“राज्य का दर्जा केंद्र से हमें मिलने वाला कोई तोहफा नहीं है”, बीजेपी पर बरसे उमर अब्दुल्ला
नेशनल कॉन्फ्रेंस के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला ने कहा कि हम पर आतंकवादी या अलगाववादी एजेंडा जैसी बात थोपना न सिर्फ अन्याय है, उन हजारों लोगों का अपमान भी है जो सिर्फ इसलिए मारे गए क्योंकि नेशनल कॉन्फ्रेंस ने अलगाववाद का झंडा नहीं उठाया।
कभी राज्य, लेकिन आज के केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर में इस साल लोकसभा चुनावों में रिकॉर्ड मतदान हुआ और अब दस वर्षों में इसका पहला विधानसभा चुनाव हो रहा है। जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला ने निरुपमा सुब्रमण्यम के साथ बातचीत में जम्मू-कश्मीर के लिए भाजपा के गेम प्लान, राजनीतिक हथकंडों सहित अनेक मसलों पर खुलकर बातचीत की। वह इन चुनावों में गांदरबल और बडगाम विधानसभा क्षेत्रों से उम्मीदवार भी हैं। संपादित अंश:
यह लोकसभा चुनाव जैसा ही अत्यधिक भागीदारी वाला लग रहा है। पिछले चुनावों से अब तक क्या बदला?
बहुत कुछ बदला है। पिछले विधानसभा चुनाव को दस साल हो गए हैं। यह शायद जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनावों के बीच सबसे लंबा अंतराल है, यहां तक कि 1990 के दशक की शुरुआत में आतंकवाद के दौर वाले अंतराल से भी लंबा। लोग लोकतांत्रिक शासन की वापसी चाहते है। 2018 के बाद से जम्मू-कश्मीर में कोई निर्वाचित सरकार नहीं है; छह साल से दिल्ली हम पर राज कर रही है।
फिर, निश्चित रूप से, इस अवधि में जो भी परिवर्तन हुए- जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति दरकिनार की गई, इसे दो भागों में बांटा गया और केंद्र शासित प्रदेश में तब्दील कर दिया गया।
मतदाताओं की एक नई पीढ़ी सामने आई है। इस चुनाव में शामिल संगठन पिछले चुनावों में बहिष्कार का आह्वान कर विपरीत दिशा में थे, आज वे लोगों से बाहर निकलकर वोट देने को कह रहे हैं। यह चुनाव अलग है, नया है और इसमें भागीदारी का महत्व है।
आप अपनी और नेशनल कांफ्रेंस की संभावनाओं को लेकर कितने आश्वस्त हैं, खासकर बारामूला की (लोकसभा चुनाव में) हार के बाद?
नहीं लगता कि अति-आत्मविश्वास जैसी कोई बात है। हमें पूरी उम्मीद है कि पार्टी व्यक्तिगत रूप से और कांग्रेस, सीपीआई (एम) और जम्मू में एक पार्टी के साथ गठबंधन में अच्छा प्रदर्शन करेगी और लोग हमें बहुमत के साथ विधानसभा में वापस पहुंचाएंगे।
बारामूला की हार आपके खिलाफ वोट का नतीजा था या…!
मुझे लगता है कि यह एक भावुक वोट था। इंजीनियर रशीद के लिए चुनाव प्रचार अभियान दो मोर्चों पर लड़ा गया। पहला, इंजीनियर रशीद को फांसी से बचाना था, इसलिए लोगों को उन्हें वोट देना था। यह, एक तरह से बेईमानी थी क्योंकि उनके खिलाफ आरोपों की सजा में मौत की सजा शामिल ही नहीं थी। उन्होंने सहानुभूति कार्ड खेलने की कोशिश की। दूसरे, मोर्चा उनके बेटे ने संभाला और मतदाताओं से अपने पिता के लिए, उन्हें जेल से बाहर लाने के लिए वोट की अपील की।
चुनाव लोगों को जेल से रिहा नहीं कराते। ऐसा होता तो अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, हेमंत सोरेन और अन्य जेल न जाते। यह लोगों के दिल छूने को बनाया गया एक अभियान था, जो काम कर गया।
क्या यह अलगाववाद के लिए वोट नहीं था?
उसके भी कुछ तत्व हैं ही। आपके पास पहली बार वाले तमाम मतदाता थे... उनके (इंजीनियर रशीद) तीन मुख्य नारे (पिछले चुनावों में) थे कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग नहीं है, विलय नामंजूर है और जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह होना चाहिए। उनका अभियान इन्हीं तीन बिंदुओं पर केंद्रित था। अजीब बात है कि, लगता है कि यह बातें उनके 20-दिवसीय अभियान के दौरान उनके दिमाग से निकल गई हैं। वह सिर्फ नेशनल कॉन्फ्रेंस के बारे में बात कर रहे हैं।
प्रधानमंत्री मोदी अपने भाषणों में लोगों को अलगाववादी और आतंकवादी एजेंडे वाली वंशवादी पार्टियों को वोट देने से मना करते दिख रहे हैं!
