स्वतंत्रता दिवस विशेषः क्षत-विक्षत समानता के बीच गंभीर संकट में आज़ादी
भारत की आजादी की 75वीं सालगिरह को बड़े जोश-ओ-खरोश के साथ अमृत महोत्सव के तौर पर मनाया जा रहा है और इस मौके पर हमारी इच्छा मोर की तरह नाचने की हो सकती है लेकिन हम अपने उन बदसूरत पैरों को नजरअंदाज नहीं कर सकते जो कड़वी और अप्रिय हकीकत की याद दिलाते हैं।
आजादी की 75वीं सालगिरह पर हमने कुछ जाने-माने भारतीयों से इस सवाल का जवाब जानने की कोशिश की है कि ‘आज हम कितने आजाद हैं?’ उनके विचार देश में एक नई शुरुआत की पृष्ठभूमि तैयार करते दिख रहे हैं। इन विचारों को एक श्रृंखला के तौर पर हम आपके सामने लेकर आ रहे हैं। हम आपको इन विचारों से लेखों के माध्यम से रूबरू करा रहे हैं।
अब तक आप पढ़ चुके हैं:
गणेश देवी का लेख- सिर उठाता राष्ट्रवाद और कमजोर होता लोकतंत्र
पुरुषोत्तम अग्रवाल का लेख - ज़िंदा लाशों को आज़ादी की क्या जरूरत?-
नदीम हसनैन का लेख - लोकतंत्र और बहुसंख्यकवाद का भेद
संजय हेगड़े का लेख - सिर्फ वोट देने का अधिकार ही नहीं है आजादी, जूझना होगा लोकतंत्र की रक्षा के लिए
कन्हैया कुमार का लेख - जो आज़ादी हासिल है उसे कैसे रखें महफूज़
और अब पढ़े वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद का लेख:
भारत की आजादी की 75वीं सालगिरह को बड़े जोश-ओ-खरोश के साथ अमृत महोत्सव के तौर पर मनाया जा रहा है। व्यापक भारतीय अस्तित्व में रची-बसी विभिन्न उप-संस्कृतियों पर गर्व करने वालों की नजर में यह एक बेहतरीन मौका हो सकता था, जब अलग-अलग मत-पंथ का पालन करने वालों, अलग-अलग भाषाएं बोलने वालों के साथ मतभेदों को भुलाकर बेहतर तालमेल बैठाया जाता। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कुछ लोग इसे एक सियासी या चुनावी फायदा उठाने के मौके के तौर पर देखते हैं। इसकी वजह यह है कि उन नागरिकों के लिए यह क्षण वाकई उत्सव का है जो राष्ट्र और हमारे राष्ट्रीय जीवन की चिंता करते हैं।
75 वर्षों की यह यात्रा उन प्रतिज्ञाओं का प्रतिफल पाने की रही है जो जवाहरलाल नेहरू ने 15 अगस्त, 1947 की आधी रात को की थी। इस यात्रा के दौरान हम चुनौतीपूर्ण, उठापटक वाले और विजयी क्षणों से होकर गुजरे हैं। दुनिया के देशों के बीच अपनी खास पहचान के साथ स्थापित होने की उम्मीदों के बीच हमारी इच्छा मोर की तरह नाचने की हो सकती है लेकिन हम अपने उन बदसूरत पैरों को नजरअंदाज नहीं कर सकते जो कड़वी और अप्रिय हकीकत की याद दिलाते हैं।
हमारे विचार में दो शब्द सबसे अहम होने चाहिए- आजादी और समानता। लोकतंत्र के इन दोनों गुणों के बीच रिश्तों और स्पर्धा के कई आयाम हो सकते हैं। लेकिन हमारी व्यावहारिक समझ यही है कि हमने स्वतंत्रता की कामना केवल इसके अंतर्निहित मूल्यों के लिए नहीं की बल्कि इसलिए भी की कि यह न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समानता के लक्ष्यों को पाने में मददगार होगी। लेकिन यह तकलीफ देने वाली बात है कि हमारा अनुभव पूरी स्पष्टता के साथ बता रहा है कि समानता क्षत-विक्षत हो चुकी है क्योंकि आजादी गंभीर संकट में है।
यह अफसोस की बात है कि ऐसे मौके पर जब हम अपने गौरवपूर्ण राष्ट्रीय चरित्र और उपलब्धियों की बखान कर रहे होते, एक गंभीर और चिंताजनक वास्तविकता की ओर ध्यान खींचने के लिए मजबूर हैं। 'ट्राईस्ट विद डेस्टिनी' की दृष्टि पर सवालिया निशान लगाने वाली घटनाओं को लिखने बैठें, तो यह ऐसी दुखदायी प्रक्रिया होगी कि हर एक के जिक्र के साथ जख्म हरे हो जाएं। इस बात का कोई अंदाजा नहीं कि जिन लोगों ने जिंदगी और आजादी की भारी कीमत चुकाई, उन असहाय लोगों के साथ कभी इंसाफ होगा भी या नहीं। यहां तक कि बड़े नरसंहारों के मामले में भी जवाबदेही तय नहीं की जा सकी और इन्हें 'आपके नरसंहार' बनाम 'हमारे नरसंहार' का रूप दे दिया गया। इंसानी उसूलों की जगह घटिया सियासत ने ले ली है।
