बीजेपी के लिए पहले जैसा आसान नहीं यूपी, एकतरफा चुनाव दूर की कौड़ी
उत्तर प्रदेश में वैसा भी राम राज्य नहीं है जैसा होर्डिंग्स और अखबारों में भरे पूरे पन्ने के विज्ञापनों में दिखाया जाता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, यूपी की प्रति व्यक्ति अपराध दर 7.4 है जो दर्शाता है कि यह अपराध के मामले में टॉप पर है।
2024 के आम चुनाव की घोषणा में अब जब चंद रोज ही बाकी हैं। पर उत्तर प्रदेश की सभी 80 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल करने का बीजेपी का दावा पहले जैसा आसान नहीं दिख रहा। राम मंदिर का असर भी अब उतना व्यापक नहीं दिखता, जैसा जनवरी में था। जमीन पर सत्ता विरोध के स्वर दिखने लगे हैं और लोगों के बीच भारत जोड़ो न्याय यात्रा द्वारा उठाए गए मुद्दे चर्चा में हैं।
सूबे में बेचैनी बढ़ने के कई और भी संकेत सामने हैं। बीजेपी ने पहली सूची में अपने 62 मौजूदा सांसदों में से 47 को फिर से मैदान में उतारने का दावा किया है। उसने ऐसा दम दिखाने की कोशिश भले की हो, शेष सीटों पर उसका असमंजस साफ दिख रहा है। अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा करने वाली बहुजन समाज पार्टी ने भी अस्वाभाविक रूप से अब तक अपनी सूची जारी नहीं की है।
चुनाव विश्लेषक याद कर रहे हैं कि किस तरह पुलवामा आतंकी हमले के बाद 2019 में भड़काए गए ‘राष्ट्रवाद’ और प्रधानमंत्री द्वारा ‘शहीदों’ के नाम पर वोट मांगकर आचार संहिता नियमों के खुले उल्लंघन के बावजूद बीजेपी की सीटें 2014 के 71 से घटकर 62 रह गईं थीं। बड़े-बड़े दावे करने वाली भाजपा के अंदरखाने भी ‘कम-से-कम 50 सीटें तो जीत लेने का विश्वास’ भी बता रहा कि चुनावी परिदृश्य कैसा है।
उत्तर प्रदेश में वैसा भी राम राज्य नहीं है जैसा होर्डिंग्स और अखबारों में भरे पूरे पन्ने के विज्ञापनों में दिखाया जाता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, यूपी की प्रति व्यक्ति अपराध दर 7.4 है जो दर्शाता है कि यह अपराध के मामले में टॉप पर है। एनसीआरबी डेटा यह भी कहता है कि देश में हिरासत में बलात्कार की घटनाएं भी सबसे ज्यादा यूपी में दर्ज की गईं। हालांकि 2019 के बाद की एनसीआरबी रिपोर्टों में 2018 से गंभीर अपराध के मामलों में गिरावट दिखी है, जब हर दो घंटे में एक बलात्कार और हर 90 मिनट में बच्चों के खिलाफ एक अपराध दर्ज हो रहा था लेकिन सशस्त्र डकैती और हत्या के मामले अब भी ज्यादा हैं और महिलाओं की सुरक्षा तो दूर की बात है।
अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर भी हाल अच्छा नहीं है। यूपी ने वित्तीय वर्ष 2021-22 के लिए प्रति व्यक्ति आय 70,792 रुपये दर्ज की जो विश्व बैंक के अनुसार, पाकिस्तान के 1,588.9 डॉलर या 1.31 लाख रुपये से कम थी। दरअसल, ‘द वायर’ की एक रिपोर्ट में वर्ल्ड बैंक ओपन डेटा के हवाले से बताया गया है कि 2022 में उप-सहारा अफ्रीका की प्रति व्यक्ति आय 1,700 अमेरिकी डॉलर थी। अगर नई दिल्ली से सटे नोएडा की आय को अलग कर दिया जाए तो यह आंकड़ा बहुत कम होगा।
दरअसल, तमिलनाडु के मंत्री पी. थियागा राजन ने पिछले महीने उन दावों पर को फर्जी बताया था कि यूपी तमिलनाडु की तुलना में तेजी से विकास कर रहा है। आंकड़ों के हवाले से उनका दावा था कि उत्तर प्रदेश अगर आज से भी तमिलनाडु की अपेक्षा ज्यादा ही तेज दर से बढ़ना शुरू कर दे और वह गति बरकरार भी रखे, तब भी तमिलनाडु के बराबर पहुंचने में उसे अभी 64 साल और लग जाएंगे।
एकतरफा चुनाव दूर की कौड़ी
चुनाव एकतरफा रहेंगे और विपक्ष बीजेपी के धन और बाहुबल, केन्द्रीय एजेंसियों और सोशल इंजीनियरिंग के सामने असहाय है, यह धारणा भी अब जमीनी स्तर पर पहले जैसी नहीं रह गई है। एक स्थानीय कांग्रेस नेता ने माना, “हां, हम आर्थिक और संगठनात्मक रूप से कमजोर भले हों, जमीन पर बीजेपी की तरह दिखाई न दें लेकिन सही उम्मीदवारों के चयन, जनता के बीच व्यापक अभियान और मीडिया के जरिये संवाद की चाभी हमारे पास है। हमें लोगों को मजबूती से बताना है, जो बात लोग मानते भी हैं कि ‘बीजेपी चुनाव जीतना जानती है’ जबकि ‘कांग्रेस शासन चलाना’ जानती है।”
