‘देश एक राष्ट्र के रूप में तभी मजबूत, प्रेरणादायी हो सकेगा जब लोकतंत्र-लोकतांत्रिक मूल्यों का सशक्तिकरण होगा’
राजनीतिक संघर्ष, स्वतंत्रता सेनानी बनने की प्रेरणा, जेल यात्रा आदि दायित्व नेहरू को विरासत में प्राप्त हुई थी। अपनी औपचारिक शिक्षा पूर्ण होने के उपरांत वे एक पूर्णकालिक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में जनमानस के बीच रहकर सड़क पर निरंतर संघर्षरत रहे थे।
देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू एक बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न बहुआयामी व्यक्तित्व थे। निर्भीक स्वतंत्रता सेनानी, महान दूरद्रष्टा, आधुनिक मूल्य और वैज्ञानिक सोच से परिपूर्ण, कुशल संवादकर्ता, उत्कृष्ट लेखक, अद्वितीय राजमर्मज्ञ के साथ-साथ हरदिल अजीज एक सरल, सहज, सर्वसुलभ, जीवंत और मिलनसार इंसान थे। जवाहर लाल नेहरू भारतवर्ष की बहुलता, विविधता, सामासिक संस्कृति के प्रतिपादक थे। पुरोधा थे। अपने इन तमाम विशेषताओं से ऊपर वे संवैधानिक और सांविधिक संस्थाओं की स्वतंत्रता और स्वायत्तता के रक्षक थे, संरक्षक थे। उन्हें इस बात की व्यापक समझ थी कि देश एक राष्ट्र के रूप में तभी मजबूत और प्रेरणादायी हो सकेगा जब यहां लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों का सशक्तिकरण होगा। यहां तक कि राष्ट्र में सफल लोकतंत्र का आधार ही है संस्थाओं के प्रति सम्मान की भावना और संविधानवाद का अनुपालन। कहा जा सकता है कि आनेवाली पीढ़ियों के लिए यह उनकी सबसे बड़ी विरासत है जिसकी बुनियाद पर एक प्रभावशाली राष्ट्र के रूप में हमारी पहचान स्थापित हुई है। स्वीकार्यता बढ़ी है।
राजनीतिक संघर्ष, स्वतंत्रता सेनानी बनने की प्रेरणा, जेल यात्रा आदि दायित्व नेहरू को विरासत में प्राप्त हुई थी। अपनी औपचारिक शिक्षा पूर्ण होने के उपरांत वे एक पूर्णकालिक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में जनमानस के मध्य रहकर सड़क पर निरंतर संघर्षरत रहे थे। असहयोग आंदोलन, साइमन कमीशन का विरोध, मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में गठित नेहरू रिपोर्ट के सचिव, सविनय अवज्ञा आंदोलन, दूसरा व्यक्तिगत सत्याग्रही (ज्ञात हो कि 17 अक्टूबर 1940 को गांधी जी द्वारा व्यतिगत सत्याग्रह आंदोलन के आह्वान के उपरांत विनोबा भावे प्रथम व्यक्तिगत सत्याग्रही बने थे।), भारत छोड़ो आंदोलन के प्रखर दूत इत्यादि समस्त राजनीतिक आंदोलनों में प्रमुखता से भागीदारी कर आपने सदैव आगे बढ़कर स्वतंत्रता संग्राम की मुहिम का नेतृत्व करने का कार्य किया था। जवाहर लाल नेहरू की राजनीतिक कुशलता, सांगठनिक क्षमता, प्रशासनिक दक्षता, सार्वभौम स्वीकार्यता आदि के दर्शन देशवासियों को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हुआ था। जब रावी नदी के किनारे लाहौर में नवनियुक्त कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से 26 जनवरी 1930 को राष्ट्र को संबोधित करते हुए आपने 'पूर्ण-स्वराज' की घोषणा की थी।
पूर्व प्रधानमंत्री इन्द्र कुमार गुजराल ने अपनी आत्मकथा ‘Matters of Discretion’ में लिखा है कि 10 साल की बाल अवस्था में उन्हें अपने स्वतंत्रता सेनानी मां-पिता के साथ इस ऐतिहासिक कांग्रेस अधिवेशन का साक्षी होने का गौरव प्राप्त हुआ था। उनके शब्दों में, “मानो ऐसा प्रतीत हो रहा था कि समस्त लाहौरवासी करिश्माई, मानवीय गुणों से सम्पन्न पंडितजी की एक झलक पाने को इच्छुक हों। शहर की गलियां नेहरूमय हो चुकी थी। मेरे मानस पटल पर नेहरू की यह उद्दात, चीर युवा छवि ताउम्र अंकित है। नेहरू भारतवर्ष की आस्था और विश्वास के प्रतीक बन चुके थे।” तब से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक हम भारतवासी प्रत्येक वर्ष 26 जनवरी को अपना स्वतंत्रता दिवस मनाते रहे थे। 