नेशनल कॉन्फ्रेंस जैसी पार्टियों के खिलाफ ऐसा रवैया प्रधानमंत्री की ओर से सरासर बेईमानी है, जिसने अपने हजारों सदस्य, वरिष्ठ कार्यकर्ता, पदाधिकारी, मंत्री और निर्वाचित प्रतिनिधि खोये हैं। मुझे लगता है कि हम बेहतर के हकदार हैं। शासन पर हमारी आलोचना करें; लेकिन बीजेपी उस परिवार के बारे में भी बात करे जो इस पार्टी के नेतृत्व से जुड़ा है। हम पर आतंकवादी या अलगाववादी एजेंडा जैसी बात थोपना न सिर्फ अन्याय है, उन हजारों लोगों का अपमान भी है जो सिर्फ इसलिए मारे गए क्योंकि नेशनल कॉन्फ्रेंस ने अलगाववाद का झंडा नहीं उठाया। हमने जम्मू-कश्मीर की समस्याओं के समाधान की बात हमेशा संविधान के दायरे में रहकर की। 75 वर्षों में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कब अलगाववादी या आतंकवाद समर्थक एजेंडा चलाया?
1987 के बाद संभवत: पहली बार है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस जहां भी चुनाव लड़ रही है, उसे इतने सारे उम्मीदवारों का सामना करना पड़ रहा है- निर्दलीय, जमात-ए-इस्लामी, इंजीनियर रशीद आदि। इसे कैसे देखते हैं?
यह वोटों को बांटने की कोशिश जैसा है। यह सभी पार्टियां और उम्मीदवार सिर्फ पीर पंजाल के इस तरफ, कश्मीर की तरफ ही क्यों मौजूद हैं, जम्मू में क्यों नहीं? उन सीटों पर वोट बांटने की ऐसी कोशिश क्यों, जहां बीजेपी का कोई दांव नहीं लगा है? आप उन सीटों पर ऐसा होता नहीं देखेंगी जहां बीजेपी को लगता है कि वह कुछ कर सकती है। यह इसे देखने का एक तरीका है। (…)
इस चुनाव में मुख्य मुद्दा क्या है?
मुझे नहीं लगता कि कोई एक मुख्य मुद्दा है। अगस्त 2019 में जम्मू-कश्मीर के साथ जो किया गया, वह बड़ा मुद्दा है... राज्य से और केन्द्र शासित प्रदेश में तब्दील कर हमें किस तरह अपमानित किया गया! रोजमर्रा के शासन के कुछ मुद्दे भी हैं जिन पर प्रशासन पिछले पांच/छह वर्षों में बुरी तरह विफल रहा। बिजली, स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वच्छ पेयजल...बेरोजगारी सब बदतर हुआ है। आज, जम्मू-कश्मीर का सकल घरेलू उत्पाद और ऋण अनुपात 49 प्रतिशत है। हम, पंजाब के साथ, इस देश में सबसे अधिक कर्ज से ग्रस्त क्षेत्र हैं और इसका बहुत कुछ संबंध इस तथाकथित डबल-इंजन सरकार से है जो पिछले 10 वर्षों से जम्मू-कश्मीर में है।
तो, अगर आप सरकार बनाते हैं, तो आपके कामकाज की शुरुआत का क्रम क्या होगा?
निःसंदेह, विधायी कार्य, जिसके बारे में मेरा मानना है कि किसी भी भावी प्रशासन को शुरू में संघर्ष करना होगा; जिसमें राज्य का दर्जा बहाली शामिल है। जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा बहाल करने पर सार्वजनिक रूप से, निजी तौर पर, संसद में और सुप्रीम कोर्ट में पर्याप्त प्रतिबद्धताएं जाहिर की गई हैं। इसलिए, मुझे लगता है कि किसी भी सरकार को सबसे पहली चीज जो करनी चाहिए वह है इसकी बहाली की मांग, और ऐसा न होने पर कानूनी विकल्प की तलाश।
(…)
गृहमंत्री अमित शाह ने एक बयान में कहा कि राज्य का दर्जा केन्द्र सरकार को देना है!
