तलत महमूद: कांपती आवाज़ से रुमानी ‘तस्वीर बनाता’ एक शख्स
तलत महमूद की आवाज़ का कंपनी ही उनकी आवाज़ की खासियत थी। यह कंपन टूटे हुए दिलों की आह बनी तो युवा आशिक के जोश का आइना। 24 फरवरी को तलत महमूद का जन्मदिन होता है।
लखनऊ के कैसरबाग इलाके में सफेद बारादरी, करीब 400 लोगों का महफिल, और फिज़ा में गूंजता, ‘तस्वीर बनाता हूं, तस्वीर नहीं बनती...’ यह आवाज़ है अपने जमाने के मशहूर गायक तलत महमूद की। यह भी इत्तिफाक ही था कि यह गीत 1955 में आई फिल्म ‘बारादरी‘ में इस्तेमाल हुआ, और आज इसे पुराने लखनऊ के कैसरबाग में सफेद बारादरी में लोग गुनगुना रहे हैं।
24 फरवरी तलत महमूद का 95वां जन्मदिन है, ऐसे इस माह जश्न-ए-तलत मनाने का इससे अच्छा मौका और क्या हो सकता था। तलत के ही घर लखनऊ में कला के विभिन्न आयामों को एक कड़ी में पिरोकर तलत के संगीत को सजाना मेरे लिए किसी उत्सव से कम नहीं था। जश्न-ए-तलत, उनके गीतों, गज़लों, उनकी फिल्मों, उनकी शख्सियत और गजल गायकी में उनके योगदान के साथ ही गायकी की इस विद्या को फिल्म संगीत की मुख्य धारा में शामिल करने की उनकी कोशिशों को याद करने का बहाना था।
तलत महमूद की नातिन होने के नाते, मैने देश के कई हिस्सों में जश्न-ए-तलत मनाने का बीड़ा उठाया। हालांकि पिछले साल इसकी शुरुआत सिर्फ तलत महमूद के गीतों और संगीत से युवा पीढ़ी को परिचित कराना मकसद था, लेकिन अब ऐसे युवाओं की एक जमात तैयार हो गई है जो तलत के गीत गाती है, खास तौर से वह पीढ़ी जो तलत की आवाज़ खामोश होने के दस साल बाद की है। और यकीन मानिए कि ऐसे बेशुमार युवा हैं जो अगर तलत की तरह गा नहीं सके, तो उनके ही गीतों और धुनों पर सालसा, हिप-हॉप और दूसरे तरह का नृत्य कर तलत को याद कर रहे हैं। हमने जो फ्लैश मॉब आयोजित किए उनमें यह सब देखना एक नया अनुभव ही तो था।
हम खुशकिस्म हैं कि आज हमारे साथ तलत अज़ीज़, राधिका चोपड़ा, रश्मि अग्रवाल, तौसीफ अख्तर और कत्थक नृत्यांगना शोभना नारायण, विद्या लाल, रघुराज और मंगला भट्ट, अभिनेता सोहेला कपूर आदि हैं जो जिन्होंने जश्न-ए-तलत में न सिर्फ अपना वक्त दिया, बल्कि अपनी आवाज़, अपनी शख्सियत, अपना जिस्म-ओ-हुनर भी दिया। नतीजा यह है कि हर तीसरे महीने हम एक कार्यक्रम कर पा रहे हैं।
लखनऊ में हुआ आयोजन इस तरह का 7वां कार्यक्रम था, जिसमें गजल गायिका राधिका चोपड़ा जैसों ने हिस्सा लिया।
तलत महमूद लखनऊ के अमीनाबाद में पैदा हुए, और नवाबों के शहर की गंगा-जमुनी तहज़ीब ताउम्र उनकी जिंदगी में नजर आती रही। संगीत में उनकी पसंद पर अपने जमाने के मशहूर उस्ताद फय्याज़ खान, रोशन आरा बेगम आदि का असर रहा। ये लोग उनके घर पर प्राइवेट महफिलों का हिस्सा होते थे। छोटी उम्र में ही तलत महमूद ने तय कर लिया था कि संगीत ही उनकी जिंदगी का मकसद है। उन्होंने अपने इस फैसले को जब अपने पिता को बताया तो घर में सन्नाटा छा गया। उस जमाने में लखनऊ के रईस घरानों में संगीत और गायकी को पेशा बनाना बुरा माना जाता था। हां, संगीत सुनने में कोई बुराई नहीं थी, लेकिन पेशेवर गायक बनना, हरगिज नहीं।
इसके बाद छोटी उम्र में ही तलत महमूद ने घर छोड़ दिया उन्होंने लखनऊ के मारिस कॉलेज (आज का भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय) से संगीत की शिक्षा लेना शुरु कर दिया।
अभी तलत महमूद की उम्र महज 17 बरस रही होगी, जब 1941 में उन्होंने अपना गीत ऑल इंडिया रेडियो के लिए रिकॉर्ड किया। उनकी आवाज़ अदभुत तरीके से कुंदन लाल सहगल से मिलती थी। उनका गाना था, ‘सब दिन एक समान नहीं था..’ यह गीत बेहद मशहूर हुआ। बरसों बाद जब तलत महमूद स्टारडम के शीर्ष पर थे, तब उन्होंने स्वीकार किया था कि उस जमाने में हर गायक सहगल की ही नकल करता था, और मानता था कि सहगल से बड़ा कोई गायक नहीं है।
