक न्याय और प्रगति तथा आर्थिक बेहतरी के लिए अवसर की समानता की सोच रखी। पूर्णतः शांतिपूर्ण तरीकों और सहभागी शासन जिसमें सरकार नेतृत्वकारी भूमिका में हो, को विकास के समाजवादी तरीके के तौर पर समझा गया- हालांकि ‘समाजवाद’ का संविधान में 1976 में ही औपचारिक तौर पर प्रवेश हुआ। इसी तरह, हालांकि ‘धर्मनिरपेक्षता’ को भी 1976 में ही संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया गया, सभी धर्मों के प्रति आदर और सरकार को गैरधर्मशासित रखना भारतीय गणतंत्र की वैचारिक आधारशिला थी। इससे भी आगे, संविधान ने सभी नागरिकों को अधिकारों और आजादी का समुच्चय दिया- हालांकि विचार, अभिव्यक्ति, संबंध और धार्मिक आस्था से संबंधित बातों को यथोचित प्रतिबंधों से सीमित कर दिया गया और इन सभी आजादी का सम्मान करने का दायित्व सरकार को दिया गया।

आजादी हासिल करने के बाद से 75 साल में भारत ने आर्थिक क्षेत्र मेें चार दशक पहले की तुलना मेें भी यथेष्ट प्रगति की है। अब हम कहीं अधिक समृद्ध देश हैं और अत्यधिक गरीबी कम हुई है। अस्पृश्यता जैसी अधिकांश सामाजिक बीमारियां लगभग गायब हो गई हैं। असामान्य स्थितियों को छोड़कर लोकतांत्रिक शासन ने गहरी जड़ें पकड़ ली हैैं। हमारे नागरिकोंं को कई किस्म की आजादी है जिसके लिए भारत की दुनिया भर में प्रशंसा की जाती है। लेकिन यह भी सच है कि नरेंद्र मोदी शासन के पिछले आठ साल में इसके लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों- दोनों ने व्यवस्थागत आघात सहे हैं। पहले इन दोनों ही बातों ने भारत को दुनिया की आंखों की किरकिरी बना रखा था। अब की स्थिति के परिणामस्पवरूप वैश्विक प्रशंसा का स्थान चिंता ने ले लिया है।

स्वतंत्रता आंदोलन का तीसरा लक्ष्य राष्ट्रीय एकता को सुरक्षा प्रदान करना था। यह विफल हो गया। खुद विभाजन ही दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी लेकिन इसके कारण होने वाली सांप्रदायिक हिंसा तथा इस वजह से सीमा-पार होने वाले पलायन ने इसे कहीं अधिक गंभीर बना दिया। निश्चित तौर पर ब्रिटिश राज की बांटो और राज करो की नीति ने इसमें भूमिका निभाई, लेकिन हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच ऐतिहासिक तौर पर परंपरागत फूट तथा बैर ने भी निर्णयात्मक भूमिका अदा की। स्वतंत्रता आंदोलन इस बैरभाव को मिटा नहीं पाया यह अविभाजित भारत के शासन की आपस में स्वीकार्य संवैधानिक संरचना तक पहुंचा।


इस विफलता के प्रभावों को आज भी महसूस किया जा रहा है। एक समय मिश्रित और अविभाजित भारत के अंग रहे राजकाज और समाज के इस्लामीकरण ने हिन्दू बहुसंख्यवादी धर्मोन्मादियों को खंडित लेकिन 1947 के बाद अब भी मिश्रित भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ में परिवर्तित करने के अभियान के लिए प्रेरित कर दिया। वे आग से खेल रहे हैं। जो गंभीर गलती पाकिस्तान ने की, उसे दोहराना अपने देश में शांति, प्रगति, सामाजिक एकजुटता और जनता की भलाई तथा स्वतंत्रताओं के लिए अनिष्टसूचक प्रतिघात होंगे।

‘हम कितने आजाद हैं’ के सवाल का तब तक जवाब नहीं दिया जा सकता जब तक हम आजादी के आंदोलन के इन तीन लक्ष्यों के संदर्भ में विश्लेषण नहीं करेंगे। विदेशी शासन से आजादी अब अपरिवर्तनीय वास्तविकता है। फिर भी, हमें इन बातों को लेकर जरूर चिंता करनी चाहिएः गरीब और हाशिये के लोगों के लिए आर्थिक एवं सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने, ‘निचली’ जातियों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों तथा महिलाओं के खिलाफ भेदभाव समाप्त करने, संविधान में निहित नागरिकों के मूलभूत अधिकारों और आजादी को सुनिश्चित करने, धनी तथा शक्तिशाली लोगों द्वारा शासन के उपकरणों एवं संस्थाओं के दुरुपयोग रोकने और समाजवाद के (पश्चिमी या कम्युनिस्ट नहीं) भारतीय विचार के प्रति भरोसेमंद बने रहने में भारत का विषम रिकॉर्ड रहा है जबकि ये बातें राष्ट्रीय एकता, सामाजिक एकीकरण और अंतर-धार्मिक सद्भाव के लिए बहुत अधिक अनिवार्य रही हैं।

