बिहार चुनावः नीतीश के साथ नहीं, खिलाफ है बीजेपी का गेम प्लान, चुनाव बाद सीएम पद से विदाई की है तैयारी!
ऐसा नहीं है कि नीतीश को अंदाजा नहीं है कि बीजेपी उनके साथ खेल कर रही है। फिर भी, वह बीजेपी का हाथ थामे हुए हैं, क्योंकि उन्हें भी अंदाजा है कि बीजेपी के बिना उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल नहीं होने वाली है।
बिहार में सत्ता की कमान संभालने को व्याकुल भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के शीर्ष नेतृत्व का भी अपना आकलन है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार राजनीतिक तौर पर कमजोर हो गए हैं। इसे प्रदेश स्तर के एक बीजेपी नेता ने इस तरह कहाः ‘नीतीश अब चेहरा मात्र हैं। उनकी पकड़ कमजोर हो गई है। उच्च अधिकारी अब उनको इग्नोर करते हैं। हम विकल्प की तलाश में हैं और चुनाव-बाद मुख्यमंत्री-पद से उनकी विदाई हो जाएगी।’
इस बार बीजेपी में बिहार चुनाव अभियान की कमान महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के पास है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके लेफ्टिनेंट कहे जाने वाले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से उनकी नजदीकियां जगजाहिर हैं। पिछले छह महीने से महाराष्ट्र और गुजरात के काफी सारे लोग बिहार में सक्रिय हैं। पिछले लगभग छह-सात साल से बीजेपी इसी तरह सभी राज्यों में चुनाव लड़ती ही रही है और इसलिए स्थानीय नेताओं को भी इस बार इसमें कोई अजूबा नहीं लग रहा।
’बाहरी’ कहे जाने वाले ये बीजेपी कार्यकर्ता-नेता भी जानते हैं कि यहां नीतीश कुमार के बिना सत्ता हासिल नहीं होने वाली। वे भी इस बात से परिचित हैं कि नीतीश के बिना संभवतः बीजेपी तीसरे नंबर पर चली जाएगी। ऐसा नहीं है कि नीतीश को अंदाजा नहीं है कि बीजेपी उनके साथ खेल कर रही है। फिर भी, वह बीजेपी का हाथ थामे हुए हैं, क्योंकि उन्हें भी अंदाजा है कि बीजेपी के बिना उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल नहीं होने वाली।
राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना सही ही है कि बिहार की राजनीति त्रिदेव के सहारे चल रही है। पहले नंबर पर अब भी राष्ट्रीय जनता दल सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ही हैं। वह भले ही रांची जेल में हों, बीजेपी-जेेडीयू का पूरा अभियान उनके खिलाफ ही चलता है। लालू के बेटे तेजस्वी की राजनीतिक धार की इसीलिए इस बार परीक्षा है।
वहीं, राजनीति के मौसम विज्ञानी माने जाने वाले केंद्रीय मंत्री और लोक जनशक्ति पार्टी प्रमुख रामविलास पासवान अपने को लालू के बाद सबसे ताकतवर मानते-बताते हैं। इन दिनों वह बीमार हैं और दिल्ली के एक अस्पताल में हैं। उनके बेटे चिराग पासवान के ताजा कदम बताते हैं कि वह आने वाले दिनों के राजनीतिक मौसम विज्ञानी बन सकते हैं। ऐसे में, 15 वर्षों से शासन संभाल रहे नीतीश कुमार फिर से अपने को स्वाभाविक तौर पर मुख्यमंत्री मान रहे हैं।
इस तरह बिहार में बीजेपी मेन फोर्स अब भी नहीं है। जब नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी राष्ट्रीय राजनीति में उभर कर आई तो प्लान यह था कि बीजेपी की जमीन बिहार में मजबूत की जाए। लेकिन तमाम मशक्कत के बावजूद ऐसा हो नहीं पाया। सुशील मोदी उपमुख्यमंत्री ही बने रहे और कुल मिलाकर, सब दिन पार्टी में भी यही संदेश गया कि उनमें इससे ऊपर के पद की कूवत नहीं है। पार्टी के अन्य कुछ नेता चर्चित तो रहे, पर गलत कारणों से और तब भी, कोई सर्वमान्य नहीं हो सका।
बीजेपी के ही एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि शीर्ष नेतृत्व ने नीतीश को कमजोर करने के कई उपाय किए लेकिन उन्होंने बीजेपी और केंद्र सरकार की चलने नहीं दी। छोटे से बड़े भाई की भूमिका में आने की तलाश में ही प्रधानमंत्री मोदी ने सार्वजनिक तौर पर चिराग पासवान की तारीफ की और पिछले कुछ महीनों में बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा छह बार चिराग पासवान से मिले। पर बीजेपी को भी अभी लोजपा का गुब्बारा खेलने लायक नहीं लग रहा है।
तब भी इन चुनावों में परोक्ष रूप से खेले जा रहे खेल में यह बात प्रत्यक्ष है कि बीजेपी, एलजेपी के जरिये जेडीयू और नीतीश कुमार को कमजोर करेगी। तब ही तो कुछ बीजेपी-प्रायोजित उम्मीदवार एलजेपी के टिकट पर जेडीयू प्रत्याशियों से जोर-आजमाइश करने की तैयारी में हैं। यह नीतीश को खारिज नहीं, बल्कि उन्हें कमजोर करने का दांव है। तैयारी यह है कि बीजेपी उम्मीद से ज्यादा सीटें ले आए और जेडीयू को उससे कम सीटें मिले।
नीतीश के पास फिलहाल तो विकल्प नहीं है। वह 15 वर्षों से गद्दी पर हैं और उन्हें भी अंदाजा है कि एंटी-इन्कम्बेंसी का सामना उन्हें करना पड़ेगा। कोरोना के प्रकोप ने कोढ़ में खाज का काम किया है। अपराध मुक्त बिहार का उनका संकल्प औंधे मुंह गिर चुका है। शराबबंदी ने उन्हें महिलाओं के बीच बहुत लोकप्रिय बना दिया था, लेकिन आज आप जहां, जब चाहें, किसी भी ब्रांड की शराब मिल जाएगी। पुल, एप्रोच रोड, सामान्य सड़कों के धंसने-बहने की खबरों पर आश्चर्य नहीं होता, यही यह बताने को काफी है कि भ्रष्टाचार कितना है।
ऐसे में, अगर नीतीश कुमार भी चुनाव में सम्मानजनक सीटें जीतकर ही संतोष कर लें, तो आश्चर्य नहीं। पर, हां, चुनाव-बाद वह बीजेपी को किनारे कर फिर आरजेडी से हाथ मिलाने की जुगत भिड़ाएं, तब भी चौंकने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए।
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