गुलजार : शब्दों का शिल्पकार
गुलजार के लफ्ज देखकर हमारी रगों में रिश्तों की कंपकपाहट दौड़ने लगती है, और ये कंपन जैसे उनकी नज्म की शक्ल में कागज पर बिछा होता है।
उनकी नज्मों में एक खामोशी है, जो लफ्जों को पाकर भी बोलना नहीं जानती। उनके इन लफ्जों से गुजरते हुए, एक जलते और बुझते रिश्तों की कंपकपाहट हमारी रगों में उतरने लगती है, इस हद तक कि आंखें उस कागज को देखने लगती हैं, मानों एक ‘कंपना’ है जो उस कागज पर बिछा हुआ है। ये लिखा था मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम ने जब ‘उन्होंने रात भर बुझते हुए रिश्तों को तापा हमने’ नज्म पढ़ी थी। ये नज्म लिखी थी लफ्जों के जादूगर और एहसास के शिल्पकार गुलजार साहब ने।
गुलजार साहब का 18 अगस्त को जन्मदिन होता है। इस साल गुलजार का 83वां जन्मदिन है। उनकी पैदाइश 1934 में पाकिस्तान के दीना में हुयी। बंटवारे के वक्त वह भारत आ गए। उस वक्त उनकी उम्र कोई ज्यादा तो नहीं थी लेकिन उस दौर के खून-खराबे ने उन पर गहरा असर डाला। इस हिंसा की छाप उनकी बहुत सी नज्मों में नजर आती है। उनमें से एक है, भमीरी:
हम सब भाग रहे थे
रिफ्यूजी थे
मां ने जितने जेवर थे, सब पहन लिए थे
बांध लिए थे
छोटी मुझसे... छह सालों की
दूध पिलाके, खूब खिलाके, साथ लिया था
मैंने अपनी एक “भमीरी” और एक लट्टू
पाजामे में उड़स लिया था
रात की रात हम गांव छोड़कर भाग रहे थे
रिफ्यूजी थे...
आग धुएं और चीख पुकार के जंगल से गुज़रे थे सारे
हम सब के सब घोर धुएं में भाग रहे थे
हाथ किसी आंधी की आंतें फाड़ रहे थे
आंखें अपने जबड़े खोले भौंक रही थीं
मां ने दौड़ते दौड़ते खून की कै कर दी थी !
जाने कब छोटी का मुझसे छूटा हाथ
वहीं उसी दिन फेंक आया था अपना बचपन...
लेकिन मैंने सरहद के सन्नाटों के सहराओं में अक्सर देखा है
एक “भमीरी” अब भी नाचा करती है
और एक “लट्टू” अब भी घूमा करता है... !!!
गुलजार ने बंटवारे के ही हैं, बल्कि दुनिया भर में होती जंगों और दंगों के हालातों पर कहानियां और नज्में लिखी हैं। उनमें से एक है -‘खुदा-3’
पिछली बार मिला था जब मैं
एक भयानक जंग में कुछ मसरूफ़ थे तुम
नए नए हथियारों की रौनक से काफ़ी खुश लगते थे
इससे पहले अन्तोला में
भूख से मरते बच्चों की लाश दफ्नाते देखा था
और एक बार ...एक और मुल्क में जलजला देखा
कुछ शहरों से शहर गिरा के दूसरी जानिब लौट रहे थे
तुम को फलक से आते भी देखा था मैंने
आस पास के सय्यारों पर धूल उड़ाते
कूद फलांग के दूसरी दुनियाओं के माहवर तुम
जब भी जमीं पर आते हो
भूचाल चलाते और समंदर खौलाते हो
बड़े 'इरैटिक' से लगते हो
कायनात में कैसे लोगों की सोहबत में रहते हो तुम ?
ये गुलजार साहब का ऐसा रुख है जो उनके लिखे फिल्मी गानों में नहीं नजर आता। लेकिन उनकी यही संवेदनशीलता है जो उनके बाकी लिखे में झलकता है।
गुलजार साहब पाकिस्तान से पहले दिल्ली आए। बंबई जाने से पहले कुछ साल यहां रहें। दिल्ली में उर्दू उन्हें मौलवी मुजीबुर्रहमान रहमान साहब ने सिखायी। उन्हें बैतबाजी का खूब शौक था और वह अपने दोस्त अकबर रशीद के साथ खेलते थे। बंबई में उनकी मुलाकात तरक्की पसंद यानी प्रगतिशील शायरों से हुई । फिल्मों के लिए जो पहला गाना जो उन्हों ने लिखा वो था,फिल्म बंदनी के लिए। वो खुद भी इस गाने को अपना ‘इंट्री पास’ कहते है। वो गाना था
मोरा गोरा अंग लई ले
मोहे शाम रंग दई दे
छुप जाऊंगी रात ही में
मोहे पी का संग दई दे
एक लाज रोके बैयां
एक मोह खींचे बैयां
जाऊं किधर न जानूं
हम का कोई बताई दे
लेकिन जिस गाने से लोगों ने उन्हें पहचाना,वो था फिल्म ‘खामोशी’ का- हमने देखी है इन आंखों की महकती खुशबू
और उसके बाद,वो लिखते ही रहे,और ये सफर आज तक जारी है। ये उनकी कल्पनाशीलता है जो उनकी शायरी को औरों से अलग करती है। उसका एक नमूना इस नज्म में भी नजर आता है-
रूह देखी है,कभी रूह को महसूस किया है?