पश्चिम से पूरब, यानी मेरठ, मुरादाबाद, संभल, अमरोहा, बदायूं और अलीगढ़ या आगरा, कानपुर, जौनपुर और यहां तक कि गोरखपुर में भी जाएं तो मतदाताओं की चिंताएं हर जगह समान हैं। लोग रेलवे, सेना, अर्धसैनिक और पुलिस बल, शिक्षा विभाग और राजस्व विभाग जैसे प्रमुख नियोक्ताओं में होने वाली भर्तियों का जमीनी सच समझ रहे हैं। युवा बेचैन है और उसे वाजिब आश्वासन का इंतजार हैं।
यात्रा में राहुल गांधी को सुनने के लिए लोग उमड़े और वही सुना जो वे सुनना चाहते थे। हालांकि बिजनौर के ओमपाल सिंह राणा मानते हैं कि यह काफी नहीं है। वह कहते हैं कि राहुल गांधी और ‘इंडिया’ गठबंधन को अब समाधान के बारे में बोलना चाहिए क्योंकि समस्याएं तो सब जानते हैं। वह इस बात पर जोर देते हैं कि “उन्हें अब इंडिया गठबंधन के सत्ता में आने पर अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने, रोजगार पैदा करने और सभी क्षेत्रों से संकट दूर करने का आश्वासन देना चाहिए।” ऐसी भावना अब आम है और लोग कहने लगे हैं कि ‘इंडिया’ गठबंधन को अपने घोषणापत्र में हमेशा की तरह वादे करने से आगे बढ़कर और भी बहुत कुछ करने और कहने की जरूरत है। लोगों को भरोसा दिलाना होगा कि मौजूदा सरकार के खिलाफ वोट देने से ही सकारात्मक और समयबद्ध बदलाव होंगे और यह उम्मीद लोगों तक पहुंचाने की जरूरत है।
लंबे समय से सक्रिय और 2004 के चुनावों में महाराष्ट्र से रिपोर्टिंग करने वाले एक पत्रकार भी इस बात से सहमत हैं, “महाराष्ट्र में मैंने हर कांग्रेसी नेता को सड़क पर लोगों को संबोधित करते देखा था, कभी-कभी तो सिर्फ 50 लोग ही होते लेकिन वे सब सड़कों पर थे”। वह इस बात पर आश्चर्य जताते हैं कि “हमें यात्रा पर केवल राहुल गांधी ही क्यों दिखते हैं? कांग्रेसी नेता सड़क पर निकलकर लोगों से सीधे संवाद क्यों नहीं कर सकते।”
नौकरी की तलाश में जुटे आदिल की बात निश्चित ही सुननी चाहिए कि “वोट का क्या मतलब अगर भाजपा प्रचार के दौरान सिर्फ जुमले उछालती है, करती कुछ नहीं जबकि विपक्ष सिर्फ समस्याएं उठाता है और बताता है कि अर्थव्यवस्था और सरकार के साथ क्या गड़बड़ है?” बलिया के सुमित भी इससे सहमत हैं और कहते हैं कि युवाओं में उदासीनता का एक कारण यह भी है कि उन्होंने चुनाव के जरिये किसी भी बदलाव की उम्मीद छोड़ दी है।
वैसे, बाराबंकी के फैयाज जैसे लोग भी हैं जो मानते हैं कि “बीजेपी को हराया जा सकता है क्योंकि सत्ता के विरोध में बहुत बड़ी लहर है।” अलीगढ़ के धर्मेंद्र सिंह भी इस बात पर जोर देते हैं कि छोटे व्यापारी, किसान और छात्र सभी जीवनयापन, शिक्षा, स्वास्थ्य की बढ़ती लागत और घटती पारिवारिक आय से निराश हैं।
संतुलन झुकाना
आखिरी समय में मायावती ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल होकर सबको चौंका सकती हैं। कुछ पर्यवेक्षकों का मानना है कि बीएसपी के मतदाताओं को बीजेपी जिस तरह लगातार निगलती रही है, उनका एनडीए के साथ गठबंधन करना घातक होगा। ऐसे समय में जब राज्य में बसपा अस्तित्व के संकट से जूझ रही है, मायावती विपक्ष के साथ सौदेबाजी करके पार्टी का भाग्य फिर से जगाने में सफल हो सकती हैं। हालांकि इस तरह के आशावाद को खामखयाली बताने वाले भी कम नहीं हैं। ऐसे लोगों की नजर में, मायावती भाजपा को अलग-थलग करने का जोखिम क्यों उठाएंगी, खासकर तब जब वह देख रही हों कि भाजपा के पास सत्ता में वापसी का बेहतर अवसर है। और अगर, जैसा कि कहा जाता है, बसपा सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को टिकट देती है, तो संसाधन संपन्न भाजपा जरूरत पड़ने पर उसका समर्थन ‘खरीदने’ के लिए भी हर तरह से सक्षम है।
