तापमान बृद्धि से माउंट एवरेस्ट भी अछूता नहीं, रिपोर्ट में चौंकाने वाले खुलासे!
मानव जनित तापमान बृद्धि का असर दुनिया में हरेक जगह देखा जा रहा है और अब नए अनुसंधान से यह स्पष्ट हुआ है कि दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट भी इससे प्रभावित हो रही है।
मानव जनित तापमान बृद्धि का असर दुनिया में हरेक जगह देखा जा रहा है और अब नए अनुसंधान से यह स्पष्ट हुआ है कि दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट भी इससे प्रभावित हो रही है। एनपीजे क्लाइमेट एंड एटमोस्फियरिक साइंस नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार माउंट एवरेस्ट की चोटी पर स्थित ग्लेशियर, साउथ कोल, तेजी से पिघल रहा है और पिछले कई दशकों के दौरान जमी बर्फ अब एक वर्ष के भीतर ही पिघल कर बह जाती है। वैज्ञानिकों के अनुसार, यदि हालात ऐसे ही रहे तो कुछ वर्षों के भीतर ही माउंट एवरेस्ट पर पर्वतारोहियों का चढना कठिन हो जाएगा क्योंकि तब उन्हें चट्टानों पर चढ़ना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त इन ग्लेशियर के पिघल जाने के बाद इस क्षेत्र से निकलने वाली नदियों का बहाव रुक जाएगा और दूसरी तरफ चट्टानों के टूटकर नीचे तक पहुँचने की घटनाएं बढ़ जायेंगीं।
इस अध्ययन को अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैंने के वैज्ञानिक मरिउस्ज़ पोतोकी के नेतृत्व में एक दल ने किया है। इस दल ने इस इलाके के मौसम सूचना केंद्र द्वारा प्राप्त जानकारी, उपग्रह द्वारा प्राप्त चित्रों के साथ ही माउंट एवरेस्ट के पास सागर तल से 8020 मीटर की ऊंचाई से ग्लेशियर के नमूने लेकर परीक्षण किया है। इससे पहले इतनी ऊंचाई से किसी भी वैज्ञानिक अध्ययन के लिए वास्तविक नमूनों को एकत्रित नहीं किया गया था। इस अध्ययन के निष्कर्ष हैं कि माउंट एवरेस्ट पर पिछले कई दशकों के दौरान जमी बर्फ अब एक वर्ष के भीतर ही पिघल रही है और इस कारण बर्फ के ज़मने और पिघलने के बीच का संतुलन प्रभावित हो रहा है। वैज्ञानिकों का आकलन है कि हरेक वर्ष ग्लेशियर की मोटाई 2 मीटर कम हो रही है। ग्लेशियर के पिघलने की दर जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि के अन्य व्यापक प्रभावों की तरह 1990 के दशक से बढी है। अनुमान है कि पिछले 25 वर्षों के दौरान माउंट एवरेस्ट के ग्लेशियर की मोटाई में 55 मीटर की कमी आ गयी है। अब बर्फ पिघलने की दर बर्फ ज़मने की दर से 80 गुना अधिक हो चुकी है।
अर्थ साइंसेज रिव्यु नामक जर्नल के अंक में चाइनीज अकैडमी ऑफ़ साइंसेज के वैज्ञानिकों का एक शोधपत्र माउंट एवरेस्ट के सम्बन्ध में प्रकाशित किया गया है। इस अध्ययन के लिए पिछले कुछ वर्षों के दौरान इस क्षेत्र के बारे में प्रकाशित सभी शोधपत्रों का आकलन किया गया है। इसके अनुसार बीसवीं शताब्दी के दौरान माउंट एवरेस्ट के आसपास के क्षेत्र का तापमान बढ़ना शुरू हुआ था, पर 1960 के बाद से इसमें तेजी आ गयी। वर्ष 1961 से 2018 के बीच तापमान बृद्धि की औसत दर 0.33 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक रही पर इस दौरान चोटियों पर बर्फ गिरने और जमने की दर में कोई प्रभावी अंतर नहीं आया। इस पूरे क्षेत्र के तापमान बृद्धि की दर को देखते हुए अनुमान है कि इस पूरी शताब्दी के दौरान इस क्षेत्र का तापमान तेजी से बढ़ता रहेगा और यह दर गर्मियों की अपेक्षा सर्दियों के समय अधिक रहेगी।
