कैफ़ी आज़मीः जिंदगी भर सांप्रदायिकता के खिलाफ और मजदूरों के हक में लिखने वाला शायर
अली सरदार जाफरी से मुलाकात ने मदरसे में पढ़ने वाले कैफी आजमी के दिल और दिमाग को बगावत के रास्ते पर ला खड़ा किया और एक दिन इस नौजवान मौलवी ने मदरसे में ही हड़ताल करवा दी, जिसकी सजा के तौर पर मदरसे से निकाल दिए गए।
उर्दू के मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी की पैदाइश उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में मिजवां गांव के एक जमींदार खानदान में 14 जनवरी 1919 को हुई थी। बचपन में मां-बाप ने उनका नाम सैय्यद अख्तर हुसैन रिजवी रखा था। मां-बाप बेटे कैफी को मौलवी बनाना चाहते थे, इसलिए उन्हें लखनऊ के एक मदरसे में दाखिल करवा दिया। लेकिन मदरसे का माहौल बेटे को रास नहीं आया और उसने अपनी अलग राह चुन ली।
उस समय लखनऊ के इलमी और अदबी माहौल पर प्रगतिशील साहित्यकार छाये हुए थे जिनमें अली सरदार जाफरी, मजाज, एहतेशाम हुसैन, आले अहमद सुरूर आदि कई बड़े नाम शामिल थे। अली सरदार जाफरी से मुलाकात ने अख्तर हुसैन के दिल और दिमाग को बगावत के रास्ते पर ला खड़ा किया और एक दिन इस नौजवान मौलवी ने मदरसे में हड़ताल करवा दी, जिसकी सजा के तौर पर मदरसे से निकाल दिए गए।
इसके बाद यह नौजवान, जिसमें बचपन से ही शायरी के जरासीम मौजूद थे, कैफी आजमी के नाम से उर्दू की साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में छा गया। सरदार जाफरी ने कैफी को पी सी जोशी से मिलवाया। पी सी जोशी को इस नौजवान शायर की प्रतिभा का एहसास हुआ और उन्होंने कैफी को बम्बई आने की दावत दे दी, जिसने उनके भविष्य का रास्ता तय कर दिया। इसके बाद कैफी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होकर पार्टी के कम्यून में रहने लगे। मजदूरों की बैठकों में कैफी की आवाजें गूंजने लगीं। इस दौरान कई बार कैफी ने भी मजदूरों के साथ पुलिस की लाठियां खाईं और कई बार जेल की भी सैर की। लेकिन इसके बावजूद उनके हौसले में कोई कमी नहीं आई और उन्होंने कहा :
ऐलान-ए-हक़ में ख़तर-ए-दार-ओ-रसन तो है
लेकिन सवाल यह है कि दार-ओ-रसन के बाद
उस वक़्त सज्जाद ज़हीर भी बम्बई में कम्युनिस्ट पार्टी में थे। उनके अलावा शहर में बलराज साहनी, मजरूह सुल्तानपुरी, जां निसार अख्तर, साहिर लुधियानवी, प्रेम धवन, अनिल बिस्वास और ख्वाजा अहमद अब्बास के अलावा पूरी फिल्म नगरी पर तरक्की पसंद लोग छाये हुए थे। अब कैफी दूर-दूर मुशायरों में जाने लगे थे। इसी दौरान हैदराबाद के एक मुशायरे में उनकी मुलाकात एक अल्हड़ सी लड़की से हो गई जो जल्दी ही शादी में तब्दील हो गई। यह लड़की इप्टा में शामिल हो गई जो बाद में शौकत कैफी के नाम से मशहूर हुईं। इस दौरान शौकत ने गर्भ धारण कर लिया। उस वक्त कम्युनिस्ट पार्टी का अनुशासन सख्त हुआ करता था। पार्टी ने आदेश दिया कि गर्भ गिरा दिया जाये। इस मौके पर एक मां ने कम्युनिस्ट पार्टी के फैसले को चुनौती दे डाली और गर्भ गिराने से इंकार कर दिया। उन्हें एक बच्ची पैदा हुई। अगर शौकत ने पार्टी का आदेश मान लिया होता तो आज शबाना आजमी हमारे बीच नहीं होतीं।
70 के दशक में कैफी पर फालिज का हमला हुआ और जिस्म का एक हिस्सा जिंदगी भर के लिए बेकार हो गया। फिर भी कैफी के जोश और प्रतिबद्धता में कोई कमी नहीं आई। उन्होंने सांप्रदायिकता के खिलाफ और मजदूरों के अधिकारों के लिए जमकर लिखा और अपनी पाटदार आवाज से लोगों के दिलों पर राज किया। उनकी शायरी की कुछ मिसालें देखिये और खुद फैसला कीजिये :
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आयेगी
मैं उठूं, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आयेगी
ये जमीं तब भी निगल लेने को आमादा थी
पांव जब टूटती शाख़ों से उतारे हमने
इन मकानों को ख़बर है न मकीनों को ख़बर
उन दिनों की जो गुफाओं में गुज़ारे हमने
आंधियां तोड़ लिया करती थीं शमओं की लवें
जड़ दिये इस लिये बिजली के सितारे हमने
कीं ये दीवार बलंद और बलंद और बलंद
बाम-ओ-दर और ज़रा और संवारे हमने
बन गया क़स्र तो पहरे पे कोई बैठ गया
सो रहे ख़ाक पे हम शोरिश-ए-तामीर लिये
सांप्रदायिकता और नफरत के खिलाफ जंग करते हुए अमन और इंसान दोस्ती का यह सिपाही 84 साल की उम्र में 10 मई 2002 को कभी वापस लौटकर नहीं आने के लिए हमसे दूर चला गया। लेकिन हम कैफी को कैसे भूल सकते हैं। वो हमेशा हमारे दिल-ओ-दिमाग का हिस्सा रहेंगे।
इंसान की ख़ाहिशों की कोई इंतेहा नहीं
दो गज़ ज़मीं भी चाहिये, दो गज़ कफ़न के बाद
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