लोकतंत्र के पन्ने: 1977 लोकसभा चुनाव, जब संयुक्त विपक्ष ने हरा दिया था सत्ताधारी दल को
आजादी के बाद पहली बार कांग्रेस को 1977 के चुनावों में करारी शिकस्त मिली थी। कांग्रेस को सिर्फ 154 सीटें मिलीं। कांग्रेस का वोट शेयर घटकर 35 प्रतिशत के नीचे चला गया। जनता पार्टी और गठबंधन को 542 में से 330 सीटें मिलीं। 295 सीटें अकेले जनता पार्टी के खाते से थीं।
छठा लोकसभा चुनाव 1977 में कराया गया। 18 महीने की इमरजेंसी के बाद सरकार ने आम चुनाव मार्च 1977 में कराने का फैसला किया। 23 जनवरी को इंदिरा गांधी ने मार्च में चुनाव कराने की घोषणा की और सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा कर दिया। चार विपक्षी दलों- कांग्रेस (ओ), जनसंघ, भारतीय लोकदल और समाजवादी पार्टी ने जनता पार्टी के रूप में मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला किया।
आजादी के बाद पहली बार कांग्रेस को 1977 के चुनावों में हार का सामना करना पड़ा। कांग्रेस पार्टी को सिर्फ 154 सीटें मिलीं। वहीं जनता पार्टी और गठबंधन को 542 में से 330 सीटें मिलीं। कांग्रेस का वोट शेयर घटकर 35 प्रतिशत के नीचे चला गया।
बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा और पंजाब के हर चुनाव क्षेत्र में कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा। लेकिन कांग्रेस को पूरे भारत में हार का सामना नहीं करना पड़ा। महाराष्ट्र, गुजरात और उड़ीसा में कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन किया। दक्षिण भारत में तो कांग्रेस बहुमत में रही।
बहुमत मिलते ही जनता पार्टी में गुटबाजी शुरू हो गई। प्रधानमंत्री पद के लिए तीन प्रबल दावेदार खड़े हो गए। मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह और बाबू जगजीवन राम। मोरारजी देसाई के नाम पर सहमति बनी। लेकिन सरकार के पास न तो कोई दिशा थी और न ही कोई कॉमन प्रोग्राम। कांग्रेस से अलग होकर बनी ये सरकार कुछ न कर सकी और गुटबाजी की वजह से सिर्फ 18 महीने के भीतर जनता पार्टी का बंटवारा हो गया। इसके बाद मोरारजी देसाई के नेतृत्व की सरकार ने अपना बहुमत खो दिया। जनवरी 1980 में फिर से चुनाव कराए गए और इस बार जनता पार्टी को करारी शिकस्त मिली। कांग्रेस को इस बार 353 सीटें मिलीं।
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