बगावती तेवर और मस्त मौला शम्मी कपूर की जिंदगी बदल दी थी ‘जंगली’ ने

लगातार 12 फ्लाप फिल्में देने के बावजूद पर्दे पर एक बेफिक्र, खिलंदड़ और मस्त मौला नौजवान का उनका रूप नौजवानों को बहुत प्रभावित कर गया। वे एक बागी हीरो के रूप में चर्चित हुए। इस बागी का नाम था शम्मी कपूर।

फोटो : सोशल मीडिया
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इकबाल रिजवी

शमशेर राज कपूर उर्फ शम्मी कपूर का जन्म मुम्बई में 21 अक्टूबर 1931 को हुआ। वे एयरोनॉटिक्स इंजीनियर बनना चाहते थे। इसके लिये उन्होंने साइंस की पढ़ाई भी की, लेकिन उसमें मन नहीं लगा। 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने अचानक फ़ैसला लिया कि वो पढ़ाई नहीं करेंगे और एक्टिंग करेंगे। उनके बड़े भाई राजकपूर तब तक फ़िल्मी दुनिया में स्थापित हो रहे थे। पढ़ाई छोड़ शम्मी पृथ्वी थियेटर में काम करने लगे। 1948 में शम्मी कपूर ने पृथ्वी थियेटर में 50 रूपये महीना तनख्वाह पर जूनियर आर्टिस्ट की नौकरी शुरू की। इसके बाद उन्होंने फ़िल्मों में काम पाने के लिये भाग दौड़ शुरू की, जिसके जल्द ही अच्छे नतीजे निकले। उन्हें फ़िल्मों में काम मिलने लगा।

1953 में आठ ऐसी फिल्में आयीं जिनमें शम्मी ने काम किया ये फ़िल्में थीं - जीवन ज्योति,आग का दरिया, ठोकर, रेल का डिब्बा, लैला मजनूं, लड़की, खोज और गुल सनोबर। इनमें से "जीवन ज्योति" हीरो के रूप में शम्मी कपूर की पहली फिल्म थी।लेकिन आठ फ़िल्मों में से एक भी नहीं चली। इस असफ़लता ने शम्मी को मायूस ज़रूर कर दिया, लेकिन उनका हौसला नहीं टूटा। 1954 में शम्मी की चार और फ़िल्में रिलीज़ हुईं लेकिन इनमें से भी कोई फ़िल्म नहीं चल पायी। दो साल में बारह फ्लाप फ़िल्में किसी के सपने ख़त्म कर देने के लिये काफ़ी थीं।

इसी दौरान उनकी मुलाकात उनकी सपनों की रानी गीता बाली से हो गयी। इन दोनों की पहली मुलाक़ात 1954 में फिल्म 'काफी हाऊस' के सेट पर हुई। कुछ ही दिनो में गीता, शम्मी से प्रभावित हो चुकी थीं। अपने पिता की असहमति के बीच शम्मी ने अपनी मां को भरोसे में लिया और गीताबाली को शादी के लिये राज़ी कर लिया।

कई फ़िल्मों की लगातार असफलता के बाद आखिरकार नासिर हुसैन की फ़िल्म "तुमसा नहीं देखा" ने शम्मी की ज़िंदगी बदल दी। फिल्म सुपर हिट साबित हुई। दरअसल साठ का दशक बदलाव का दौर था। पश्चिमी जीवन शैली का भारत में तेज़ी से प्रवेश हो रहा था। ऐसे में नौजवानो के सपने भी बदल रहे थे। शम्मी के रूप में लोगों को एक नए लुक, बग़ावती तेवर वाला तेज़ तर्रार शहरी नौजवान हीरो दिखायी दिया।

इसके बाद "दिल देके देखो" और "बसंत" जैसी फ़िल्मों ने शम्मी के पैरों को और मज़बूत किया। शम्मी की पहचान बन चुकी थी, मगर उन्हें स्टार का दर्जा नहीं मिला था और फिर 1961 में आयी फ़िल्म "जंगली" ने उन्हें रातो रात स्टार बना दिया। यह एक नए शम्मी कपूर थे। दिलीपकुमार, राजकपूर और देवानन्द की महान त्रिमूर्ति से बिल्कुल अलग।

मोहम्मद रफ़ी शम्मी के अच्छे दोस्त थे। उनकी आवाज़ शम्मी को सूट भी बहुत करती थी। शम्मी के ज्यदातर हिट गाने रफ़ी साहब ने ही गाए। चाहे मुझे कोई जंगली कहे ( जंगली ), ऐ गुलबदन ऐ गुलबदन फूलों की महक कांटों की चुभन ( प्रोफ़ेसर ), दीवाना हुआ बादल सावन की घटा छाई ( कश्मीर का कली ), है दुनिया उसी की ज़माना उसी का मोहब्बत में जो हो गया किसी का ( कश्मीर का कली ), तुमने किसी की जान को जाते हुए देखा है ( राजकुमार ) तुमने पुकारा और हम चले आए (राजकुमार), बदन पे सितारे लपेटे हुए ( प्रिंस ), और दिल के झरोखे में तुझको बिठा कर( ब्रह्माचारी )। रफ़ी के शम्मी कपूर के लिये गाए गानो की एक लंबी सूची है।

शिखर पर खड़े शम्मी अपनी सफ़लता का जश्न ही मना रहे थे कि 1965 में उनकी पत्नी गीता बाली की मृत्यु हो गयी। लंबे समय तक डिप्रेशन में रहने के बाद शम्मी कपूर ने घरवालों के दबाव में राजकुमारी नीलादेवी से दूसरी शादी तो कर ली, लेकिन इसके बाद पर्दे पर शम्मी का करिश्मा बिखरने लगा। फ़िल्मों में सफ़लता, इज़्ज़त, शोहरत, दौलत सब दिलवाती है लेकिन एक नुकसान ये भी पहुंचाती है कि हिट होने वाला कलाकार एक खास इमेज में क़ैद हो जाता है। शम्मी के साथ भी ऐसा ही हुआ। उनके पास एक सी ही फ़िल्मों के आफ़र आते रहे। रमेश सिप्पी की फिल्म 'अंदाज' (1971) में शम्मी सहायक हीरो के तौर पर दिखे। उस दौर की ये शम्मी की आखरी हिट फ़िल्म थी।

इसके बाद शम्मी कपूर ने 'मनोरंजन'(1974) और 'बंडलबाज' (1976) के ज़रिये फ़िल्म निर्देशन में हाथ डाला लेकिन कलाकारों के रवैये को लेकर उन्हें फिर कभी निर्देशन नहीं किया। एक अर्से के बाद सुभाष घई की फ़िल्म विधाता में वे दिलीप कुमार के दोस्त के रूप में चर्चित हुए। इस फ़िल्म के लिये उन्हें फ़िल्म फ़ेयर भी अवार्ड मिला। 14 अगस्त 2011 को लंबी बीमारी के बाद शम्मीकपूर का निधन हो गया। आखिरी बार वे अपने पोते रणबीर कपूर के साथ फिल्म रॉकस्टार में पर्दे पर नजर आए थे।

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