स्वतंत्रता दिवस विशेष: जो आज़ादी हासिल है उसे कैसे रखें महफूज़
उम्मीद है कि खतरा चढ़ा है, तो उतरेगा भी क्योंकि इतिहास का सबक यही है कि जब कल के लोदी से कबीर सच बोलने में नहीं डरे, तब हम आज के मोदी से सच बोलने में क्यों डरें? लोकतंत्र में निडर और बुलंद आवाज से ही आजादी बचेगी भी और इसका दायरा भी बढ़ेगा।
आजादी की 75वीं सालगिरह पर हमने कुछ जाने-माने भारतीयों से इस सवाल का जवाब जानने की कोशिश की है कि ‘आज हम कितने आजाद हैं?’ उनके विचार देश में एक नई शुरुआत की पृष्ठभूमि तैयार करते दिख रहे हैं। इन विचारों को एक श्रृंखला के तौर पर हम आपके सामने लेकर आ रहे हैं। हम आपको इन विचारों से लेखों के माध्यम से रूबरू करा रहे हैं।
पहली कड़ी में आपने पढ़ा वरिष्ठ लेखक गणेश देवी का लेख- सिर उठाता राष्ट्रवाद और कमजोर होता लोकतंत्र
इसके बाद दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा पुरुषोत्तम अग्रवाल का लेख - ज़िंदा लाशों को आज़ादी की क्या जरूरत?-
तीसरी कड़ी में आपने पढ़ा नदीम हसनैन का लेख - लोकतंत्र और बहुसंख्यकवाद का भेद
चौथी कड़ी में आपने पढ़ा सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े का लेख सिर्फ वोट देने का अधिकार ही नहीं है आजादी, जूझना होगा लोकतंत्र की रक्षा के लिए
अब अगली कड़ी में पढ़िए कांग्रेस नेता और जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार का लेख
भारत को आजाद हुए 75 साल पूरे हो गए हैं। आज जब पूरा देश आजादी का ‘अमृत-महोत्सव’ मना रहा है, तब कुछ ऐसे जरूरी सवाल हैं जो हर नागरिक को खुद से पूछना चाहिए। मसलन, क्या आजादी कोई वरदान है कि एक बार मिल गई सो मिल गई- अब न इसे संजोने की जरूरत है न ही इसके दायरे को बढ़ाने की जरूरत है! आजादी न भीख है, न वरदान। कहते हैं कि कल का गुलाम ही आज का बागी होता है और बागी के संघर्ष से ही आजादी की दास्तान लिखी जाती है। जिस आजाद देश में आजादी की गूंज बंद हो जाए, वहां आजादी का बागवान भी सुरक्षित नहीं बचता है। जिस प्रकार गुलामी थोपी जाती है, ठीक उसके उलट आजादी हासिल की जाती है।
आज हम जिस आजादी का जश्न मना रहे हैं, वह एक प्रकार की मानसिक, शारीरिक और वैचारिक गुलामी से आजादी का जश्न है। यह जश्न है ऊंच-नीच और भेदभाव वाली व्यवस्था केबरक्स समतामूलक और न्याय पूर्ण व्यवस्था को निर्मित करने के सुंदर सपने का। यह जश्न है भारत में विविधता की एकता और एकता में विविधता का। यह जश्न है साझी शहादत और साझी विरासत का। यह जश्न है समानता के उस अहसास का जो जन्म, जाति , धर्म , भाषा, संस्कृति , मान्यता और पहचान से परे हर नागरिक को बराबरी का अधिकार देता है। यह जश्न है उस अधिकार का जहां राष्ट्रपति और चपरासी के वोट का मूल्य बराबर होता है। यह जश्न है उस सपने का जिसमें ‘हम, भारत के लोग’ भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए संकल्पबद्ध हैं। यह जश्न है राज्य सत्ता और व्यक्ति के बीच हुए उस समझौते का जहां सत्ता ‘जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा’ तय होगी। यह जश्न है देश का देश के लोगों से बनने का। यह जश्न है हमारे पुरखों के संघर्ष और बलिदान का।
यह जश्न हम इसलिए मनाते हैं ताकि हमें यह याद रहे कि आजाद देश में आजादी से जिंदगी जीने के हमारे हक-हुकूक के लिए लोगों ने अपनी जिंदगी कुर्बान की है। जब हम जश्न मना रहे हैं, तब यह प्रश्न लाजमी है कि जो आजादी हमें हासिल है, उस आजादी को हम आने वाली पीढ़ी के लिए कैसे महफूज रखें और इसके दायरे को कैसे बढ़ाएं ताकि समाज के अंतिम व्यक्ति तक इसकी पहुंच सुनिश्चित की जा सके। इस बात का ध्यान रखना बहुत आवश्यक है कि कहीं ऐसा न हो कि एक व्यक्ति या समूह की आजादी कि सी दूसरे व्यक्ति और समूह के लिए गुलामी का