जीत के जश्न में डूबी बीजेपी की असल परीक्षा चार माह बाद, हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र में सरकार बचाना चुनौती
लोकसभा चुनाव नतीजों में हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र में बीजेपी के सिर जीत का सेहरा जरूर सज गया, लेकिन इन राज्यों में जल्द ही बीजेपी की फिर से परीक्षा होने वाली है। चार माह बाद इन राज्यों में चुनाव हैं, जिसमें अपनी सरकार बचाना बीजेपी के लिए चुनौती होगी।
हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र में अपने पक्ष में लोकसभा चुनाव का फैसला अपने पक्ष में आने से आह्लादित बीजेपी की सरकारों के सामने जनता की अपेक्षाओं का भारी बोझ है, जिन्हें पूरा करना उसके लिए चुनौती होगा। हरियाणा की मनोहर लाल खट्टर सरकार चार माह बाद पांच साल पूरे करने जा रही है। वहीं झारखंड और महाराष्ट्र की वर्तमान विधानसभा का कार्यकाल भी लगभग उसी के आसपास ही खत्म हो रहा है।
हरियाणा के हर क्षेत्र में राज्य सरकार के मुखिया खट्टर की जगह लोगों के विमर्श का केंद्र मोदी थे। वह उत्तर हरियाणा हो, जीटी रोड बेल्ट हो या दक्षिण हरियाणा। राष्ट्रवाद के आगोश में सारे स्थानीय मुद्दे समाते नजर आए और बीजेपी को लोगों ने जीत से नवाज दिया। मोदी के चेहरे के आसपास बनाई गई बीजेपी की रणनीति में स्थानीय चेहरे और मुद्दे महत्वहीन हो गए। लोगों ने सरकार से पांच साल का हिसाब भी नहीं पूछा। वह फसल बेचने के लिए भटकता किसान हो, एक अदद नौकरी के लिए संघर्ष करता युवा हो या जीएसटी-नोटबंदी के बाद कारोबार की मंदी से जूझता कारोबारी हो। सरकार की नाकामयाबी के बावजूद जनता ने मोदी के नाम पर वोट दिया।
लेकिन विधानसभा चुनाव में भी यही होगा, यह सोचना बीजेपी के लिए आत्मघाती होगा। जींद के जुलाना से विधायक परमिंदर ढुल का कहना है कि अब राज्य की सरकार को जनता की उम्मीदों पर खरा उतरना होगा। ढुल का कहना है कि चार महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में सरकार के सामने किसान-युवा और कारोबारियों से जुड़े मसले एक बार फिर होंगे। हरियाणा की सियासत को तीन दशक से कवर कर रहे वरिष्ठ पत्रकार बलवंत तक्षक का कहना है कि जब किसी पार्टी की बडी जीत होती है तो जनता की उम्मीदें भी उसी अनुपात में बढ़ जाती हैं। किसी भी सरकार के लिए लोगों की इन अपेक्षाओं पर खरा उतरना बडी चुनौती होती है। महम के विधायक आनंद सिंह दांगी का कहना है कि राष्ट्रवाद और सेना के नाम पर लोगों को बरगलाकर मोदी के चेहरे पर यह चुनाव बीजेपी ने जीता है। जनता के मुद्दे तो कहीं सतह पर थे ही नहीं। लोगों के बीच भ्रम फैलाया गया।
झारखंड में भी बीजेपी गठबंधन ने एक बड़ी जीत हासिल की है। साल 2014 के चुनावों में बीजेपी को झारखंड की कुल 14 में से 12 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। इस बार भी बीजेपी का प्रदर्शन करीब-करीब वैसा ही रहा। इन नतीजों ने सीएम रघुवर दास को बड़ी राहत दी है। बीजेपी भले ही यह चुनाव नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ रही थी लेकिन झारखंड में इसके प्रचार अभियान की कमान रघुवर दास के पास थी। उन्होंने सबसे अधिक सभाएं की और गांव-गांव जाकर बीजेपी गठबंधन के लिए वोट मांगे।
