कूनो में चीतों की निरंतर मौतों से उठते सवाल: समय आ गया है कि अब सरकारी जवाबदेही तय हो

इस प्रोजेक्ट को लेकर पारदर्शिता की कमी है और इन सब पर तत्काल चर्चा की आवश्यकता है। हो सकता है कि इस समस्या का कोई समाधान न हो, लेकिन हम इससे सीख भी नहीं रहे हैं।

मध्य प्रदेश स्थित कूनो नेशनल पार्क, यहीं पर प्रोजेक्ट चीता शुरु किया गया है जहां अब तक 8 चीतों की मौत हो चुकी है
मध्य प्रदेश स्थित कूनो नेशनल पार्क, यहीं पर प्रोजेक्ट चीता शुरु किया गया है जहां अब तक 8 चीतों की मौत हो चुकी है
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धर्मेंद्र खंडाल

मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में शुरू किए गए चीता प्रोजेक्ट में पिछले चार महीनों के दौरान आठ चीतों की मौत हो चुकी है। कई चीतों की मौत का सटीक कारण अभी तक तय नहीं हो सका है। बजाए इसके इनकी मौतों के अलग-अलग कारण बताए गए हैं। शुरु में कहा गया कि उनकी मौत आपसी संघर्ष के कारण हुई और बाद में उनकी मौत को बीमारी के कारण बताया गया।

विदेशी पशुचिकित्सकों के बयान भी इस मामले में विरोधाभासी रहे हैं। वैसे भी, अकेले पशुचिकित्सक ही इस समस्या का समाधान नहीं सुझा सकते। दरअसल असली मुद्दा है इस प्रोजेक्ट के लिए गलत जगह को चुनना और इस जगह चीतों के लिए पर्याप्त भोजन या शिकार की व्यवस्था न होना।

एक चीता टास्क फोर्स समिति का गठन किया गया था, जिसमें सेवानिवृत्त वन अधिकारी और अन्य ऐसे लोग शामिल हैं, जिनके पास वर्तमान में भारत में चीतों के लिए माकूल पारिस्थिकि का ज्ञान नहीं है, क्योंकि बीते कुछ वर्षों में भारत में चीते लगभग लुप्त हो चुके हैं। ऐसे में इस समिति को ऐसा काम सौंपा गया है जिसकी उन्हें जानकारी ही नहीं है। सही मायनों में तो इन सभी व्यक्तियों को टास्क फोर्स से हट जाना चाहिए, और इनके बजाय, हमें पूरे प्रोजेक्ट की व्यापक समीक्षा करने और इसकी भविष्य की संभावनाओं का आकलन करने के लिए अंतरराष्ट्रीय और भारतीय दोनों विशेषज्ञों को मिलाकर एक सलाहकार बोर्ड स्थापित करना चाहिए।

हमें केवल सेवानिवृत्त या सेवारत सरकारी अधिकारियों द्वारा दी गई एकतरफा राय पर ही निर्भर नहीं रहना चाहिए। यह एक प्रचलित मानसिकता और रवैया ही है जो एक महत्वपूर्ण संकट को खड़ा कर रहा है।


पशुचिकित्सक, चाहे भारतीय हों या विदेशी, बीमार या घायल जानवरों की देखभाल में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन यहां चिंता का विषय यह है कि ये तथाकथित विशेषज्ञ कोई भी समस्या आने से पहले ही 'सलाह' दे रहे हैं। हमें इसके बजाय केन्या और तंजानिया के विशेषज्ञों से मार्गदर्शन लेना चाहिए जो जंगली चीतों और उनकी पारिस्थितिकी का अध्ययन करने के विशेषज्ञ हैं। नामीबिया में चीतों की ब्रीडिंग कराने वाले या दक्षिण अफ्रीका में प्रबंधित निजी पार्कों के पशु चिकित्सकों की सलाह पर पूरी तरह भरोसा करने से दूर जाने का समय आ गया है।

चीता प्रोजेक्ट पर अंतर्राष्ट्रीय टिप्पणियों और मूल्यांकनों को देखना जरूरी है। सेरेन्गेटी में चीतों पर 15 साल का व्यापक अध्ययन करने वाली जूलॉजिकल सोसाइटी ऑफ लंदन (जेडएसएल) से उनकी विशेषज्ञता के लिए सलाह लेनी चाहिए।

वर्तमान में अस्पष्टता के साथ ही इस प्रोजेक्ट को लेकर पारदर्शिता की कमी है और इन सब पर तत्काल चर्चा की आवश्यकता है। हो सकता है कि इस समस्या का कोई समाधान न हो, लेकिन हम इससे सीख भी नहीं रहे हैं। हमारे वैज्ञानिक इस प्रोजेक्ट से दूर हैं या आधी-अधूरी जानकारी हासिल कर रहे हैं। दरअसल सरकार को इस कार्यक्रम को 'टॉप-सीक्रेट' कार्यक्रम की श्रेणी से बाहर लाना चाहिए और प्रमुख मुद्दों के समाधान के लिए स्वतंत्र विशेषज्ञों और प्रमुख पत्रकारों को शामिल करके इसे जनता के सामने पेश करना चाहिए।

ऐसे में अब समय आ गया है कि पारदर्शिता और जनभागीदारी सुनिश्चित करते हुए चीता परियोजना को जनता के लिए सुलभ बनाया जाए।

(लेखक धर्मेंद्र खंडाल रणथंभौर में गैर लाभकारी संगठन टाइगर वॉच से 20 वर्षों से कंजरवेशन बायोलॉजिस्ट के तौर पर जुड़े हुए हैं।)

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