हिमाचल प्रदेश: पहाड़ों को सीधा काटने के बाद अब उन्हें अंदर से खोखला करने का खतरनाक प्रस्ताव
हिमाचल प्रदेश में हाल की बाढ़ और उसके बाद हुई विनाशलीला के बाद जिस तरह के समाधान को अपनाया जा रहा है, वे क्या सही हैं? पहाड़ों को काटने के बाद अब उन्हें अंदर से खोखला करने की खतरनाक योजना का प्रस्ताव सामने है।
कुल्लू-मनाली राष्ट्रीय राजमार्ग 11 जुलाई से और बहुप्रचारित परवाणू-सोलन राजमार्ग 2 अगस्त से बंद है। मनाली राजमार्ग को बहाल करने में वर्षों नहीं तो कई महीने तो लगने ही वाले हैं। पठानकोट-मंडी राजमार्ग भी अवरुद्ध है। पहाड़ों और उनसे निकलने वाली नदियों ने एक बार फिर बता दिया है कि इन इलाकों का सरताज कौन है।
हर कोई बारिश को दोष दे रहा है। लेकिन असली खलनायक हमारे नीति निर्माता-नेता और नौकरशाह- और एनएचएआई और पीडब्ल्यूडी के इंजीनियर हैं। नेताओं और नौकरशाही ने पर्यावरणविदों और स्थानीय लोगों की चेतावनियों को लगातार नजरअंदाज किया और इंजीनियरों ने तो बुनियादी इंजीनियरिंग सिद्धांतों को ही ताक पर रख दिया। इसी वजह से न केवल करदाताओं का हजारों करोड़ रुपया डूब गया, बल्कि सैकड़ों घर, इमारतें और कारें बह गईं और दर्जनों लोगों की जान चली गई।
हिमाचल प्रदेश के लोक निर्माण मंत्री विक्रमादित्य सिंह ने 4 अगस्त को ‘द ट्रिब्यून’ में लेख लिखा जिसमें उन्होंने हिमालय में सड़क योजना और निर्माण में आमूल-चूल बदलाव की मांग की है। उन्होंने उन गलतियों के लिए आपराधिक जवाबदेही तय करने पर जोर दिया है जिसके कारण हाल की बारिश में 500 से ज्यादा सड़कें क्षतिग्रस्त या नष्ट हो गईं और राज्य को 5,000 करोड़ रुपए से भी अधिक का नुकसान हो गया।
क्या यह वक्त केवल दूसरों पर दोष डालने का है? सच तो यह है कि कोई भी जवाबदेही राज्य के नेताओं और नीति निर्माताओं से शुरू होनी चाहिए जो भूविज्ञान, इंजीनियरिंग सिद्धांतों की परवाह किए बिना इतने बड़े पैमाने पर सड़क परियोजनाओं को मंजूरी दे रहे हैं।
लालच और मूर्खता के सबूत अब गोबिंदसागर जलाशय में जमा गाद से भी ज्यादा तेजी से जमा होने लगे हैं। मुख्यमंत्री ने स्वयं दावा किया है कि मंडी-कुल्लू सड़क की दोषपूर्ण फोर-लेनिंग के कारण लारजी एचईपी में बाढ़ आ गई जिससे महीनों के लिए बिजली उत्पादन बंद हो गया है। इसके लिए उन्होंने एनएचएआई से 650 करोड़ रुपये के मुआवजे की मांग की है। यह बात सामने आ रही है कि इस हिस्से को फोर-लेन करते समय एनएचएआई ने ब्यास नदी के तल में 4 मीटर तक घुसपैठ की थी!
