ट्रिपल तलाक के बाद अब शरीया अदालत ‘दारुल क़ज़ा’ पर छिड़ी बहस

ट्रिपल तलाक पर अभी बहस थमी भी नहीं थी कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के देश के सभी जिलों में दारुल कजा यानी इस्लामिक शरीया अदालत खोलने के एलान ने एक बार फिर नई बहस शुरू कर दी है।

फोटोः सोशल मीडिया
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इस बार मामला फिर धर्म को लेकर है। जहां बीजेपी के नेताओं का मानना है कि देश के संविधान के अलावा कोई भी समानांतर अदालत नहीं होनी चाहिए, वहीं ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इसको सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुरूप बता रहा है। दारुल कजा इस्लामिक शरीयत (इस्लाम धर्म के कानून) के अनुसार अदालत होती है। यहां पर मुसलमानों के शादी, तलाक, जायदाद का बंटवारा, लड़कियों को जायदाद में हिस्सा जैसे मामलों पर सुनवाई होती है। दारुल कजा में एक या उससे अधिक जज हो सकते हैं, जिन्हें काजी कहा जाता है। ये काजी इस्लामिक शरीया के विद्वान होते हैं। वर्तमान में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अधीन देश भर में 50 ऐसे दारुल कजा संचालित हैं। आमतौर पर सुन्नी मुसलमान दारुल कजा को मान्यता देते हैं। बोर्ड 1993 से देश में दारुल कजा संचालित कर रहा है। अब बोर्ड का इरादा है कि देश के हर जिले में कम से कम एक दारुल कजा की स्थापना कर दी जाए।

कोई भी पक्ष, महिला या पुरुष अपनी अर्जी दारुल कजा में जा कर देता है। फिर इसमें दोनों पक्षों की सुनवाई होती है। काजी दोनों पक्षों को नोटिस जारी करता है। बयान दर्ज होते हैं, सुनवाई के दौरान इस्लामिक शरीयत के मुताबिक लिखित फैसला सुनाया जाता है। हालांकि, भारत में काजी के पास अपने फैसले को जबरदस्ती लागू करवाने की शक्ति नहीं है। इसको मानना या न मानना दोनों पक्षों पर निर्भर करता है। जो मुस्लिम देश इस्लामिक शरीयत मानते हैं, वहां इसको कानूनी दर्जा प्राप्त है। एक अंदाज के मुताबिक एक दारुल कजा को स्थापित करने में लगभग 50 हजार का खर्चा अनुमानित है।

पिछले दिनों मुसलमानों के अंदर ट्रिपल तलाक और निकाह हलाला जैसे मामले सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गए। केंद्र सरकार भी ट्रिपल तलाक के विरोध में आ गई। बोर्ड को ऐसे में अपनी रणनीति में बदलाव करना पड़ा। बोर्ड का मानना है कि मुसलमानों के पारिवारिक मामले दारुल कजा से निपटाए जाएं। ऐसा करने से खर्चे की बचत, विवाद का जल्द फैसला और इस्लाम के अनुसार निपटारा संभव है। लेकिन बात यहां तक पहुंच गई कि सवाल उठने लगे कि क्या मुसलमान भारत में अपने लिए अलग अदालत लगा लेंगे। ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड के सेक्रेटरी जफरयाब जीलानी सारी आशंकाओं को सिरे से खारिज करते हैं। जीलानी के अनुसार इस मामले में मीडिया में बहुत भ्रांतियां फैल गई हैं। उन्होंने कहा, “मैं साफ करना चाहता हूं कि दारुल कजा पैरेलल कोर्ट नहीं हैं, जिसपर 7 जुलाई 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया था।”

