सरकारों के पास नहीं है कचरा प्रबंधन की योजना
दिल्ली में लैंडफिल साइट कचरे के बड़े पहाड़ हैं जिनकी ऊंचाई 50 मीटर से भी अधिक है और आप किसी भी तरफ से दिल्ली में प्रवेश करें ये पहाड़ आपको जरूर दिखेंगे।
कुछ दिनों पहले दिल्ली के गाजीपुर में स्थित लैंडफिल साइट में कचरे के ढेर के खिसकने के कारण दो व्यक्तियों की मौत हो गई और कुछ लोग घायल हो गए। दिल्ली में लैंडफिल साइट कचरे के बड़े पहाड़ हैं जिनकी ऊंचाई 50 मीटर से भी अधिक है और आप किसी भी तरफ से दिल्ली में प्रवेश करें ये पहाड़ आपको जरूर दिखेंगे। दिल्ली की यह हालत तब है जब बड़े घूम-धड़ाके के साथ स्वच्छ भारत अभियान यहीं से शुरू किया गया था। झाडू लेकर अपने चहेतों की भीड़ में प्रधानमंत्री से लेकर छुटभैये बीजेपी नेताओं की फोटो कई महीनों तक टीवी से लेकर अखबारों तक में छाई रही। प्रधानमंत्री आज तक अपने लगभग सभी भाषणों में इसका जिक्र करना नहीं भूलते।
दिल्ली में कचरे के प्रबंधन की जिम्मेदारी विभिन्न नगर निगमों की है जहां प्रधानमंत्री की पार्टी के लोग ही पिछले दस वर्षों से भी अधिक समय से लगातार काबिज हैं। हाल में हुए नगर निगमों के चुनाव के समय भी दिल्ली की सफाई का दावा करने से संबंधित बीजेपी के बड़े-बड़े होर्डिंग्स चारों तरफ लगे थे। देखा जाए तो प्रधानमंत्री का अभियान अधूरा था। कचरे को जुटाने और फिर उसे अलग करने के बाद उसे निपटाया कैसे जाए, इस बारे में कुछ नहीं बताया गया।
दिल्ली में सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग 10 हजार टन कचरा प्रतिदिन उत्पन्न होता है। आंकड़े यह भी बताते हैं कि यहां प्रतिव्यक्ति 600 ग्राम कचरा हर दिन जमा होता है। दिल्ली की आबादी इस समय लगभग 1 करोड़ 9 लाख है, इस हिसाब से प्रतिदिन लगभग 11 हजार 4 सौ टन कचरा उत्पन्न होना चाहिए। यह सरकारी आंकड़ों से काफी ज्यादा है। इसका सीधा सा मलतब है कि यहां उत्पन्न होने वाले कचरे की कुल मात्रा का आकलन भी अभी तक ठीक से नहीं किया गया है और बिना आकलन के वैज्ञानिक तरीके से इसका प्रबंधन कतई नहीं किया जा सकता।
दिल्ली में तीन पुराने लैंडफिल साइट भलस्वा, ओखला और गाजीपुर में स्थित हैं और 2011 में नरेला-बवाना में चौथा लैण्डफिल साइट बनाया गया। तीनों पुराने साइट में कचरा एकत्रित करने की क्षमता वर्षों पहले ही समाप्त हो चुकी है, फिर भी इस पर लगातार कचरा भरा जाता रहा है। इन चारों साइट पर प्रतिदिन 9000 टन कचरा डाला जाता है। इसका सीधा मतलब है कि रोज 1000 टन कचरा ऐसा होता है जो लैण्डफिल साइट तक पहुंचता ही नहीं और इधर-उधर पड़ा रहता है। यह एक अजीब बात है कि देश की राजधानी भी अपने पूरे कचरे का निपटारा नहीं कर पाती।
दिल्ली में कचरे के प्रबंधन में हजारों कचरा बीनने वालों का बड़ा योगदान है, निगर निगम तो इसमें पूरी तरह से नकारा रहे हैं। कचरे से बिजली बनाने वाले एक-दो संयंत्र बहुत ताम-झाम और प्रचार-प्रसार के बाद लगाए जाते हैं, फिर कुछ दिनों बाद उनके ही प्रदूषण से परेशान नागरिक आवाज उठाना शुरू कर देते हैं। वैसे भी दिल्ली में कचरा हो या वायु प्रदूषण की समस्या या फिर यमुना नदी का प्रदूषण, इन्हें दूर करने के लिए न तो कोई योजना है और न ही कोई इच्छा शक्ति। दिल्ली सरकार के पास भी कोई ठोस योजना नहीं है। जब कभी कोई दुर्घटना होती है तब आनन-फानन में कुछ कदम उठाए जाते हैं और फिर अगली दुर्घटना तक सब कुछ पुराने तरीके से चलने लगता है।
मजेदार बात यह है कि दुर्घटना के बाद ही पत्रकारों और न्यायालयों को यह समस्या नजर आती है। भलस्वा और गाजीपुर लैण्डफिल साइट से कचरे के जलने से घना काला धुंआ लगातार उठता रहता है और एक बड़े क्षेत्र में फैलता है। यह भी किसी को नहीं दिखाई देता और हम अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर जलवायु परिवर्तन को रोकने की बातें करते हैं। दिल्ली में कचरे को खुले में जलाना कानूनन अपराध है पर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड आंखें बंद किए बैठा रहता है और न्यायालयों में लगातार गलत रिपोर्ट पेश करता है।
पिछले कुछ वर्षों से सरकारी स्तर पर स्मार्ट शहरों की चर्चा की जा रही है जो वर्तमान संदर्भ में हास्यास्पद है। कोई ऐसा शहर नहीं है जहां निवासियों को साफ-सफाई की बुनियादी सुविधा लगातार मिलती हो। मुंबई बारिश में डूबने लगता है और दिल्ली कचरे के ढे़र में दब जाती है। स्वच्छ भारत अभियान के तहच जिन शहरों को साफ बताया जाता है, वे भी कहीं से साफ नजर नहीं आते।
पर्यावरण संरक्षण के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में जाकर एक साफ-सुथरे देश की छवि प्रस्तुत करने से अच्छा है, सरकारें जमीनी स्तर पर कुछ काम करना शुरू करें। हमें तो शहरों से उत्पन्न कचरे या प्रदूषण की ही मात्रा नहीं मालूम, ऐसे में इसका प्रबंधन तो निश्चित तौर पर अभी बहुत दूर है।
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