पहाड़ों में विनाशलीला: हिमाचल सीएम सुक्खू ने मांगा केंद्र से मुआवजा, कहा- दोषपूर्ण योजनाओं से हुई तबाही
हिमाचल के मुख्यमंत्री सुक्खू का मानना है कि सिर्फ भारी बारिश और भूस्खलन ही नहीं बल्कि दोषपूर्ण विकास योजना के कारण पुल टूटे और सड़कें तबाह हो गईं जिससे हजारों करोड़ रुपये का नुकसान हुआ।
मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू के नेतृत्व वाली हिमाचल प्रदेश सरकार ने मांग की है कि सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश के नेतृत्व में एक जांच आयोग गठित किया जाए जो देखे कि आखिर क्यों राज्य को इस साल इतनी बड़ी पर्यावरणीय आपदा का सामना करना पड़ा। गौरतलब है कि इस आपदा में 200 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई और राज्य भर में सैकड़ों परिवार बेघर हो गए।
हिमाचल प्रदेश में बीते सप्ताह 70 से ज्यादा लोगों की जान चली गई, भारी बारिश के कारण शिमला के नजदीक एक मंदिर के ढहने से कई लोगों की मौत हो गई और बहुत सारे लोग उसमें फंस गए थे। हिमाचल का पड़ोसी राज्य उत्तराखंड इससे भी बदतर पर्यावरणीय आपदा से दोचार हुआ। पिछले कुछ दिनों में वहां भी 30 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई है। सबसे हालिया त्रासदी तब हुई केदारनाथ जा रहे पांच तीर्थयात्रियों की कार लगातार बारिश के कारण हुए हुए भूस्खलन की चपेट में आ गई।
हिमाचल के मुख्यमंत्री सुक्खू का मानना है कि सिर्फ भारी बारिश और भूस्खलन ही नहीं बल्कि दोषपूर्ण विकास योजना के कारण पुल टूटे और सड़कें तबाह हो गईं जिससे हजारों करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। राज्य में पानी और बिजली की आपूर्ति लाइनों को बड़ा नुकसान हुआ और दूरसंचार सेवाएं भी प्रभावित हुईं।
हिमाचल की मांग, मुआवज़ा भरे केंद्र
मुख्यमंत्री ने केंद्र से मुआवजे के रूप में 14,000 करोड़ रुपये की मांग के अलावा 126 मेगावाट की औट मंडी स्थित लारजी जल विद्युत परियोजना को भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) के गलत निर्माण से हुए नुकसान के एवज में 658 करोड़ रुपए का मुआवजा मांगा है।
सुक्खू ने इस बाबत केंद्रीय परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी को पत्र भेजा है। इसमें कहा गया है कि फोर-लेन के कारण सड़क ब्यास नदी में चार मीटर तक घुस गई जिससे नदी संकरी हो गई और खतरा बढ़ गया। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि यह बात 2019 में एनएचएआई को बताई भी गई थी, लेकिन उसने इस पर ध्यान नहीं दिया। रिपोर्ट में कहा गया कि एनएचएआई की इस गलती के कारण ब्यास में बाढ़ आने पर नदी का जल स्तर सड़क से चार मीटर ऊपर तक बढ़ गया।
पत्र में कहा गया है कि ‘नदी का तल 894 मीटर पर है और नदी की अधिकतम अनुमानित जल सीमा 904 मीटर है। फोर-लेन सड़क 910 मीटर की ऊंचाई पर है। लेकिन बाढ़ के बाद, जल स्तर 914 मीटर तक बढ़ गया जिसके कारण गाद लारजी विद्युत संयंत्र में घुस गया।’ मजबूरन बिजली उत्पादन को रोकना पड़ा और बांध की मरम्मत का काम दिसंबर, 2023 के अंत तक ही पूरा हो पाने की संभावना है। इसलिए राज्य सरकार इसकी वजह से राजस्व की हानि के बदले मुआवजे की मांग कर रही है।
एनएचएआई के लिए काम करने वाली कंपनी पर एफआईआर