परवाणू-सोलन राजमार्ग के ढहने के मामले में एनएचएआई और उसके ठेकेदार के खिलाफ लापरवाही और भ्रष्टाचार का आपराधिक मामला दर्ज किया गया है। हाईकोर्ट ने सड़क निर्माण के लिए पहाड़ियों की अवैज्ञानिक कटाई के मामले में भारत के अटॉर्नी जनरल को तलब किया है। एनएचएआई निदेशक ने स्वीकार किया है कि हिमालय में निर्माण का अनुभव न होने की वजह से उनसे तमाम गलतियां हुईं।
हिमाचल के जाने-माने पर्यावरण एनजीओ- ‘हिमालय नीति अभियान’ ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर ऐसे ‘विकास’ का विरोध किया है और हाल के समय में हुई कई आपदाओं के कारणों की जांच के लिए एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति के गठन की मांग की है। इसने कहा है कि पनबिजली परियोजनाएं और सड़क निर्माण के लिए वनों की कटाई से पर्वतीय सतह के कमजोर होने और नदियों में गाद जमा होने से नदी तल का ऊपर उठना नुकसान के मुख्य कारण हैं।
अब यह साबित हो चुका है कि लारजी, पारबती III परियोजनाओं और पंडोह बांध से अचानक पानी छोड़े जाने के कारण पंडोह और निचली मंडी, सैंज बाजार, कसोल गांव में तबाही आई। बाढ़ के पानी में बहे हजारों पेड़ों और स्लीपरों से पता चलता है कि इन परियोजनाओं की आड़ में बड़े पैमाने पर पेड़ों की अवैध कटाई हो रही है। सिर्फ पोंग बांध जलाशय से 1,000 से अधिक पेड़ निकाले गए हैं!
ऐसी तबाही देखकर किसी को भी उम्मीद हो सकती है कि अब राज्य सरकार, एनएचएआई और अन्य नीति निर्माता इन परियोजनाओं को रोकेंगे और समीक्षा करेंगे कि ये राज्य को किस विनाशकारी दिशा में ले जा रहे हैं।
अब सुनने में आ रहा है कि परवाणू-धरमपुर खंड पर दरकते पहाड़ों को देखते हुए एनएचएआई पहाड़ों में सुरंगें बनाएगा। अजीब मजाक है! बाहर से पहाड़ों को तबाह करने के बाद अब उन्हें अंदर से खोखला करने का प्रस्ताव किया जा रहा है जिससे हालात बदतर होंगे और इससे निकला लाखों टन मलबा आखिरकार नदियों का ही गला घोंटेगा और इसकी बहाव को बदलेगा! क्या यह समझ में नहीं आ रहा कि राजमार्ग के भूस्खलन वाले हिस्सों को स्थिर करना, पहाड़ी को और काटना बंद करना और सड़क के ऐसे हिस्सों को दो-लेन का ही रखना जरूरी है? इसके उलट, संकेत मिलता है कि एनएचएआई ने अपनी पिछली गलतियों को दोहराते हुए कुल्लू-मनाली राजमार्ग को ‘बहाल’ करने की कोशिशें शुरू कर दी हैं और वह मलबा वगैरह पहले की ही तरह नदी के तल पर डाल रहा है।
यह सबसे बड़ा उदाहरण है कि सरकार ने हाल की आपदाओं से कुछ नहीं सीखा है और राज्य पर और भी बड़ी पर्यावरणीय आपदा थोपने पर तुली हुई है। ब्यास लखनऊ में बहने वाली गोमती या गुजरात की साबरमती की तरह कोई शांत नदी नहीं है; यह एक पहाड़ी नदी है जो तेज धार के साथ हजारों फुट नीचे उतरती है और अपने साथ लाखों टन गाद, चट्टानों और पत्थरों को बहाती चलती है और अपने रास्ते में आने वाली हर चीज को खत्म कर देती है।