सबब बन जाए। यदि इन सवालों पर बार-बार विचार न किया जाए तो इस बात का खतरा जरूर है कि मुठ्ठी भर ताकतवर लोग अपने स्वार्थ में बड़ी चालाकी से आजादी का असल मायने ही बदल दें। कहीं ऐसा न हो कि आजादी का तर्क देते हुए ही यह न साबित किया जाने लगे कि जैसे किसी को जीने की आजादी है, वैसे ही किसी को मारने की भी स्वतंत्रता है; कहीं ऐसा न हो कि लोकतंत्र का मजा लेते हुए लोकतंत्र का ही गला घोंटा जाने लगे। आजादी की समझदारीइस बात पर निर्भर करती है कि हमारा संगीत किसी और के लिए शोर न बने। आजादी का अधिकार और अहसास लोगों के परस्पर सहयोग और सहअस्तित्व पर टिका होता है।
इतिहास गवाह है कि किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही सबकी आजादी और आजादी के उच्चतम मूल्यों को प्राप्त किया जा सकता है। भारत और भारतीय समाज में लोकतंत्र की जड़ें काफी गहरी हैं। भारत का इतिहास हर दौर में किसी भी प्रकार की गुलामी थोपे जाने और उससे मुक्ति प्राप्त करने की प्रक्रिया को अपने अस्ततित्व में समाहित किए हुए है। तर्क, विचार, दर्शन, साहित्य और विज्ञान की बात करें या कि सी ठहरे हुए पानी की तरह सड़ रही व्यवस्था के खिलाफ शौर्य और संघर्ष की, स्थापित सत्ता को सत्य से चुनौती देने की कहानियों से हमारा इतिहास भरा पड़़ा है। जहां तक मौजूदा समय में आजादी, लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों का सवाल है जिसमें निजता का अधिकार भी शामिल है। 15 अगस्त, 1947 से लेकर अब तक हमारे देश ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि उत्तर-औद्योगिक समाज में औद्योगिक क्राांति के दौर में निर्मित आजादी की समझ और लोकतंत्र के दायरे को विस्तार देने की जरूरत है ताकि मौजूदा समय के अंतर्विरोधों का ठीक से सामंजस्य किया जा सके। आज जिस तरीके से संदर्भ के बिना आधा सच या पूरा झूठ को डिजिटल माध्यमों का सहारा लेकर फैलाया जा रहा है, यह आधुनिक भारत की एकता, अखंडता, आजादी और लोकतंत्र के लिए गंभीर चुनौती बन चुका है।
जिस तरह से वैज्ञानिक टूल का इस्तेमाल अंधविश्वास, नफरत और झूठ को फैलाने में किया जा रहा है, जिस तरह से धर्म , आस्था और भावना के नाम पर लोगों के बुनियादी अधिकारों पर हमले हो रहे हैं, यह बेहद खतरनाक है। जिस लोकतंत्र और आजादी के अधिकार से जो लोग गद्दी पर बैठे हैं, वही अपने से अलग विचार रखने वालों का दमन कर रहे हैं, अपने विरोधियों को जेलोंमें ठूस रहे हैं, देश की सुरक्षा के लिए बनी संस्थाओं और
एजेंसियों का बेजा इस्तेमाल अपनी कुर्सी की रक्षा के लिए और आम लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा न कर पाने की नाकामी को छुपाने के लिए कर रहे हैं। जनता के टैक्स से पुलिस की लाठी खरीदकर जनतंत्र को लाठीतंत्र बनाने के इस षड्यंत्र को रोकना बहुत जरूरी है, वरना जितनी आजादी और लोकतंत्र इस देश के आम लोगों के हिस्से आई है, उनको भी बचाना मुश्किलों से भरा होगा। यह नहीं भूलना चाहिए कि आजादी महज दिखावे और फैशन की वस्तु नहीं है। कहीं ऐसा न हो कि फैशन के दौर में आजादी की गारंटी ही न चली जाए। जैसे पुरखे के बनाए घर को भी साफ-सफाई और समय-समय पर मरम्मत की जरूरत होती है, वैसे ही लोकतंत्र और आजादी को भी लगातार बचाना और बढ़ाना होता है। उम्मीद है कि खतरा चढ़ा है, तो उतरेगा भी क्योंकि इतिहास का सबक यही है कि जब कल के लोदी से कबीर सच बोलने में नहीं डरे, तब हम आज के मोदी से सच बोलने में क्यों डरें? लोकतंत्र में निडर और बुलंद आवाज से ही आजादी बचेगी भी और इसका दायरा भी बढ़ेगा। आजाद देश में आजादी की सभी देशवासियों को बधाई!
(लेखक कांग्रेस नेता और जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)
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