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत भी 26 जनवरी की विरासत को शाश्वत कायम रखने के उद्देश्य से हमारी संविधान सभा ने यह सुनिश्चित किया कि यह शुभ दिन प्रतिवर्ष ‘गणतंत्र दिवस’ के रूप में मनाया जाएगा। यह परंपरा अहर्निश जारी है। सर्वज्ञात है कि हमारा विहंगम और अनन्य संविधान 26 नवंबर 1949 को बनकर तैयार हो चुका था। यह दिवस हम ‘संविधान दिवस’ के रूप में मनाते हैं। ‘पूर्ण-स्वराज’ की घोषणा ने भारतीय जनमानस में विद्युत का संचार करने का काम किया था। अब भारतवासियों को यह विश्वास हो चुका था कि गांधी के कुशल नेतृत्व में नेहरू की ऊर्जा, ओजस्विता और सामर्थ्य से सराबोर हम स्वतंत्रता प्राप्ति की दहलीज पर खड़े हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही 14-15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को संसद के केंद्रीय कक्ष में जवाहर लाल नेहरू ने अपने विश्व प्रसिद्ध, ख्यातिलब्ध, कालजयी, प्रबोधक, ऐतिहासिक 'नियति के साथ साक्षात्कार' संबोधन में भारतवर्ष के अंतिम जन के आंखों के आंसू को पोछने का संकल्प लिया था। इसी विश्वास का परिणाम है, जैसा कि पूर्व केंद्रीय मंत्री माखनलाल फोतेदार ने अपनी आत्मकथा ‘चिनार लीव्स’ में लिखा है, प्रथम आम चुनाव के दौरान देशभर में तीन ही नारा लगता था:
भारत माता की जय।
महात्मा गांधी की जय।
जवाहरलाल की जय।
महान उद्देश्य की प्राप्ति हेतु प्राप्त विहंगम जनादेश के बोझ तले भारतवर्ष के प्रधानमंत्री की हैसियत से जवाहर लाल नेहरू तमाम नीतियों के निर्माण और उनके कुशल कार्यान्वयन के शिल्पकार रहे हैं। पंचवर्षीय योजना की शुरुआत ( योजना आयोग का गठन ), अर्थव्यवस्था के ट्रिकल डाउन मॉडल का अनुपालन, इसके तहत बड़े-बड़े आयरन, स्टील, उर्वरक कारखानों की स्थापना, सामुदायिक विकास कार्यक्रम और पंचायती राज संस्थान की नींव जैसे चुनिंदा मील के पत्थर रखने का भागीरथ कार्य किया था जवाहर लाल नेहरू ने।
नदी घाटी परियोजनाओं की आधारशिला रहते हुए बड़े-बड़े जम्बो तटबंधों को आपने आधुनिक भारत के मंदिर-मस्जिद की उपमा प्रदान की थी। एक संस्था निर्माता की हैसियत से आपने आनेवाली पीढ़ियों के लिए विश्वस्तरीय एम्स, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IITs), भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIMs), भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc), राष्ट्रीय शिक्षा अनुसंधान प्रशिक्षण परिषद (NCERT), राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ( NBT), बाल पुस्तक न्यास (CBT), केंद्रीय विद्यालय संगठन (KVS), राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ( NSD), साहित्य अकादमी संस्थाओं का गठन किया था।
भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर ( BARC ), TIFR, TISS, DRDO, ISRO जैसी रिसर्च संस्थाओं की परिकल्पना एवं स्थापना के माध्यम से आपने भारतवर्ष को आत्मनिर्भर और आधुनिक स्वरूप प्रदान करने का महान कार्य किया था।
अंतरराष्ट्रीय राजनीति में ‘पंचशील' एवं 'गुटनिरपेक्षत आंदोलन’ विश्व को जवाहर लाल नेहरू का महान योगदान है। बता दें कि 120 स्वतंत्र राष्ट्रों की सदस्यता लिए गुटनिरपेक्ष आंदोलन, संयुक्त राष्ट्र संघ के बाद आज विश्व का दूसरा सबसे बड़ा संगठन है। साल 1961 में इस संगठन की स्थापना के माध्यम से भारत ने यह सुनिश्चित किया था कि विश्व के विकासशील और नव-स्वतंत्र राष्ट्र शीत युद्ध के काल में पूंजीवादी और साम्यवादी गुटों से अलग रहते हुए अपनी स्वतंत्र पहचान के साथ अपने आदर्शों और मूल्यों के रक्षार्थ राष्ट और परराष्ट्र नीति का निर्माण करें परिणामस्वरूप, भारत स्वाभाविक रूप से विकासशील राष्ट्रों का नायक बनकर उभड़ा है। भारतवर्ष का वर्तमान इस बात का साक्षी है।