पहाड़ी नदी का अपना अलग चरित्र होता है जिसका पानी अचानक बढ़ता और घटता है और इसे चैनलाइज नहीं किया जा सकता। पानी का वेग कुछ ही समय में तटबंधों को तोड़ देगा जैसा कि फोर-लेन के साथ हुआ। इसमें मौजूद गंदगी बाहर नहीं निकल सकेगी और इससे नदी का तल ऊपर उठ जाएगा और चैनल की पानी को संभालने की क्षमता कम हो जाएगी। नतीजा, बाढ़ की घटनाएं बढ़ेंगी। इसके अलावा पहाड़ी नदी को चैनल से घेरने की मूर्खतापूर्ण योजना न तो जलवायु परिवर्तन और न ही बढ़ रही चरम मौसमी घटनाओं के अनुकूल है।
इसे साबित करने के लिए सिर्फ एक आंकड़ा काफी है: आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, इस साल 7 से 11 जुलाई के बीच कुल्लू जिले में 30.7 मिमी के सामान्य मानक के मुकाबले 280.1 मिमी बारिश हुई यानी 812% अधिक जो राज्य में सबसे अधिक है।
इसी अवधि के दौरान ब्यास का पानी अपने ऐतिहासिक उच्च बाढ़ स्तर से भी ऊपर उठ गया। कहने का मतलब यह है कि कोई भी चैनलाइजेशन ऐसे उतार-चढ़ाव का सामना नहीं कर सकता और बढ़ते ग्लोबल वार्मिंग के साथ अनियमित उतार-चढ़ाव तो होगा। इसके अलावा इससे नदी का प्राकृतिक प्रवाह बाधित होगा और पानी का स्तर और भी खतरनाक स्तर तक बढ़ जाएगा।
यह कोई संयोग नहीं है कि मनाली और कुल्लू के बीच बाएं किनारे की सड़क जिस पर एनएचएआई का ध्यान नहीं गया और इसे चौड़ा नहीं किया गया, मामूली क्षति ही हुई और यह अब तक काम कर रही है। निश्चित रूप से इसमें हमारे लिए एक सबक है।
सरकार बदलती वास्तविकताओं को स्वीकार क्यों नहीं कर सकती और अप्रचलित इंजीनियरिंग की अपर्याप्त ताकतों से इसे काबू करने की कोशिशों के बजाय नदी के साथ रहना क्यों नहीं सीख सकती? राज्य की नदियों को उनके प्राकृतिक चैनलों में बहने दें, उच्चतम बाढ़ स्तर तक किसी भी निर्माण पर रोक लगाएं, नदी के बाढ़ क्षेत्र में किसी भी खनन गतिविधि पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाकर उसमें अतिक्रमण रोकें, नदियों में गंदगी फेंकना बंद करें और बांध बनाकर नदियों को अवरुद्ध करना बंद करें- इसी तरह से नदी के गुस्से से बचा जा सकता है।
ये बांध घातक हथियार बन गए हैं जैसा कि हमने उत्तराखंड और हिमाचल में साल दर साल देखा है, और जैसा कि कई विशेषज्ञ समितियों और पर्यावरणविदों ने चेताया भी था। चरम मौसमी घटनाओं के साथ उनकी विनाशकारी ताकत और बढ़ेगी। पानी छोड़ने के लिए उनके प्रोटोकॉल की समीक्षा करने का भी समय आ गया है: पानी का बहाव लोगों और संपत्ति की सुरक्षा के विचारों से तय होना चाहिए, न कि मुनाफे और पैदा होने वाली बिजली की यूनिटों के हिसाब से।
अफसोस की बात है कि आज हर नेता, नौकरशाह और इंजीनियर अपनी गलतियों से ध्यान हटाने और जवाबदेही से बचने के लिए जलवायु परिवर्तन को बहाने के रूप में इस्तेमाल कर रहा है जबकि होना यह चाहिए था कि हम अपनी गलती से सीखकर अपनी सोच, नीतियों और विकास के तौर-तरीकों को बदलते। याद रखें, हमारे पास ज्यादा समय नहीं बचा है।
(अभय शुक्ला रिटायर्ड आइएएस अधिकारी हैं। यह उनके ब्लॉग http://avayshukla.blogspot.com से लिए गए लेख का संपादित रूप है।)
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