लेकिन मामला इतने पर ही नहीं रुका। शिमला के पूर्व डिप्टी मेयर टिकेंद्र सिंह पंवार ने एनएचएआई और परियोजना को क्रियान्वित करने वाली कंपनी जीआर इंफ्रास्ट्रक्चर के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर उनपर आपराधिक लापरवाही का आरोप लगाया। पंवार ने आरोप लगाया है कि सोलन और परवाणु के बीच राजमार्ग के निर्माण में पर्यावरण मानदंडों का उल्लंघन किया गया। उन्होंने इस बात की जांच की मांग की है कि यह उल्लंघन लापरवाही के कारण हुआ या फिर मिलीभगत के कारण।
एफआईआर में कहा गया है कि: ‘पहाड़ की कटाई ढलान में की जानी चाहिए थी जबकि उसे सीधे काट दिया गया। कथित तौर पर जिन लोगों के भले के लिए यह परियोजना लाई गई, उन्हीं के लिए यह एक स्थायी समस्या बन गई है। यह आपराधिक उपेक्षा का मामला है जिससे प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र, मानव जीवन और जान-माल का भारी नुकसान हुआ। लोग अपनी कृषि उपज को बाजार तक नहीं ले जा पा रहे जिससे उन्हें भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ रहा है।’
उत्तराखंड में भी झेली भारी तबाही
उधर उत्तराखंड में जहां गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ के चार पवित्र मंदिरों तक जाने वाली चार धाम सड़क परियोजना के निर्माण में भी पहाड़ों की सीधी कटाई की गई और जिसके कारण ऐसी ही क्षति हुई, वहां इस तरह की कोई एफआईआर नहीं की गई। ऋषिकेश और कर्णप्रयाग के बीच रेल संपर्क के कारण तो और भी अधिक पर्यावरणीय क्षति हुई है।
चार धाम योजना ने भारत के पर्यावरण मानदंडों का तो बड़े पैमाने पर उल्लंघन किया। पर्यावरण और वन मंत्रालय के नियमों के मुताबिक 100 किलोमीटर से अधिक लंबाई वाली किसी भी सड़क परियोजना के लिए पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन जरूरी होता है, लेकिन यहां तो 900 किलोमीटर की परियोजना थी जो 529 भूस्खलन संभावित क्षेत्रों से गुजरने वाली थी। लेकिन सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय ने नियमों को ‘बाईपास’ करने का तरीका निकाल लिया और पूरी परियोजना को 53 खंडों में बांटने का फैसला किया और फिर दावा किया गया कि इनमें से प्रत्येक एक स्वतंत्र परियोजना थी!
उत्तराखंड सरकार ने भी 1980 के वन संरक्षण अधिनियम से बचने के लिए इसी हथकंडे का इस्तेमाल किया। दिखाया गया कि जंगलों के केवल छोटे हिस्से काटे जा रहे हैं और यह स्वीकार नहीं किया कि ये खंड अलग नहीं थे और कुल मिलाकर मामला 50.8 हेक्टेयर के जंगल का था क्योंकि तब इसके लिए पहले मंजूरी लेनी पड़ती।
सड़क निर्माण में 'आपराधिक भूल'
उत्तरकाशी जिले में काम कर चुकी पर्यावरण कार्यकर्ता मल्लिका भनोट कहती हैं, ‘बड़ी चतुराई से पूरे वन क्षेत्र को छोटे-छोटे खंडों में विभाजित कर दिया गया।’ जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस्ड साइंटिफिक रिसर्च, बेंगलुरु में कई दशकों से हिमालयी क्षेत्र का अध्ययन कर रहे पर्यावरण भूविज्ञानी के एस वल्दिया ने कहा कि सड़क निर्माण प्राधिकरण ने राज्य के भूवैज्ञानिक और जल विज्ञान को नजरअंदाज करके ‘आपराधिक भूल’ की है। क्या करना है और क्या नहीं, इसे दस्तावेज की शक्ल दी जा चुकी है। इसके बावजूद इंजीनियर और निर्माता कंपनी ने उन्हें ताक पर रख दिया। ’