इस समय माउंट एवरेस्ट के आसपास के क्षेत्र में ग्लेशियर का कुल विस्तार 3266 वर्ग किलोमीटर है, यह विस्तार वर्ष 1970 से 2010 के औसत विस्तार की तुलना में कम है। इस दौरान ग्लेशियर के पिघलने की दर में बृद्धि के असर से यहाँ से निकलने वाली नदियों में पानी का बहाव बढ़ गया है। ग्लेशियर के तेजी से पिघलने की दर बढ़ने के कारण इस क्षेत्र में ग्लेशियर झीलों की संख्या और क्षेत्र तेजी से बढ़ रहां है। वर्ष 1990 में इस पूरे क्षेत्र में 1275 ग्लेशियर झीलें थीं और इनका संयुक्त क्षेत्र 106.11 वर्ग किलोमीटर था। वर्ष 2018 तक झीलों की संख्या 1490 तक और कुल क्षेत्र 133.36 वर्ग किलोमीटर तक पहुँच गया।
वैज्ञानिकों के अनुसार तेजी से बर्फ पिघलने का कारण तापमान बृद्धि के साथ ही सापेक्ष आर्द्रता में कमी और उस ऊंचाई पर तेज हवाओं का चलना भी है। तापमान बृद्धि के असर से दुनियाभर के ग्लेशियर के पिघलने की दर तेज हो गयी है और अनुमान है कि वर्ष 2050 तक पृथ्वी ग्लेशियर-विहीन हो जायेगी। इस शोधपत्र के अनुसार इस तरह के प्रभाव साबित करते हैं कि मनुष्य अपनी जिद और प्रदूषण के कारण पूरी पृथ्वी को ही स्थाई तौर पर बदलता जा रहा है।
स्कॉटलैंड स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ़ सेंट एंड्रिया के वैज्ञानिकों द्वारा किये गए एक दूसरे अध्ययन के अनुसार जिस ग्लेशियर के पिघलने के बाद एक कृत्रिम झील बन जाती है, उस ग्लेशियर के पिघलने की दर दूसरे ग्लेशियर की अपेक्षा दुगुनी हो जाती है। यह निष्कर्ष पहले कभी किसी भी अध्ययन में नहीं बताया गया है। इस अध्ययन के लिए वैज्ञानिकों के दल ने सेंटिनल -2 उपग्रह द्वारा भेजे गए चित्रों का सहारा लिया है। यह उपग्रह पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए हरेक पांचवें दिन हिमालय के ऊपर से गुजरता है। इसके चित्रों से पूर्वी और मध्य हिमालय के 319 ग्लेशियरों का अध्ययन किया गया जिनका क्षेत्रफल 3 वर्ग किलोमीटर से अधिक है और गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी बड़ी नदियाँ इनसे निकलती हैं। ग्लेशियर के पिघलने से कृत्रिम झील तैयार होती है जिससे सम्बंधित नदियों में पानी का बहाव कम हो जाता है और झील टूटने पर फ्लैश फ्लड की संभावना बढ़ जाती है।
इस अध्ययन के अनुसार हिमालय के ग्लेशियर की मोटाई औसतन 20 मीटर प्रतिवर्ष की दर से कम हो रही है, पर जिन ग्लेशियर से बहता पानी ठीक नीचे झील बनाता है, उसके बर्फ पिघलने की दर सामान्य ग्लेशियर से दुगुनी से भी अधिक है। वैज्ञानिकों के अनुसार हिमालय के 20 प्रतिशत से अधिक ग्लेशियर ऐसे हैं, जिनसे बर्फ पिघलकर पास में ही झील का निर्माण कर लेती है।
ऐसी झीलें खतरनाक होती हैं क्योंकि जब ये पूरी भर जाती हैं या किसी कारण से इनका किनारा टूटता है तब निचले हिस्सों में भारी तबाही मचाती हैं। माउंट एवरेस्ट के आसपास स्थित कुल 1490 झीलों में से 95 झीलों को खतरनाक माना गया है। इनमें से 17 झीलों को अत्यधिक खतरनाक और 59 झीलों को मध्यम श्रेणी का खतरनाक माना गया है।