अनुमानत: यूपी की आबादी में दलित 22 प्रतिशत हैं। दलित समुदाय में लगभग 66 उपजातियां हैं। इनमें लगभग 50 प्रतिशत दलित जाटव हैं जिससे मायावती आती हैं। बाकियों में वाल्मीकि, पासी, कोइरी और खटिक अधिक प्रमुख हैं। सीएसडीएस के एक अध्ययन का अनुमान है कि राज्य में 2017 के विधानसभा चुनाव में 87 प्रतिशत जाटवों ने बसपा को वोट दिया और 2022 में 65 प्रतिशत ने। 2017 का बसपा का कुल वोट प्रतिशत 22.23 भी 2022 में खासा नीचे चला गया और 12.8 प्रतिशत रह गया। बसपा ने यूपी में 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रभावशाली 19.43 प्रतिशत वोट हासिल किए थे और समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में रहकर 10 लोकसभा सीटें जीती थीं जबकि 2014 से उसे लगभग चार प्रतिशत वोट मिले लेकिन एक भी सीट जीतने में असफल रही।
बीजेपी आम्बेडकर की विरासत को हथियाकर दलित मतदाताओं को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है और राज्य सरकार ने आम्बेडकर जयंती पर भव्य समारोह भी आयोजित किए। 2022 के विधानसभा चुनावों के बाद योगी आदित्यनाथ मंत्रिमंडल में आठ दलितों को शामिल किया गया, साथ ही दो प्रमुख जाटवों- बेबी रानी मौर्य और असीम अरुण को चुनाव लड़ाकर कैबिनेट में शामिल किया गया। बेबी रानी मौर्य आगरा से टिकट दिए जाने तक उत्तराखंड की राज्यपाल थीं और असीम अरुण वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी थे जो टिकट मिलने के ठीक पहले तक कानपुर के पुलिस आयुक्त थे और समय से पहले सेवानिवृत्ति लेकर भाजपा में शामिल हुए थे।
मुजफ्फरनगर, कैराना और बागपत में मुसलमान पारंपरिक रूप से जाटों के साथ जुड़े हुए हैं। इन्हें छोड़कर पश्चिमी यूपी में दलित एक निर्णायक कारक रहे हैं। 2009 में बसपा ने 21 लोकसभा सीटें जीतीं लेकिन 2014 में उसे कोई सीट नहीं मिली। 2019 में उसने 10 सीटें जीतीं जिसका मुख्य कारण मुसलमानों का समर्थन और समाजवादी पार्टी-आरएलडी के साथ गठबंधन था।
संभव है कि मायावती अपने दम पर एक भी सीट न जीतें लेकिन उनका उम्मीदवारों का चयन, संतुलन को किसी भी तरफ झुका सकता है। 2022 में उन्होंने समाजवादी पार्टी-आरएलडी गठबंधन के यादव और मुस्लिम उम्मीदवारों के खिलाफ 100 से अधिक यादव और मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतार दिया था। गठबंधन उनमें से 67 सीट हार गया। यहां एक बात नहीं भूलनी चाहिए कि अगर ‘इंडिया’ गठबंधन यूपी में सम्मानजनक संख्या में सीटें जीतना चाहता है, इसके लिए मायावती के साथ तालमेल जरूरी है।
किसान ठगा महसूस कर रहे
2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद से अधिकांश जाट मतदाता भाजपा के साथ हैं; लेकिन यही एकमात्र कारण नहीं है कि रालोद ‘इंडिया’ गठबंधन से बाहर निकल गया। अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि जयंत चौधरी ने गठबंधन इसलिए छोड़ा क्योंकि पार्टी नेता अमीर आलम खान कैराना से चुनाव लड़ना चाहते थे लेकिन सपा दिवंगत मुनव्वर हसन की बेटी इकरा हसन को मैदान में उतारने पर अड़ी थी। इसके अलावा, जयंत मुजफ्फरनगर से चुनाव लड़ना चाहते थे लेकिन सपा यह सीट हरेंद्र मलिक के लिए चाहती थी। अब इस अलगाव का असर सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, कैराना और बागपत के नतीजों पर पड़ सकता है।
किसान जरूर जयंत से ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। शामली के सतबीर सिंह कहते हैं कि “वह स्थानीय भावनाओं से बहुत दूर जाकर दिल्ली में रहते हैं। उन्होंने 2013 में भी हमें धोखा दिया था जब दंगे अपने चरम पर थे; अब वह हमारे साथ फिर से धोखा कर रहे हैं जब किसान भारी संकट में हैं।
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