झारखंड धर्म स्वातंत्र्य विधेयक 2017 : तिराहे पर आदिवासी
अलग राज्य बनने के 17 साल बाद झारखंड के आदिवासी समाज के लिए सरना, ईसाई और हिंदू धर्म के तिराहे के बीच असली सवाल अपने जल, जंगल, जमीन और अस्मत की लड़ाई है, जो कहीं पीछे छूटती दिखती है।
झारखंड विधानसभा ने धर्मांतरण पर रोक लगाने वाला विधेयक पारित कर दिया है। इसका मकसद राज्य में लोगों को अपने धर्म का इच्छानुसार पालन करने की आजादी देना और जबरन, लालच देकर या धोखे से धर्मान्तरण पर रोक लगाना है। विधेयक में जो मकसद और मंशा बतायी गयी है उसके मुताबिक राज्य में ऐसे अनुचित तरीकों से गरीब, अशिक्षित, पिछड़े लोगों के धर्मांतरण से तनाव की स्थिति बन रही है।
झारखंड धर्म स्वातंत्र्य विधेयक 2017 में मुख्य रूप से दो प्रावधान किया गये हैं। पहला, किसी व्यक्ति को जानबूझकर या बलपूर्वक, लालच देकर या धोखे से एक धर्म से दूसरे में धर्मान्तरित करना, या ऐसी कोशिश करना गैरकानूनी होगा। बलप्रयोग की परिभाषा में बल प्रदर्शन, धमकी, दैवीय प्रकोप का भय दिखाना या सामाजिक बहिष्कार की धमकी शामिल है। ऐसे मामलों में तीन साल तक की जेल और पचास हजार रुपए तक जुर्माने का प्रावधान किया गया है। लेकिन अगर यह अपराध किसी अवयस्क, महिला, अनुसूचित जाति या जनजाति के व्यक्ति के साथ हो, तो कारावास चार साल तक और जुर्माना एक लाख रूपये तक हो सकता है।
इस विधेयक का दूसरा प्रावधान किसी व्यक्ति के स्वैच्छिक धर्मान्तरण को नियमों से बांधना है। इसके अनुसार किसी व्यक्ति के धर्मान्तरण के लिए किसी कार्यक्रम का आयोजन करना अथवा धार्मिक पुरोहित की भूमिका निभाने से पहले जिलाधिकारी से अनुमति लेनी जरूरी होगी। धर्म बदलने वाले व्यक्ति को भी निर्धारित अवधि के भीतर जिलाधिकारी को इसकी सूचना देनी होगी। दोनों ही मामलों में ऐसा नहीं करने पर एक साल तक जेल और पांच हजार तक जुर्माने का प्रावधान किया गया है। इस विधेयक के तहत इस किस्म के किसी भी अपराध के लिए जिलाधिकारी की अनुमति से से ही मुकदमा दर्ज होगा।
झारखंड धर्म स्वातंत्र्य विधेयक 2017 को झारखंड की रघुबर सरकार की एक बड़ी कूटनीति का हिस्सा माना जा रहा है। हाल के दिनों में बीजेपी के विधायकों, सांसदों और यहां तक कि कुछ मंत्रियों की नाराजगी के चलते सरकार पर संकट की चर्चा होती रही है। सीएनटी और एसपीटी एक्ट में संशोधन वाला विधेयक राज्यपाल द्वारा लौटाए जाने के कारण भी सरकार के लिए हालात माकूल नहीं थे। लिहाजा, धर्मान्तरण विधेयक को इन मसलों का हल तो माना ही जा रहा है, लेकिन साथ ही इसे झारखंड में करने ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों पर अंकुश लगाने की संघ की आकांक्षा पूरी करने के प्रयास के रूप में भी देखा जा रहा है। इस क्रम में राज्य सरकार ने अखबारों के पहले पन्ने पर विज्ञापन देकर धर्मान्तरण पर महात्मा गांधी का एक वक्तव्य प्रस्तुत किया जिसकी प्रामाणिकता को लेकर भी विवाद है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 295 और 295-ए में किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने पर सजा का प्रावधान है। लेकिन धर्मान्तरण रोकने के लिए कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। यही कारण है कि कई राज्यों में ऐसे कानून बनाए गये। ओडिशा ने 1967 में और मध्यप्रदेश ने 1968 में ऐसा कानून बनाया था। अरूणाचल प्रदेश में 1978 में यह कानून बना। 2000 से 2008 के बीच छत्तीसगढ़, तमिलनाडु, गुजरात, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में ऐसे कानून बने।
झारखंड में यह विधेयक लाने के लिए बीजेपी ने इस बात पर जोर दिया कि 2006 में हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की वीरभद्र सिंह सरकार ऐसा कानून बना चुकी है। झारखंड में ईसाई मिशनरियों पर ये आरोप बीजेपी और संघ से जुड़े लोग काफी पहले से लगाते रहे हैं कि वे विदेशी धन को धर्म परिवर्तन के लिए इस्तेमाल करते हैं। इन दिनों बीजेपी एक फैक्टशीट भी बांट रही है। इसमें कहा गया है कि आदिवासी सरना को ईसाई धर्म के प्रति आकर्षित करने के लिए माता मरियम की प्रतिमा को सरना माता जैसी लाल धारी वाली सफेद साड़ी पहना दी जाती है। राज्य में ईसाई आबादी की वृद्धि-दर ज्यादा होने संबंधी आंकड़े भी पेश किये जा रहे हैं।
दूसरी तरफ, राज्य में आदिवासी सरना धर्म के मानने वालों का एक बड़ा हिस्सा है, जिसके मुताबिक उनका धर्म सिर्फ प्रकृति है और उन पर कोई भी धर्म थोपना सही नहीं। इसके लिए जनगणना और सभी प्रपत्रों में सरना धर्म कोड रखने की मांग लंबे समय से की जाती रही है। ऐसा होने पर आदिवासियों को किसी भी अन्य धर्म की बजाय अपना धर्म ‘सरना‘ बताना संभव हो सकेगा। पिछले दिनों स्वामी अग्निवेश के नेतृत्व में आदिवासी बुद्धिजीवी मंच के सदस्यों ने झारखंड की राज्यपाल द्रौपदी मुरमु से मिलकर ऐसी मांग भी रखी।
इस विधेयक का विरोध करने वालों का कहना है कि इसका मकसद आदिवासियों के मूल धर्म सरना को खत्म करके सबका हिंदूकरण करना है। साथ ही इसे सरना और ईसाई आदिवासियों के बीच दरार पैदा करके सीएनटी और एसपीटी एक्ट बनाने की लड़ाई को कमजोर करने की कोशिश भी बताया जा रहा है। इसके लिए विधानसभा के इसी सत्र में पारित एक विधेयक की मिसाल भी दी जा रही है। भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन कानून 2013 में संशोधन करके अलग-अलग परियोजनाओं के लिए जमीन के अधिग्रहण में सामाजिक प्रभाव अंकेक्षण की जरूरत खत्म कर दी गई है। ऐसे मामलों में ग्राम सभा की जरूरत भी नहीं होगी।
अलग राज्य बनने के 17 साल बाद राज्य के आदिवासी समाज के लिए सरना, ईसाई और हिंदू धर्म के बीच के इन तीन रास्तों के बीच असली सवाल अपने जल, जंगल, जमीन और अस्मत की लड़ाई है जो कहीं पीछे छूटती दिखती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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