जागते जीते हुए दूधिया कोहरे से लिपट कर
सांस लेते हुए उस कोहरे को महसूस किया है?
या शिकारे में किसी झील पे जब रात बसर हो
और पानी के छपाकों में बजा करती हैं तालियां
सुबकियां लेती हवाओं के भी बैन सुने हैं?
चौदहवीं-रात के बर्फ से इक चांद को जब
ढेर से साए पकड़ने के लिए भागते हैं
तुम ने साहिल पे खड़े गिरजे की दीवार से लग कर
अपनी गहनाती हुई कोख को महसूस किया है?
जिस्म सौ बार जले तब भी वही मिट्टी का ढेला
रूह इक बार जलेगी तो वो कुंदन होगी
रूह देखी है, कभी रूह को महसूस किया है?
गुलजार साहब एक रोजमर्रा और मामूली सी इमेज को लेकर उसे कुछ इस तरह से इस्तेमाल करते है कि वो निखर कर एक नयी शक्ल इख्तियार कर लेती है। जैसा कि, फिल्म घरोंदा का वो गाना जिसमे दिन को एक खाली बर्तन कहा गया है- दिन खाली खाली बर्तन है, और रात है जैसे अंधा कुंआ और दूसरी तरफ वो उस इश्क की बात करते हैं,जिसकी खुशबू से दुनिया और जिसकी जुबान में उर्दू की मिठास हो-फिल्म दिल से
तावीज बनाकर पहनूं उसे आयत की तरह मिल जाए कहीं
मेरा नगमा वही
मेरा कलमा वही
यही इमेज एक और नज्म में नजर आती है:
तुम्हारे होठों की ठंडी ठंडी तलावतें झुक के
मेरी आंखों को छू रहीं है
मेरे अपने होठों से चुन रहा हूं
तुम्हारी सांसों की आयात को
फिल्मों के लिए गाने लिखने और कहानियां लिखने के आलावा भी गुलजार साहब का एक पहलू है, जो बहुत लोगों को नहीं पाता। वो भोपाल के एक एनजीओ आरूषी के साथ बहुत सालों से जुड़े हुए है। वहां के नेत्रहीन बच्चों के लिए एक कायदा (पाठ) लिखा है और उस एनजीओ के लिए पोस्टर और कैलेंडर के लिए भी नज्म लिखा करते हैं। इसके कुछ उदाहरण ये हैं:
मेरे पीछे-पीछे आओ लोगों
मैंने चड्ढी में आंखे रखी है
या फिर....
खेल-खेल में पढ़ सकते हैं
हम तो ब्रेल भी पढ़ सकते हैं
एक और है...
मैं देख सकता हूं, मेरी परछाई अंधी है
या एक और...
चश्मा अपनी नाक पर रखो तुम
मेरी तो उंगलियां लिखते-पढ़ते है।
अगर दंगों पर उनके शेर हैं, तो पर्यावरण पर भी हैं....
जंगल से गुज़रते थे तो कभी बस्ती भी कहीं मिल जाती थी
अब बस्ती में कोई पेड़ नज़र आ जाए तो जी भर आता है
दीवार पर सब्ज़ा देखके अब याद आता है, पहले जंगल था।
अगर इन विषयों पर लिखा है तो औरत के अधिकारों और उसके स्थान पर भी लिखा है
कितनी गिरहें खोली हैं मैने
कितनी गिरहें अब बाकी हैं
पांव में पायल
बांहों में कंगन
गले में हंसली
कमरबंद छल्ले और बिछुए
नाक कान छिदवाये गये
और जेवर जेवर कहते कहते
रीत रिवाज की रस्सियों से मैं जकड़ी गयी
उफ्फ !!
कितनी तरह मैं पकड़ी गयी
अब छिलने लग है हाथ पांव
और कितनी खराशें उभरी हैं
कितनी गिरहें हैं खोली है मैंने
कितनी रस्सियां उतारी हैं
गुलजार साहब,एक तरक्की पसंद शायर है जो अपनी शायरी से आम अवाम के दिलों में है।
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Published: 18 Aug 2017, 8:34 PM