सही मायने में जन वैज्ञानिक थे प्रोफेसर यशपाल
आजादी के बाद शिक्षा के क्षेत्र में जिन चंद लोगों का बेहद बुनियादी योगदान है, प्रोफेसर यशपाल उनमें शीर्ष के लोगों में शामिल हैं।
आज प्रोफेसर यशपाल हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन आजादी के बाद शिक्षा के क्षेत्र में जिन चंद लोगों का बेहद बुनियादी योगदान है, प्रोफेसर यशपाल उनमें शीर्ष के लोगों में शामिल हैं। एक शिक्षक और वैज्ञानिक होने के अलावा उन्होंने कई भूमिकाओं में लगातार इसके लिए कोशिश की, लेकिन नतीजे उतने अनुकूल नहीं आए।
प्रोफेसर यशपाल को सही मायने में जन वैज्ञानिक कहा जा सकता है। वे आम आदमी की भाषा में विज्ञान को समझने, समझाने के लिए जीवन भर प्रयत्नशील रहे। उनका मानना था कि जिस विज्ञान को आम लोगों को नहीं समझाया जा सकता, वह विज्ञान अधूरा है। उन्हें आम लोगों की समझ पर भी उतना ही भरोसा था। शिक्षा के क्षेत्र में वे उस ज्ञान के पक्षधर थे जो सदियों के अनुभव से समाज ने अर्जित किया है। वे समाज की कूपमंडूकता के भी विरोधी थे और लगातार अंधविश्वासों, तंत्र-मंत्र के खिलाफ संघर्ष करते रहे। यही वजह थी कि दूरदर्शन पर वर्षों तक चलने वाला उनका कार्यक्रम ‘टर्निंग प्वांइट' इतना लोकप्रिय हुआ। देश के अलग-अलग हिस्सों से आए सवालों पर वे बच्चों की सी सहजता से बात करते थे। वे मानते थे कि अगर स्कूलों में बच्चों को विज्ञान की रोशनी में इस सहज ज्ञान को समझाया जाए तो शिक्षा का कायाकल्प हो सकता है।
उन्होंने हर मंच से बार-बार इस बात को दोहराया कि बच्चे केवल ज्ञान के ग्राहक ही नहीं हैं, वे उसे समृद्ध भी करते हैं। किसान, आदिवासी समाज की भाषा और उनका परंपरागत ज्ञान भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना किताबी ज्ञान। उनका मानना था कि पाठ्यक्रम में दोनों का सामंजस्य, संतुलन होना चाहिए। स्कूल की दीवारों के भीतर और उसके बाहर के परिवेश में जितना कम फासला होगा, शिक्षा उतनी ही बेहतर, सहज और रुचिकर होगी।
उन्होंने एक साथ वैज्ञानिक, शिक्षाविद्, विज्ञान संपादक और प्रशासक के रूप में काम किया। अपनी भाषा के प्रति उनका प्यार बेमिसाल था। मुझे दिल्ली की एक गोष्ठी याद है। शायद नेहरूजी के किसी वैज्ञानिक अवदान के प्रसंग में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में आयोजित थी। प्रोफेसर यशपाल मुख्य वक्ता थे। बोलने के लिए खड़े हुए तो मंच की तरफ देखते हुए पूछा, ‘क्या हिन्दी में बोल सकता हूं?’ जाहिर है दिल्ली के ऐसे मंचों पर बहुत स्पष्टता और उत्साह से लोग हिन्दी के लिए हामी नहीं भरते। कुछ मिनट तो वे अंग्रेजी में बोले, फिर हिंदी की सहजता में उतर आए। प्रसंग भी इतने आत्मीय थे कि उन्हें केवल अपनी भाषा में ही कहा जा सकता था। वैज्ञानिक सोच को बढ़ाने के वाला यह एक यादगार भाषण था। यह एक सच्चाई है कि जो व्यक्ति समाज को समझता है, उनके बीच रहते हुए एक लंबे संघर्ष से गुजरा है, उसे जन-भाषा की ताकत और उसकी संवाद-शक्ति का एहसास है। यही कारण है कि प्रोफेसर यशपाल के किसी भी भाषण के बाद सवालों की बौछार लग जाती थी। वे न तो विज्ञान का आतंक चाहते थे, न अंग्रेजी का।