चार धाम परियोजना के निर्माण में नियमों और दिशानिर्देशों की अनदेखी के अलावा कई वैज्ञानिक मानदंडों का भी उल्लंघन किया गया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सड़कें बनाते समय इस भूकंप-प्रवण राज्य की भूकंपीय दोष रेखाओं को भी ध्यान में नहीं रखा गया! वल्दिया ने चेतावनी दी कि ये दोष रेखाएं सक्रिय हैं और कई जगहों पर सड़कें इन्हें काट रही हैं। इससे भी खतरनाक बात यह है कि कुछ सड़कें तो इन दोष रेखाओं के साथ-साथ बनाई गई हैं। नतीजा यह है कि जमीन में छोटी सी भी हलचल सड़कों के आधार की चट्टानों को कमजोर कर देती है जिससे ये हिस्से धंसने और भूस्खलन के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं।
वैसे ही, जल निकासी की ओर भी ध्यान नहीं दिया गया। इंजीनियरों ने वर्षा जल के निकलने की व्यवस्था नहीं की। वल्दिया का मानना है कि जहां 1-2- मीटर लंबे पुल की जरूरत थी, वहां इंजीनियरों ने छोटी पुलिया बनाईं। जहां नालियां बनी भी हैं, वे कटान के मलबे से भर गई हैं।
दुःस्वप्न बन गई इस साल की चार धाम यात्रा
इस सारी उपेक्षा ने चार धाम यात्रा को एक दुःस्वप्न में बदल दिया है। इस वर्ष, पिछले दो महीनों से उत्तराखंड में हुई लगातार बारिश के कारण जगह-जगह भूस्खलन हुए और रोजाना के आधार पर औसतन 500 से 800 तीर्थयात्रियों के चार धाम मार्ग में जगह-जगह फंसे होने की खबरें आती रहीं। कई घर ढह गए हैं। लोक निर्माण विभाग के सर्वेक्षण से पता चला है कि राज्य में 75 से ज्यादा पुल उपयोग के लायक नहीं रह गए हैं। पिछले दो महीनों के दौरान कम-से-कम पांच प्रमुख पुल ढह गए हैं। हाल ही में प्रभावित होने वाला क्षेत्र मालन नदी पर बना पुल है जो कोटद्वार-सिगड्डी-हरिद्वार को जोड़ता है। इसके वजह से 50,000 लोग कटकर रह गए हैं।
राज्य आपातकालीन संचालन केंद्र (एसईओसी) से मिली जानकारी के मुताबिक, इस मानसून में अब तक 58 लोगों की जान चली गई है और 37 लोग घायल हुए हैं जबकि 19 अब भी लापता हैं। लेकिन एसईओसी अपनी वेबसाइट पर यह भी स्वीकारता है कि इस जानकारी को और अपडेट करने की जरूरत है। इसके अलावा राज्य में 1,167 घर क्षतिग्रस्त या पूरी तरह नष्ट हो गए हैं और कृषि भूमि का बड़ा हिस्सा बह गया है।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन पर जयराम रमेश की अध्यक्षता वाली स्थायी संसदीय समिति ने अपनी हालिया रिपोर्ट में सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित किया है कि कैसे उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में बढ़ते पर्यटन ने अनधिकृत संरचनाओं के निर्माण को बढ़ावा दिया है, जिनमें होमस्टे, गेस्ट हाउस, रिसॉर्ट, होटल और रेस्तरां शामिल हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि बड़े पैमाने पर हुए इन अवैध निर्माणों के कारण प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन हुआ और इनके कारण स्थिति और खराब हुई।
समिति ने पर्यावरण मंत्रालय से हिमालय को बचाने के लिए पारिस्थितिकी रूप से नुकसानदेह गतिविधियों पर रोक लगाने की मांग की और उसने विस्तार से उन कदमों के बारे में बताया है जो हिमालयी क्षेत्र में कथित विकास परियोजनाओं के अंतर्गत होने वाले निर्माण पर नजर रखने की योजना है।
ईएसए अधिसूचना संशोधित करने की तैयारी
