आह!! कैसा था, कैसा हो गया लखनऊ...
जो शहर कभी बुलंदी पर था, सांस्कृतिक तौर पर तबाह होने वाले शहरों की सूची में शामिल हो गया। आजादी के बाद से इस शहर ने जो झटके खाए, उससे शहर का स्वर्णिम दौर परत-दर-परत उधड़ गया।
दुनिया के खूबसूरत, सबसे सभ्य, नफासत वाले और शानदार शहरों की सूची में लखनऊ का जो महत्व पहले था, आज नदारद है। इस ऐतिहासिक शहर को गदर के हंगामे, लोकतांत्रिक व्यवस्था की बदहाली और राजनीतिक गोरखधंधे खा गए। तहज़ीब और नफासत को बदनाम सभ्यताओं ने निगल लिया। पहले आप की दिलकश अदा को पहले हम और पहले सिर्फ हम या मैं की 'संस्कृति' ने बरबाद कर दिया। जुबान यानी बोलचाल से, रहन-सहन से, दस्तरख्वान से, महफिलों और नशिस्तों में ऐसी तब्दीलियां हुयीं कि लखनऊ की तहजीब खत्म ही हो गयी। तहजीब, नफासत, भाषा जिंदगी के हर गोशे में गिरावट पैदा हुई।
दूसरे शहरों से आकर यहां बसने वालों ने भी शहर के ऐतिहासिक और भौगोलिक तथ्यों को प्रभावित किया। शाही दौर की आलीशान इमारतें अपने में सिमट गई और उनके लक-दक मैदान छोटे हो गए और उन पर गैरकानूनी कब्जे लगातार जारी रहे। लखनऊ के पुराने और असली बाशिंदों के खराब होते हालात का सरकारों के उजड्ड, सांप्रदायिक और पक्षपाती अधिकारियों ने भी खूब फायदा उठाया। उन्होंने शहर को जी भरकर लूटा और जो कसर रह गई वह दूसरों से पूरी करवा दी। देखते ही देखते पूरा समाज ऐतिहासिक और भौगोलिक नजरिए से तहस-नहस हो गया।
जो शहर कभी हर मायने में बुलंदी पर था, सांस्कृतिक तौर पर तबाह होने वाले शहरों की सूची में शामिल हो गया। इतिहास और भूगोल की किताबों से हमें पता चलता है कि आजादी के बाद से इस शहर ने जो झटके खाए, उससे शहर का स्वर्णिम दौर बहुत जल्द परत-दर-परत उधड़ गया। दुनिया के तमाम देशों से जो सैलानी लखनऊ की खूबसूरती और इसके ऐतिहासिक अस्तित्व को देखने आते हैं, उन्हें असली लखनऊ तो दिखता ही नहीं है। यह जरूर हुआ है कि कहीं कहीं शहर की पुरानी खूबसूरती वापस लाने की कोशिशें हुयी हैं, लेकिन पुराना लखनऊ तो कहीं नजर ही नहीं आता। अफसोस, कि अवध और खास तौर से लखनऊ अब वह नहीं रहा, जो किताबों और कुछ फिल्मों में नज़र आता था।
लखनऊ पर मशहूर किताब ‘तारीख-ए-लखनऊ’ के लेखक आगा मेंहदी ने लखनऊ की जो मंजरकशी की है, वह गौर करने के काबिल है। वह लिखते हैं, ''बारात में दूल्हा, चमन में गुल, फूल में खुश्बू, दीपक में लौ, शरीर में आत्मा, आंख में नूर, दिल में सुरूर, सीप में मोती और नाव में लंगर की जो शान होती है, वही शान इस जमीन पर लखनऊ की थी। नवाबों और राजशाही के दौर में इस शहर की क्या शान थी! शहर की गलियों और बाजारों में क्या रौनक रही होगी। आजादी के दीवाने और स्वराज की चाहत वाले कहां कहां रहते थे। साहिबान-ए-कमाल की बेशुमार ड्योढ़ियां थीं।''