पुर्तगाली उपनिवेश गोवा और फ्रेंच उपनिवेश पांडिचेरी (वर्तमान पुडुचेरी ) को सफलतापूर्वक मुक्त कराकर उन्हें भारतवर्ष का अभिन्न हिस्सा बनाना जवाहर लाल नेहरू के राजनिय की महान विजय है।
नव-स्वतंत्र भारतवर्ष के संघीय चरित्र के रक्षार्थ आपने प्रान्तों को प्रदत शक्तियों का सम्यक हस्तांतरण सुरक्षित किया था। साल 1956 में देश में ‘क्षेत्रीय परिषदों’ का गठन किया गया था। राष्ट्र में एकता की भावना को प्रबल करने के उद्देश्य से वर्ष 1961 में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में ‘राष्ट्रीय एकता परिषद’ का गठन किया गया था।
जवाहरलाल नेहरू आदर्शवादी व्यक्तित्व के स्वामी थे। उनका यह आदर्श उनके आचार-व्यवहार के साथ-साथ उनकी नीतियों में भी प्रस्फुटित होता है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 51 के आलोक में वे पड़ोसी देशों के साथ-साथ समस्त देशों के साथ बेहतर सम्बन्ध के आग्रही थे। इसी के तहत पड़ोसी चीन के साथ वर्ष 1954 में 'पंचशील समझौता' ( पांच आदर्श ) सम्पन्न हुआ था। अपने तत्कालीन प्रधानमंत्री झाऊ एन लाई के भारत यात्रा के समय ‘हिंदी चीनी भाई भाई’ का उदघोष करनेवाले चीन द्वारा हम भारतीयों के साथ विश्वासघात करते हुए 20 अक्टूबर 1962 को सम्प्रभु राष्ट्र भारत पर सैन्य हमला किया। अट्टहास हुए इस हमले के लिए भारत तैयार नहीं था। यह चीनी आक्रमण पंडित नेहरु के लिए देश के किसी भूभाग पर आक्रमण मात्र न था। यह उनके आदर्शों, स्वप्नों, आस्थाओं-विश्वासों पर वज्राघात था। पंडित नेहरू इस आघात से दिन-प्रतिदिन कमजोर होते चले गए। जवाहर लाल नेहरूपर हावी हो रही अवस्था पर हिन्दी के प्रख्यात कवि शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ ने बड़े ही मार्मिक तरीके से लिखा था:
तुम बूढ़े हो चले ? जवानी जिस पर होती रही निछावर।
तुम बूढ़े हो चले ? राष्ट्र की धड़कन जिन सांसों पर निर्भर !
तुम बूढ़े, जिसके कंधों पर चालिस कोटि जनों की आशा !
तुम बूढ़े तो हमें बदलनी होगी, यौवन की परिभाषा ।
पंडित जवाहरलाल नेहरू का जीवन मंत्र था, ‘आराम हराम है।’अपने इस कथन को जीवन के अंतिम क्षण तक जीने वाले नेहरू 26 मई 1964 की रात को चीर निद्रा में जाने से पूर्व उन्होंने अपने निजी सचिव से कहा था, ‘मैं समझता हूं मैंने अपना सब काम खत्म कर दिया।’ पंडित जी के मातहत विदेश मंत्रालय में काम कर चुके मूर्धन्य साहित्यकार डॉ. हरिवंशराय बच्चन ने चार खण्डों में प्रकाशित अपनी अद्भुत, अक्षत ईमानदार, पठनीय आत्मकथा के अंतिम खंड ‘दशद्वार’ से ‘सोपान’ तक में लिखा है, “अस्थि-विसर्जन के लिए प्रयाग को जानेवाली गाड़ी में मैं भी जाता हूं- हर स्टेशन पर शब्दशः जनसागर उमड़ पड़ता है। गाड़ी चलती है तो दोनों ओर लोगों को दूर तक दौड़ते चले आता देखता हूं। नेहरू की राख में भी कितना जबरदस्त चुंबक है।” विदित हो कि जवाहर लाल नेहरू अपनी वसीयत में गंगा मैया को आदरांजलि देते हैं और अपनी अस्थियों का देश की मिट्टी में बिखेड़ देने की बात लिखते हैं।
इस प्रकार, कविगुरु रविंद्रनाथ टैगोर के ‘ऋतुराज’ 27 मई 1964 को 74 वर्ष 6 माह 13 दिन की आयु में अनन्त काल के लिए भारतवर्ष की पूणर्यात्रा पर ‘भारत की खोज’ के लिए निकल पड़े। पुण्य स्मरण, चाचा नेहरू।
(ये लेखक के अपने विचार हैं। लेखक अमरीश रंजन पांडे इंडियन यूथ कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव हैं और रौशन शर्मा दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग में शोधार्थी हैं)
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