विशेष: उत्तराखंड के साहित्यकार त्रेपन सिंह, जिन्होंने समाज में दर्ज होती आहटों को बारीकी से कराया दर्ज
त्रेपन सिंह चौहान उत्तराखंड के उन चुनिंदा साहित्यकारों में शुमार हैं जिन्होंने समाज में दर्ज होती आहटों को बारीकी के साथ दर्ज किया। उनकी सबसे विख्यात रचना ‘यमुना’ है जो उत्तराखंड आंदोलन की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है।
कल्पना कीजिए पहाड़ी गांव के ऐसे बच्चे की जिसे ढाबे में बाल-मजदूरी करनी पड़ी हो, फिर युवावस्था में जन-आंदोलन से जुड़ने पर जेल भेज दिया जाए। यदि इन तमाम कठिनाईयों के बीच भी वह बहुत उच्च कोटि की साहित्यिक कृतियों की रचना करे तो इस निश्चय ही बहुत बड़ी उपलब्धि माना जाएगा। इन कठिन स्थितियों में त्रेपन सिंह ने कहानियों और कविताओं के साथ अमर उपन्यासों की रचना भी की।
उनकी सबसे विख्यात रचना ‘यमुना’ है जो उत्तराखंड आंदोलन की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है। हिंदी उपन्यासों में जन-सरोकारों से जुड़ी आंचलिकता की जो परंपरा रेणु ने आरंभ की, उसे आगे बढ़ाते हुए यह उपन्यास उत्तराखंड के गांवों के दैनिक जीवन और ग्रामीण पात्रों के बीच ले जाता है। यहां पर्वतीय जीवन का सौन्दर्य और भोलापन है तो परंपरागत और आधुनिक यथार्थ की कड़वी सच्चाईयां भी है। त्रेपन सिंह बहुत ईमानदार लेखक हैं, अतः वास्तविक स्थितियां दिखाने से वे कभी पीछे नहीं हटते हैं और पक्षपात भी नहीं करते हैं।
उनके आंदोलनकारी जीवन में भी साहस और ईमानदारी दोनों का अद्भुत मिलन रहा। वे अनेक तरह के आंदोलनों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सके। इसके साथ उन्होंने सांप्रदायिकता का जमकर विरोध किया। दलित अधिकारों को आगे बढ़ाने का प्रयास भी वे करते रहे।
चिपको आंदोलन और वन-रक्षा के आंदोलनों में त्रेपन सिंह बहुत कम आयु में सक्रिय रहे। ‘चेतना आंदोलन’ के संस्थापक के रूप में उन्हें जाना जाता है। उन्होंने सूचना के अधिकार के जन-आंदोलन में उत्तराखंड स्तर पर महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। फिलेंडा बांध-परियोजना के क्रियान्वयन के दौरान उन्होंने गांववासियों के हितो की रक्षा के लिए और पर्यावरण की रक्षा के लिए आंदोलन का नेतृत्व किया और इस कारण जेल में भी रहे। बाद में उन्होंने इस बारे में महत्त्वपूर्ण प्रयोग किए कि हिमालय के गांव में पन-बिजली उत्पादन के लोकतांत्रिक, विकेंद्रित उपाय क्या हो सकते हैं।
देहरादून में मजदूरों की हकदारी के संघर्ष से भी वह जुड़े रहे और इस संघर्ष में मजदूरों की कुछ महत्त्वपूर्ण मांगे स्वीकृत हुईं। घास छीलने वाली ग्रामीण महिलाओं को उन्होंने सम्मानित करते हुए उनके लिए पुरस्कार आयोजन भी किया।
इतनी महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों वाले आंदोलनकारी और लेखक के निधन का समाचार काफी देर से ही उत्तराखंड के बाहर के प्रशंसकों और मित्रों तक पंहुचा। एक लंबी बीमारी से साहस और दिलेरी से जूझते हुए उनका निधन 13 अगस्त को देहरादून के एक अस्पताल में हुआ। इस समय उनकी आयु मात्र 48 वर्ष की थी।
इतनी कम आयु में आर्थिक अभाव, उत्पीड़न, जेल और बीमारी झेलते हुए भी उन्होंने जिन उपलब्धियों को प्राप्त किया वे अद्वितीय और आश्चर्यजनक है। ऐसा लगता है जीवन की हर क्षण का उपयोग उन्होंने बेहद सार्थक कार्यों को आगे बढ़ाने में किया। जैसे मौलिक और रचनात्मक विचारों का परिचय उन्होंने दिया उससे तो यही प्रतीत होता है कि यदि उन्हें कुछ वर्ष और अपने विचारों और रचनात्मकता को आगे ले जाने के लिए मिलते तो इससे साहित्य और सार्थक सामाजिक बदलाव दोनों को बहुत बड़ी उपलब्धियां प्राप्त होने की पूरी संभावना थी।
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Published: 22 Sep 2020, 1:00 PM