अपने पहले ही गीत में कामयाब हासिल करने के बाद तलत महमूद को फिल्मों में गाने के लिए कलकत्ता से बुलावा आ गया। 40 के दशक में कलकत्ता ही फिल्म इंडस्ट्री का केंद्र हुआ करता था। इसी शहर में तलत महमूद के शुरुआती प्रसिद्धि और अपनी जिंदगी का प्यार मिला। उन्होंने बांग्ला सीखी और तपन कुमार के नाम से गीत गाए। इसी शहर में उनकी मुलाकात अपनी होने वाली पत्नी लतिका मलिक से हुई। लतिका बांग्ला फिल्मों की जानी-मानी अभिनेत्री थीं और सेट पर तलत महमूद को दिल दे बैठीं।
1950 का दशक आते-आते तलत महमूद को बॉम्बे के फिल्म डायरेक्टर और संगीत निर्देशक बुलाने लगे। उस दौर में फिल्मों का कमर्शियल बेस भी धीरे-धीरे बॉम्बे शिफ्ट हो रहा था। तलत को उर्दू में महारत थी, और उस दौर की फिल्मों की जुबान भी तो यही थी। लेकिन सबकुछ अच्छा-अच्छा ही नहीं था, क्योंकि कुछ डायरेक्टर्स को तलत महमूद की आवाज़ का कंपन पसंद नहीं आया। हां, अनिल बिस्वास ऐसे शख्स थे जिन्होंने तलत की आवाज़ की इस खूबी को पहचाना और इसे ही उनकी ताकत बनाने का फैसला किया। तलत की आवाज़ का कंपन टूटे हुए दिल की पहचान और युवा आशिक के जोश का प्रतीक बन गया।
तलत महमूद बेहद हसीन थे, इसलिए उनकी महिला प्रशंसकों की कमी नहीं थी। उस जमाने में महिलाएं तलत महमूद को अपने खून से लिखे खत भेजा करती थीं, जो उस वक्त अनोखी बात थी। देखते-देखते उन्हें फिल्मों में रोल मिलने लगे। वह थोड़ा सकुचाते, झिझकते अभिनेता थे, लेकिन फिल भी उस जमाने की मशहूर अभिनेत्रियों नूतन, श्याम, माला सिन्हा, सुरैया और नादिरा के साथ दर्जन भर से ज्यादा फिल्में की। दरअसल श्यामा तो स्क्रीन पर उनकी पत्नी बनकर बेहद खुश थीं, उनका कहना था कि अपने गीतों की ही तरह तलत महमूद एक शानदार शख्सियत थे।
छोटे से वक्त में ही तलत नाना गायकी, अभिनय और लाइव शो के स्टार बन चुके थे। विदेशों में भी उनके फैन्स की कमी नहीं थी। बॉलीवुड के वे पहले गायक थे, जिन्होंने 1950 के दशक में वर्ल्ड टूर किया। भले ही दिलीप कुमार हवा में लहराते पर्दों के पीछे खड़े होकर शामे गम की कसम ... गा रहे हों, या नूतन को फोन पर दिलासा देते सुनील दत्त जलते हैं जिसके ...लिए गा रहे हे हों, या फिर गम में डूबे देवानंद जाएं तो जाएं कहां.... गाते हों, तलत महमदू की आवाज़ एक अलग ही जादू बिखेरती थी।
लखनऊ में जब जश्न-ए-तलत में शामिल होने आए लोगों को यह बातें बताई गईं, तो उनका सिर मानों फख्र से ऊंचा उठ गया कि आखिर उनके ही शहर के तो थे तलत महमूद।
लेकिन इसी लखनऊ शहर में कुछ ऐसा भी हुआ, जिसने तलत महमूद की मीठी आवाज़ पर कड़वाहट का वर्क चढ़ा दिया। आज जो दौर है जिसमें सिर्फ एक खास किस्म की विचारधारा की ही अहमियत है, इस विचारधारा की आंच में लखनऊ की गंगा-जमुनी तहज़ीब झुलस रही है। सबसे ज्यादा असर हमारी शैक्षणिक संस्थाओं पर पड़ रहा है।
तलत महमूद ने जहां संगीत की तालीम हासिल की, उसी विद्यालय ने तलत पर कार्यक्रम करने की इजाज़त देने से इनकार कर दिया। वाइस चांसलर श्रुति सदोलिकर से की गई तमाम आग्रह ठुकरा दिए गए। प्रसिद्ध भातखंडे विश्वविद्यालय में तलत महमूद ईवनिंग करने की इजाजत हर बार नामंजूर कर दी गई।
लेकिन मेरा यकीन है, कि कभी तो इन्हें भी समझ आएगी। आखिर भातखंडे विश्वविद्यालय और तलत महमूद दोनों ही राष्ट्रीय विरासत हैं, और इन्हें तो सियासत से अलग ही रखना होगा।
(सहर ज़मां स्वतंत्र राजनीतिक समाचार वाचक, कला पत्रकार और आर्ट क्यूरेटर हैं।)
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