यह हमें दिया जाने वाला कोई उपहार नहीं है; पहले भी उनके लिए इसे हटाने का कोई मतलब नहीं था। और आखिर वे कहना क्या चाह रहे हैं- कि जम्मू-कश्मीर के लोगों को इसे पाने के लिए भीख मांगनी होगी, झुकना होगा, नाक रगड़नी होगी? उन्होंने यह चुनाव भी स्वेच्छा से नहीं कराया है; अनुच्छेद 370 मुद्दे पर फैसला सुनाते समय सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों ने उन्हें इसके लिए मजबूर किया। अब हमारे पास सुप्रीम कोर्ट के रिकॉर्ड हैं जो बताते हैं कि सरकार राज्य का दर्जा बहाल करने के लिए प्रतिबद्ध है। इसलिए, वे स्वेच्छा से ऐसा नहीं करते हैं, तो हम सुप्रीम कोर्ट से उन्हें अपना वादा याद दिलाने को कहेंगे।
(…)
क्या आपके नेतृत्व वाली सरकार पाकिस्तान के साथ शांति पर जोर देगी? क्या यह एजेंडा में होगा?
पाकिस्तान के साथ रिश्ते सामान्य बनाना किसी निर्वाचित राज्य सरकार का क्षेत्र नहीं है। मतलब, किसी भी निर्वाचित राज्य सरकार को ऐसे हालात बनाने की कोशिश करनी चाहिए जो ऐसी बातचीत के लिए अनुकूल हों। एक चीज जो हमें पीछे धकेलती है वह है जम्मू-कश्मीर में हिंसा। जम्मू क्षेत्र में आतंकवाद को बढ़ावा देने और उसे फिर से सिर उठाने की छूट देने में विफलताओं के कारण भाजपा इसकी जिम्मेदार है।
बीजेपी ने कहा है कि अगर कांग्रेस चुनी गई तो उग्रवाद फिर से सिर उठाएगा, यात्री निशाना बनेंगे वगैरह-वगैरह। वास्तव में तो यात्रियों को तब निशाना बनाया गया जब भाजपा और पीडीपी का गठजोड़ था। उनके शासनकाल में ही जम्मू में आतंकवाद फिर से संगठित होकर शुरू हुआ। इसलिए, हम पर आरोप लगाने के बजाय उन्हें यह बताना चाहिए कि उनके समय में उग्रवाद फिर से क्यों शुरू हुआ?
आप बीजेपी के प्रति जम्मू क्षेत्र की प्रतिक्रिया को किस तरह देखते हैं?
मुझे नहीं लगता कि हम अभी उस प्रतिक्रिया को मापने की स्थिति में हैं क्योंकि हमारे पास ऐसा कोई निष्कर्ष नहीं है, जो इसका आधार बन सके। चुनाव नतीजे आने दीजिए, तब हम समझेंगे। जम्मू की आबादी के बड़े हिस्से में खासा गुस्सा है, चाहे वह दरबार स्थानांतरण के फैसले को लेकर हो और यह कि जम्मू की स्थिति के लिए इसका क्या मतलब है; या सेना में भर्ती की व्यवस्था, अग्निवीर योजना; या उग्रवाद का फिर से संगठित होना... लेकिन जम्मू किस हद तक धार्मिक आधार पर मतदान से दूर जाकर या अपने गुस्से, अपनी नाखुशी व्यक्त करने के लिए मतदान करेगा, हम इंतजार करेंगे और देखेंगे।
अनुच्छेद 370 के संबंध में, यह डर था कि जनसांख्यिकीय परिवर्तन होगा, लोग आएंगे और जमीन खरीदेंगे, नौकरियां छीन लेंगे। क्या वे आशंकाएं सच साबित हुईं?
अब यह रातोरात होने वाली बात तो थी नहीं। हम इसका धीरे-धीरे बढ़ता प्रभाव देख रहे हैं, और यहां (कश्मीर में) की तुलना में यह जम्मू में ज्यादा है, लेकिन ऐसा नहीं कि किसी का ध्यान नहीं गया। यहां तक कि जिस तरह से यहां की संपत्तियां गिरवी रखी जा रही हैं या बेची जा रही हैं या उन लोगों को सौंपी जा रही हैं जो जम्मू-कश्मीर से हैं ही नहीं- किस तरह श्रीनगर का सेंटूर होटल उन लोगों को दे दिया गया, जो जम्मू-कश्मीर से नहीं आते हैं। यह सरकार पहलगाम में क्लब और अन्य पर्यटक संपत्तियों के साथ कैसा रवैया अपना रही है। जम्मू में भी यही हाल है। जैसा कि मैंने कहा, यह रातोरात बदलाव के बजाय धीरे-धीरे आगे बढ़ने वाला मामला है।
(यह लम्बी बातचीत मूल रूप से ‘फ्रंटलाइन’ पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है)
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