जीलानी आगे बताते हैं, “हम दारुल कजा में काजी के जरिए सिर्फ इस्लामिक शरीयत के तहत किसी मामले में इस्लामिक कानून बता देते हैं, काजी कोई एनफोर्सिंग एजेंसी नहीं है। ट्रिपल तलाक के मुद्दे से दारुल कजा को जोड़ कर देखना बिलकुल गलत है।” जीलानी उत्तर प्रदेश में लखनऊ की हाई कोर्ट बेंच में वकील हैं और पिछली समाजवादी सरकार में प्रदेश के एडिशनल एडवोकेट जनरल रह चुके हैं। इस मुद्दे पर बहस तब आगे बढ़ गई, जब बीजेपी सांसद मीनाक्षी लेखी ने शरिया कोर्ट को नकारते हुए बयान दिया कि यहां कोई इस्लामिक गणराज्य नहीं है। वहीं, ऑल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुस्लेमीन के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने भी कहा कि दारुल कजा कोई पैरेलल कोर्ट नहीं है और 1993 से काम कर रहा है। उन्होंने कहा कि इस मामले में बीजेपी के नेता और मंत्रियो को सुप्रीम कोर्ट का फैसला पहले पढ़ लेना चाहिए।

वहीं दूसरी ओर मुस्लिम महिलाओं में इसको लेकर मतभेद भी अपने-अपने समुदाय की मान्यताों के अनुसार नजर आ रहा है। लखनऊ में रहने वाली लेखिका डॉ सदफ नईम के अनुसार दारुल कजा से आसानी तो है, मामले जल्दी निपट जाते हैं। उन्होंने कहा, “अब जब आप शादी इस्लामिक तरीके से कर रहे हैं, तो अपने मुद्दे भी इस्लामिक तरीके से सुलझाएं। लेकिन समस्या ये है कि अपने फायदे की बात तो सब मान लेंगे, लेकिन जैसे ही बहनों को जायदाद में हिस्सा देने की बात आएगी तो यही सोग दारुल कजा के फैसलों को नदरअंदाज करने से भी नहीं झिझकेंगे।

लखनऊ में मौजूद दारुल कजा के काजी-ए-शरियत मौलाना मुस्तकीम नदवी मामलों की सुनवाई करते हैं। उनके अनुसार महीने में लगभग 10-12 केस उनके पास आ ही जाते हैं। वे बताते हैं कि “ज्यादातर मामले निकाह और तलाक से संबंधित होते हैं। हम लोग सुनवाई करके दोनों पक्षों का बयान ले कर लिखित फैसला सुनाते हैं, जो इस्लामिक शरीयत के अंतर्गत होता है।” हालांकि, नदवी बताते हैं कि कोशिश रहती है कि दोनों पक्षों में सुलह समझौता हो जाए। लखनऊ में दो जगह फरंगी महल और नदवातुल उलूम में दारुल कजा स्थापित है।

वहीं, दूसरी तरफ शिया समुदाय मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा स्थापित किसी भी दारुल कजा को नहीं मानता है। शिया समुदाय बोर्ड के इस कदम से दूरी बनाए हुए है। शिया वक्फ बचाओ आंदोलन के अध्यक्ष शमील शम्सी बताते हैं कि बोर्ड का यह कदम ‘आ बैल मुझे मार वाली स्थिति ला देगा।’ शम्सी के अनुसार पहले शिया समुदाय की भी शरीया अदालत थी, लेकिन 1857 में अग्रेजों ने जब कब्जा किया, तो इस पर पाबंदी लगा दी थी। शम्सी बताते हैं कि तब शिया शरीया अदालत ने बेगम हजरत महल के नाबालिग बेटे बिरजिस कद्र को अवध का नवाब घोषित किया था, जिसको अंग्रेजो ने मान्यता नहीं दी और खत्म कर दिया। उसके बाद एक बार और कोशिश हुई लेकिन सफल न हो सकी। शम्सी के अनुसार, “अब तो गली-गली में मौलाना फैसला सुनाने लगे हैं। अब इंटरनेट का जमाना है, इसीलिए ईरान और इराक से शरीयत के मुताबिक फतवा मंगवा सकते हैं, ये अब बहुत आसान हो गया है, इसीलिए अब यहां शरीया अदालत की कोई जरूरत नहीं हैं।”

दूसरी ओर उत्तर प्रदेश सरकार के अधीन यूपी शिया सेंट्रल वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष सय्यद वसीम रिजवी के अनुसार शरीया अदालत चलाना देशद्रोह के अंतर्गत आता है। उनके अनुसार, “हिंदुस्तान में शरीया हुकूमत नहीं है। ऐसे में बोर्ड द्वारा काजी (जज) नियुक्त करना गलत है। भारत सरकार को तत्काल ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड पर पाबंदी लगा देनी चाहिए।”

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