आजादी और इस पर खतरे को लेकर आज के दिन के विचार-विमर्श में दो प्रकार की भूलें होती हैं। सत्तारूढ़ व्यवस्था देश की वर्तमान स्थितियों के लिए किसी जवाबदेही के बिना किसी पिछली घटना के कर्मकांडी महोत्सव की ओर देशभक्तिपूर्ण भावनाओं को मोड़ देती है। इसे बुद्धिजीवियों समेत तमाम सामाजिक आर्थिक प्रबुद्ध वर्ग विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हश्र पर केन्द्रित करने का प्रयास करता है। निस्संदेह, ये खतरे बड़े हैं- वर्तमान निरंकुश शासन में जिस तरह विपक्षी दलों के लिए लोकतांत्रिक स्थान कम हो गए हैं, उसमें ऐसा ही है और उनका कड़ाई से प्रतिरोध किया ही जाना चाहिए। लेकिन हम आजादी के उन वृहत्तर आयामों की अनदेखी कर रहे हैं जिन्हें राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन और संविधान निर्माताओं ने अनुप्राणित किया था।

आजादी गंभीर, सर्वसमावेशी और अविभाज्य विचार है। अपनी बिल्कुल मूलभूत भावना में इसमें गरीबी, भूख और उन अन्य दुर्बल अभावों के कष्ट से आजादी शामिल है जिनसे करोड़ों भारतीय अब भी जूझ रहे हैं। इसका मतलब शैक्षिक तथा आर्थिक प्रगति के अवसरों में गहन और बढ़ती असमानता सेमुक्ति भी है जो हमारे बच्चों और युवाओं के भविष्य की आशाओं को बंद और अंधकार की ओर ले जाता है। इसका मतलब विकास के अदूरदर्शी और दोषपूर्ण मॉडल की वजह से वैसे पर्यावरण विनाश से मुक्ति है जिसके सबसे खराब पीड़ित फिर वही गरीब और बेआवाज हैं। विचार, अभिव्यक्ति और संबंध उन भारतीयों के लिए गोपनीय हैं जिनका पूरा जीवन अस्तित्व का न्यूनतम स्तर हासिल करने के संघर्ष में ही डूब जाता है। उनके लिए लोकतंत्र का मतलब पांच साल में एकबार वोट देने से अधिक कुछ भी नहीं है जो साधारणतया राजनीतिक व्यवस्था के भ्रष्ट और विभाजनात्मक तरीकों द्वारा धूर्तताभरा और बिल्कुल खोखला कर दिया गया है।


दुर्भाग्यवश, अब समाजवाद पर शायद ही कोई बातचीत होती है। लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां और लगभग पूरी मीडिया और एकेडमिक व्यवस्था भूल गई है कि समाजवाद भी भारतीय संविधान का प्रस्तावनामूलक सिद्धांत है। परिणामस्वरूप, समाजवाद संविधान का अनाथ बच्चा बन गया है। अपनी आजादी के 75वें वर्ष में हमें गहराई से सोचना चाहिए कि लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को हर भारतीय के लिए बहुआयामी स्वतंत्रता के इकलौते, अविभाज्य, अपरिवर्तनीय और अहस्ताांतरणीय राष्ट्रीय मिशन के तौर देखना और आगे बढ़ाना चाहिए।

आज से 25 साल बाद हम आजादी का शताब्दी वर्ष मना रहे होंगे, क्या हम सभी आत्मंथन करेंगे, एक देश के तौर पर अपनी उपलब्धियों के गौरव को मजबूत करेंगे, अपनी पिछली गलतियों से सबक लेंगे और बेहतर भारत के निर्माण के लिए एकताबद्ध होकर कदम बढ़ाएंगे? हमें ऐसा करना ही होगा। हम भारत के इतिहास की उन पवित्र स्मृतियों के ऋणी हैं जिन्होंने देश की आजादी के लिए लड़ाई लड़ी और अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया।

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Published: 15 Aug 2022, 5:00 PM