अब न शाह रहे और न शाही। हालात बद से बदतर हो गए हैं। मौजूदा दौर के नेताओं को माजी यानी गुजरे वक्त से नफरत है। उनकी दिलचस्पी एक नया इतिहास और एक नया भूगोल गढ़ने में ज्यादा है। उत्तर प्रदेश की पूर्ववर्ती अखिलेश सरकार ने पुराने लखनऊ को नए सिरे से पुनर्जीवित करने की सैकड़ों करोड़ की जो योजना बनायी थी, उसकी हकीकत अब खुल रही है। हुसैनाबाद ट्रस्ट की जायदाद हड़प कर सड़कों को चौड़ा किया गया, आबादी को नीचा किया गया जिससे वहां के बाशिंदों के घरों में जलभराव की आफत शुरु हो गयी। वक्फ के पार्कों को सड़कों में मिला दिया गया और हरियाली को बरबार कर दिया गया। इस सौंदर्यीकरण के ठेकों में लोकल नेताओं ने जमकर लूट मचायी और नतीजा ये रहा कि काम पूरा होने से पहले ही सड़कें धंसनी शुरू हो गयीं।
वक्फ की जायदादों पर कहर पहले से ही जारी था, अब योगी सरकार में तो यह बरबादी और तेजी से हो रही है। हुसैनाबाद ट्रस्ट की रोजाना आमदनी लाखों में हैं, लेकिन दूरदराज के सैलानी जब शाही इमारतों को देखने आते हैं तो अपना मुंह पीटकर चले जाते हैं। वक्फ पर सरकारी अधिकारियों का कब्जा है। जबकि, हकीकत यह है कि दुनिया के कुछ बड़े ट्रस्ट में हुसैनाबाद एंड अलाउड ट्रस्ट की गिनती होती है, लेकिन हालत ये है कि इसके पास शाही परिसंपत्तियों की सूची तक नहीं है। ट्रस्ट से जब आरटीआई के जरिए इसकी जायदाद, खेत- खलिहान, फसलों और दुर्लभ वस्तुओं के बारे में पूछा जाता है तो कोई संतोषजनक जवाब ही नहीं मिलता।
आसिफ-उद-दौला से लेकर वाजिद अली शाह तक, किसी भी सामान का कोई विवरण ट्रस्ट और सरकार उपलब्ध कराता ही नहीं है। यह सच है कि 1857 के गदर में ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपाहियों ने खूब लूटपाट की थी, लेकिन इसके बावजूद इतिहासकारों यह दावा करते हैं कि बेपनाह सामान शाही तोशाखानों में बच गया था।
जरूरत है कि मौजूदा मोदी और योगी सरकार हुसैनाबाद ट्रस्ट की जायदाद पर एक श्वेत पत्र जारी करे ताकि यह पता हो सके कि देसी और विदेशी लुटेरों ने क्या-क्या लूटा था। यह एक गंभीर मुद्दा है कि अवध का सुनहरा दौर कैसे तबाह-बरबाद हुआ। यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि तमाम शाही खानदार और उनसे जुड़े संगठन भी इस मामले में गहरी चुप्पी किए हुए हैं। शाही दौर में कुछ शासकों ने शहर और इस इलाके के कुछ हिस्सों को पश्चिमी देशों की तर्ज पर भी विकसित करने की कोशिश की थी, लेकिन उस पहल ने भी जल्द ही दम तोड़ दिया।
पश्चिमी देशों के लोग, अपनी पुरातात्विक विरासत सुरक्षित रखने, उन्हें सजाने-संवारने में गहरी रुचि रखते हैं, मगर हमारे यहाँ बयानबाजियों से आगे कोई नहीं बढ़ता। शहर की सुरक्षित इमारतों की सूची पर नज़र दौड़ाइए और फिर उनकी जायदाद का जायजा लीजिए, हकीकत न सिर्फ शर्मनाक, बल्कि तकलीफदेह भी है।
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Published: 25 Aug 2017, 2:43 PM