विभाजन के दर्द से परस्पर सामंजस्य और मेलजोल का रास्ता पाने वाले देश में हम एक-दूसरे के दर्द और नुकसान के प्रति अंधे हो गए हैं। हमवतन के हाथों व्यक्तिगत और सामुदायिक तबाही आज भी हमारे सामूहिक अस्तित्व पर अपनी काली छाया डाल रही है। यह मानवीय मूल्यों की घृणित सार्वजनिक अवहेलना है, जिसे सत्ता में बैठे लोगों और अपने विचारों के बंधक उनके सहयोगी बढ़ावा दे रहे हैं। इससे तो यही संकेत मिल रहा है कि स्वतंत्रता के 75 साल के बाद का रास्ता ऊबड़-खाबड़ तो है ही, यह कहीं नहीं जा रहा है।
ऐसी स्वतंत्रता का जिसमें सुरक्षा और गरिमा न हो, कोई मतलब नहीं रह जाता। हमें बताया जा रहा है कि हम पहले से तय रास्ते पर चलने, तय शब्दों को बोलने और खुद को विविधता में एकता की जगह इकरंगे स्वरूप में देखने को आजाद हैं। यह आजादी नहीं। हम में से कुछ का मानना है कि आजादी से मतलब तब तक गलती करने से है जब तक यह किसी और की आजादी नहीं छीनती हो। यह समझना होगा कि आजादी अराजक होने का न्योता नहीं है।
मानव प्रकृति में विविधता और असंतोष को समायोजित करने की महान क्षमता है: लोकतंत्र का सार भी यही है। जिन्हें विविधता और असंतोष की समझ नहीं, उन्हें निश्चित ही लोकतंत्र की भी समझ नहीं होगी। चुनावी जीत चाहे कितने भी विशाल बहुमत से हासिल हुई हो, इस तरह की सोच कि यह जीतने वाले को जैसे चाहे, वैसे शासन करने की खुली छूट देता है, वैसा ही हुआ मानो 'भीड़ का कानून' या निर्वाचित तानाशाही। किसी शासक के पक्ष में आया चुनावी जनमत उसे अच्छी-खासी ताकत और मौका देता है कि वह अपनी विचारधारा के मुताबिक शासन को आकार दे, लेकिन यह काम संविधान द्वारा निर्धारित घेरे के भीतर ही हो सकता है, उसकी अवहेलना करके नहीं।
मशहूर फिल्म गीतकार जावेद अख्तर अपनी हालिया नज्म 'नया हुकमनामा' में कहते हैं:
किसी का हुक्म है
इस गुलिस्तां में बस इक रंग के ही फूल होंगे
कुछ अफसर होंगे जो तय करेंगे
गुलिस्तां किस तरह बनना है कल का
यकीनन फूल तो यक-रंगीं होंगे
मगर ये रंग होगा कितना गहरा कितना हल्का
ये अफसर तय करेंगे
किसी को कोई ये कैसे बताए
गुलिस्तां में कहीं भी फूल यक-रंगी नहीं होते
कभी हो ही नहीं सकते
कि हर इक रंग में छुपकर बहुत से रंग रहते हैं
जिन्होंने बाग-ए-यक-रंगीं बनाना चाहे थे
उनको जरा देखो
कि जब इक रंग में सौ रंग जाहिर हो गए हैं
तो वे कितने परेशां हैं, कितने तंग रहते हैं
लेकिन, यह निश्चचित रूप से बहुत बुरा है। जब काफी उम्मीदों के साथ अपनाए गए संविधान का इस्तेमाल पार्टी-सियासी हितों को साधने के मुखौटे के रूप में किया जाए तो इसके भाव और चरित्र में बदलाव आ जाता है। ऐसे में हैरानी की कोई बात नहीं जब सरकार के कानून मंत्री बीजेपी की विचारधारा को देश की विचारधारा बनने की बात करते हैं। हां, कांग्रेस ने भी तो ऐसा ही किया था। हो सकता है कि यह उनका प्रतिवाद हो। हम इसका जवाब तत्काल दे सकते हैं।
अहिंसा और सत्याग्रह समेत गांधीवादी विचार को संविधान में शामिल किया गया। इन्हें संविधान की प्रस्तावना में जगह दी गई। कोई कितने भी बड़े बहुमत से आए, इसमें बदलाव नहीं कर सकता। इसे केवल एक क्रांति ही बदल सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने ‘केशवानंद भारती’ मामले में यह साफ-साफ शब्दों में कहा है। कांग्रेस ने जो किया, उसके लिए एक ऐतिहासिक राष्ट्रीय सहमति थी। और यह सहमति महात्मा गांधी और दूसरे अन्य नेताओं के नेतृत्व में चले आजादी के आंदोलन से उभरी थी।
वापस आएं जावेद अख्तर की नज्म पर। आजादी आपके खास रंग के बारे में है। प्रकाश का रंग एक है लेकिन प्रिज्म उन रंगों को दिखाता है जिससे यह बना है। अंधेरे के स्याह को प्रिज्म से भी विभाजित नहीं किया जा सकता। इसलिए आजादी की 75वीं सालगिरह पर संकल्प करें, हम अपने राष्ट्रीय जीवन में प्रकाश और प्रिज्म को वापस लाएंगे।
(लेखक वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व विदेश मंत्री हैं।)
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