राज्य एक बड़ी त्रासदी से दो-चार हो रहा है, इसके बावजूद पुष्कर सिंह धामी सरकार इस पहाड़ी राज्य की जनता या पारिस्थितिक भलाई को लेकर चिंतित नहीं दिख रही। वरिष्ठ सरकारी सूत्र बताते हैं कि फरवरी, 1989 की पर्यावरण स्थल आकलन (ईएसए) अधिसूचना को संशोधित करने की तैयारी की जा रही है। इस ईएसए को खास तौर पर दून घाटी की सुरक्षा के लिए लाया गया था ताकि भूमि का उपयोग नहीं बदला जा सके, विशेषकर ऐसे मामलों में जहां भूमि चारागाह या अन्य पर्यावरणीय सुरक्षात्मक गतिविधियों के लिए अलग रखी गई हो। ईएसए को खत्म करने का मतलब होगा इलाके में प्रदूषण फैलाने वाले निर्माण की इजाजत जो फिलहाल इन अधिसूचित क्षेत्रों में प्रतिबंधित है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर दून घाटी अधिसूचना जारी की गई थी और यह घाटी के पर्यावरण की रक्षा के लिए तैयार की गई थी और इसकी एक वजह यह भी थी कि यह एक प्रमुख जलग्रहण क्षेत्र है और गंगा बेसिन में बहने वाली कई नदियों का शुरुआती बिंदु।
इस अधिसूचना को हटाने से राज्य को इस संवेदनशील क्षेत्र में चूना पत्थर उत्खनन सहित कई हानिकारक उद्योग स्थापित करने की अनुमति मिल जाएगी। हालांकि वन मंत्री मंत्री सुबोध उनियाल ने बड़ी बेबाकी से कहा कि वह ईएसए को खत्म करना चाहते हैं ताकि राज्य में एक बार फिर बूचड़खानों और अन्य गैर प्रदूषक गतिविधियों को शुरू किया जा सके। हालांकि रीनू पॉल जैसे पर्यावरणविदों को आशंका है कि इसके बहुत बुरे नतीजे होंगे।
राज्य मशीनरी के भीतर एक मजबूत धड़ा एक बार फिर चूना पत्थर उत्खनन शुरू किए जाने का पक्षधर है जो चंद व्यापारियों और नेताओं के लिए नोट छापने की मशीन की तरह है। एक समय था जब चूना पत्थर उत्खनन ने देहरादून की पहाड़ियों को तहस-नहस कर दिया था और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हस्तक्षेप के कारण इसे रोका जा सका था। रिटायर्ड सैनिकों की सेवाएं लेकर एक इको टास्क फोर्स की स्थापना की गई और इसकी मेहनत के कारण मसूरी और देहरादून की पहाड़ियों को फिर से हरा-भरा करने में बड़ी सफलता मिली। पॉल कहती हैं, ‘अब वह सारी मेहनत बर्बाद हो जाने वाली है।’
गडकरी का अजीबो-गरीब तर्क
इस बीच, सड़क परिवहन परिवहन मंत्री नितिन गडकरी इस बहस में कूद पड़े हैं। एक ऑनलाइन साक्षात्कार में जिसे सोशल मीडिया पर व्यापक रूप से प्रचारित किया गया है (जिसमें हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सुक्खू भी मौजूद थे) जब गडकरी से पूछा गया कि इन हिमालयीन नदियों की बाढ़ को रोकने का क्या उपाय है, तो उन्होंने कहा कि इन नदियों को ‘सीधा करने की जरूरत है’, और जो पत्थर वे लाती हैं, उन्हें ‘हमें (एनएचएआई) दे दिया जाना चाहिए क्योंकि हमें उनकी जरूरत है।’ गडकरी का यह भी मानना था कि बाढ़ को रोकने के लिए नदियों के दोनों किनारों पर खड़ी दीवारें बनाई जानी चाहिए। इससे पता चलता है कि मानसून के महीनों के दौरान इन पहाड़ी नदियों के वेग और इनकी ताकत के बारे में उनकी समझ कितनी है।
यही वजह है कि सुक्खू का मानना है कि इस मामले में ऐसा जांच आयोग बनाया जाना जरूरी है जिसमें वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों और आम लोग हों और वे कोई उचित तरीका निकालें जिससे भविष्य में ज्यादा वैज्ञानिक विकास तरीकों को अपनाया जा सके।
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