पूरे दक्षिण एशिया में भारत समेत सभी देशों में अधिकतर नदियाँ हिन्दुकुश हिमालय की ऊंची चोटियों पर जमे ग्लेशियर से होने वाले पानी के बहाव पर निर्भर करतीं हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार ग्लेशियर से पानी के बहाव का सम्बन्ध वायु प्रदूषण से भी है। जब वायु प्रदूषण अधिक रहता है तब ग्लेशियर पर कालिख (soot) और धूलकण जमा हो जाते हैं, ये तापमान को अवशोषित करते हैं और इस कारण ग्लेशियर तेजी से पिघलते हैं और इनपर आधारित नदियों में पानी का बहाव बढ़ जाता है। कम वायु प्रदूषण के समय ग्लेशियर पर कालिख नहीं जमती, सूर्य की किरणों का परावर्तन बढ़ जाता है और इससे पानी के बहाव कम हो जाता है। यह सिद्धांत वर्षों से वैज्ञानिकों को मालूम है, पर इसका व्यापक परीक्षण कभी नहीं किया गया था।
वर्ष 2020 के दौरान कोविड 19 वैश्विक महामारी के कारण जब लगभग पूरी दुनिया में लॉकडाउन लगाया गया था, सभी आर्थिक गतिविधियाँ बंद हो गईं थीं, तब जाहिर है वायु प्रदूषण का स्तर न्यूनतम पहुँच गया था। दुनिया ने ऐसा साफ़ आसमान पहली बार देखा था और वैज्ञानिकों के लिए अनेक सिद्धांतों को परखने का यह सुनहरा मौका था। यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया के ग्लेशियर विशेषज्ञ नेड बेयर ने वर्ष 2020 में पाकिस्तान और भारत में बहने वाली सिन्धु नदी में पानी के बहाव का अध्ययन किया था। इस वर्ष कम वायु प्रदूषण के कारण हिमालय की चोटियों पर जमे ग्लेशियर पर कालिख कम जमा हो पाई थी। वैज्ञानिकों का आकलन है की पिछले 20 वर्ष के दौरान कालिख की औसत मात्रा की तुलना में वर्ष 2020 में कालिख की मात्रा 30 प्रतिशत तक कम थी।
ग्लेशियर विशेषज्ञ नेड बेयर के आकलन के अनुसार वर्ष 2020 में ग्लेशियर के अपेक्षाकृत साफ़-सुथरा रहने के कारण सिन्धु नदी के पानी के बहाव में लगभग 7 घन किलोमीटर पानी की कमी आंकी गयी। ग्लेशियर के कारण नदियों में पानी के बहाव में अंतर का व्यापक असर आबादी पर पड़ता है। सिन्धु नदी के बहाव पर लगभग 30 करोड़ आबादी निर्भर करती है और गर्मी में पानी का एकमात्र स्त्रोत यही है। इस अध्ययन को प्रोसीडिंग्स ऑफ़ नेशनल अकादमी ऑफ़ साइंसेज में प्रकाशित किया गया था। नेड बेयर के अनुसार वायु प्रदूषण में कमी आने पर जब ग्लेशियर से पानी का बहाव कम हो जाता है, तब नदियों के पानी का बेहतर उपयोग हो पाता है क्योंकि पानी का बहाव लम्बे समय तक एक जैसा रहता है। नदियों के रास्तों में बनाए गए जलाशय भी धीरे-धीरे भरते हैं और असमय जलाशय को खाली नहीं करना पड़ता।
जाहिर है, ग्लेशियर एक बहुत ही संवेदनशील भौगोलिक संरचना है, और इसके बारे में विज्ञान अभी तक बहुत कुछ जान भी नहीं पाया है। ग्लेशियर से पानी के बहाव पर दुनिया की बड़ी आबादी निर्भर करती है, और ऐसे में इसके बहाव को प्रभावित करने वाला हरेक कारक खतरनाक हो सकता है। हिमालय खतरे में है और संभव है कि अगले कुछ दशकों के बाद इसके नाम को बदलने की जरूरत ही पड़ जाए क्योंकि तब इसपर हिम का आवरण नहीं रहेगा। मनुष्य पूरी पृथ्वी का भूगोल बालने की जिद पर अड़ा है और इस क्रम में अपने लिए कब्र खोदता जा रहा है।
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