ऐसे में इस जीत का श्रेय रघुवर दास को मिलेगा और पार्टी में उनका कद और बढ़ जाएगा। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि कुछ ही महीने बाद झारखंड में विधानसभा के भी चुनाव होने हैं। हालांकि, बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुवा अपनी सीट नहीं बचा सके हैं। उन्हें पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की पत्नी और कांग्रेस की प्रत्याशी गीता कोड़ा ने सिंहभूम (चाईबासा) सीट पर बड़े अंतर से हरा दिया। प्रदेश अध्यक्ष की हार ने दरअसल बीजेपी की फील गुड वाली खीर में नमक डालने का काम किया है।
लेकिन, यह उत्साह चार महीने बाद होने वाले झारखंड विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी को जीत दिला पाएगा, इसकी गारंटी नहीं दिखती। वरिष्ठ पत्रकार अनुज कुमार सिन्हा मानते हैं कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव के मुद्दे अलग-अलग होते हैं और उनकी परिस्थितियां भी। ऐसे में बीजेपी की चुनौतियां बढ़ गई हैं। बकौल अनुज सिन्हा, बीजेपी को अपनी सरकार की उपलब्धियां बतानी होंगी और आदिवासियों और दूसरे वैसे समुदाय को भरोसे में लेना होगा जो बीजेपी के विरोधी माने जाते हैं। उन्होंने कहा कि लोकसभा चुनाव नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ा गया था। विधानसभा चुनाव में मोदी कैंपेन के चेहरा नहीं होंगे। बीजेपी को इसका ख्याल रखना होगा।
वैसे, यहां बने विपक्षी महागठबंधन को विधानसभा चुनावों के लिए अपनी रणनीति नए सिरे से बनानी होगी। झारखंड मुक्ति मोर्चा के विधायक कुणाल षाडंगी का मानना है कि महागठबंधन में शामिल दल अपनी-अपनी पार्टियों के वोट एक-दूसरे के लिए नहीं ट्रांसफर करा पाए। शायद इसी कारण यह हार हुई है। अब यह समीक्षा करनी होगी कि महागठबंधन का कितना फायदा या घाटा हुआ है और हमें विधानसभा चुनाव के लिए क्या रणनीति बनानी होगी।
यही स्थिति महाराष्ट्र की है, जहां शिवसेना के साथ मिलकर बीजेपी पिछले 5 साल से खींचतान के साथ सरकार चला रही है। चुनाव से पहले गठबंधन की हालत ये थी कि शिवसेना लगभग अलग होने ही वाली थी कि अंत समय में बीजेपी ने जैसे-तैसे उसे मनाकर गठबंधन तय किया। राज्य में भी अक्टूबर में ही सरकार का कार्यकाल खत्म हो रहा है। ऐसे में चार महीने में ही यहां फिर से चुनाव होंगे, लेकिन उसमें मुद्दे और चेहरे बदल जाएंगे।
लोकसभा चुनाव में भले राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा और सेना के नाम पर मोदी ने हवा बीजेपी के पक्ष करने में कामयाबी हासिल की हो, लेकिन विधानसभा चुनाव में जब स्थानीय मुद्दों पर चुनाव की बिसात बिछेगी तो बीजेपी सबसे ज्यादा मुश्किल में होगी। राज्य में जारी सूखा, किसानों का संकट, बेरोजगारी तमाम ऐसे बड़े मुद्दे हैं, जो बीजेपी की वर्तमान सरकार के समय में बड़ी समस्या बनकर उभरे हैं। सबसे ज्यादा किसान आन्दोलन और किसानों के प्रदर्शन इसी राज्य में हुए। इसके अलावा आए दिन सूखे से लोगों की नरक होती जिंदगी की खबरें यहां आम हैं। ऐसे में जब राज्य की सरकार के लिए वोट डाले जाएंगे तो इन मुद्दों पर लोगों की नाराजगी से निपटना बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती होगा।
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