यशपाल का जन्म मौजूदा पाकिस्तान के झंग में हुआ था। विभाजन की त्रासदी से गुजरते हुए परिवार ने हरियाणा के कैथल में डेरा डाला। पंजाब यूनिवर्सिटी से भौतिकी में स्नातकोत्तर के बाद आगे की पढाई के लिए वे एमआईटी, अमेरिका गए। वहां दाखिले का प्रसंग भी शिक्षा–विमर्श के लिए बहुत प्रासंगिक है। प्रवेश परीक्षा में वे असफल रहे तो उन्हें फिर से परीक्षा देने को कहा गया और इस बार उन्होंने बहुत अच्छा किया। इसका एक बड़ा सबक यह है कि व्यक्ति की क्षमताओं को जांचने के लिए दुनिया भर के विश्वविद्यालयों की तर्ज पर परीक्षा पद्धतियों को लचीला बनाने की जरूरत है।
विज्ञान के साथ-साथ शिक्षा में उनका मौलिक योगदान रहा है। 1992 में ‘बस्ते का बोझ' शीर्षक से उनकी रिपोर्ट पर्याप्त चर्चा में रही। वे कोचिंग और ट्यूशन के घोर विरोधी थे। कोचिंग के बूते आईआईटी में चुने जाने के भी वे पक्ष में नहीं थे। उनका मानना था कि यह बनावटी सफलता है। जो सफल हो जाते हैं उन्हें दूसरे विषयों का शायद ही कोई ज्ञान होता है और जो असफल रहते हैं वे पूरी उम्र एक निराशा के भाव में रहते हैं। पाठयक्रम, शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात, नर्सरी के दाखिले में टेस्ट के लिए मां-बाप के इंटरव्यू को बंद करना – इन बातों को उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर उठाया और समझाने की कोशिश की।
उनकी अध्यक्षता में बनी राष्ट्रीय पाठ्यचर्चा कार्यक्रम- 2005 एक एतिहासिक दस्तावेज है। हालांकि इसके पक्ष–विपक्ष में कम विवाद नहीं हुआ। पारंपरिक विज्ञान के विरोधी इतिहासकारों ने यह कहकर चुनौती दी कि उन्हें इसकी प्रामाणिकता पर संदेह है। लेकिन यशपाल अपनी मान्यता पर अडिग रहे। उनका कहना था कि इसे सिरे से नकारने की बजाय नयी वैज्ञनिक कसौटियो पर कसा जाए क्योंकि हर ज्ञान या समझ समाज-सापेक्ष होती है। ग्रेड प्रणाली, परीक्षा को तनाव–मुक्त करने की उनकी सिफारिशों का दूरगामी महत्व है। कॉमन स्कूल व्यवस्था की बात कोठारी आयोग ने 1966 में की थी, यशपाल भी उसके पूरे समर्थन में थे। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि सरकारी स्कूल इतने अच्छे और ज्यादा हो जाएं कि बच्चे निजी स्कूल की तरफ झांके भी नहीं। लोगों की सारी आमदनी इन प्राइवेट स्कूलों में बर्बाद हो रही है। 2008 में उच्च शिक्षा के कायान्तरण के लिए भी उन्होंने एक रिपोर्ट बनाई। दुर्भाग्य से इन दोनों ही रपटों को न सही रूप में समझा गया, न लागू किया गया।
जीवन भर अटूट जिजीविषा और उत्साह के साथ काम करने वाले यशपाल को इन बातों का अहसास था। 2009 में आकाशवाणी के एक कार्यक्रम में मैंने जब समान शिक्षा, अपनी भाषा में पढ़ाई, बढ़ते कोचिंग संस्थानों से जुड़े सवालों पर सरकार की असफलता के बारे में पूछा तो उनकी आवाज में निराशा साफ झलक रही थी। यूं तो उन्हें पद्मभूषण, पद्मविभूषण, कलिंग पुरस्कार जैसे सर्वोच्च सम्मानों से नवाजा गया, उनकी शिक्षा संबंधी सिफारिशों की चर्चा भी देश भर में होती है, लेकिन इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि ऐसे वैज्ञानिक के होते हुए भी वैज्ञानिक सोच के पैमाने पर देश काफी पीछे है। प्रोफेसर यशपाल को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि उनके विचारों, शिक्षा को फिर से जन-जन तक फैलाया जाए।
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Published: 16 Aug 2017, 8:14 PM