जयंती विशेष: 8 मिनट में लिख दिया करते थे गाना! कुछ ऐसे थे दिलों पर 'जादू' करने वाले गीतकार आनंद बख्शी
कुछ तो लोग कहेंगे, आदमी मुसाफ़िर है, बड़ा नटखट है किशन कन्हैया, दम मारो दम और मेरे ख़्वाबों में जो आए गानों तक आनंद बख्शी ने चार हज़ार से भी ज़्यादा गाने लिखे।
हिंदी सिनेमा के मशहूर गीतकार आनंद बख्शी की आज 93वीं जयंती है। परदेसीयों से ना अंखियां मिलाना से लेकर घर आजा परदेसी की तेरी मेरी एक जिंदड़ी तक इन दोनों गानों के बीच का फ़ासला तक़रीबन 40 साल से भी ज़्यादा का है, लेकिन इन दोनों गानों को लिखने वाली क़लम एक ही है। इन दोनों सुपरहिट गानों को लिखने वाला गीतकार एक ही हैं।
फ़िल्म इंडस्ट्री का एक ऐसा गीतकार जिसने अपनी ज़िंदगी के तक़रीबन 40 साल से भी ज़्यादा का वक़्त हिंदी सिनेमा को दिया। वह मशहूर और मारूफ़ गीतकार कोई और नहीं बल्कि बॉलीवुड के जाने-माने गीतकार आनंद बख्शी थे। जिन्होंने शमशाद बेग़म, लता मंगेशकर से लेकर अलका याग्निक, सुनिधि चौहान और मोहम्मद रफ़ी, मन्ना डे से लेकर उदित नारायण और सोनू निगम तक जैसे दिग्गज गायकों के लिए गीत लिखे। इस लम्बे अंतराल में हिंदी सिनेमा में भले ही गायक, गायिका और संगीतकार बदलते रहे, लेकिन उनके लिए ख़ूबसूरत नग़मे लिखने वाला गीतकार एक ही रहा।
21 जुलाई 1930 को रावलपिंडी में जन्मे आनंद बख्शी गीतकार के साथ-साथ गायक भी बनना चाहते थे। हिंदुस्तान के बंटवारे के बाद उनका परिवार रावलपिंडी से लखनऊ आकर बस गया था। उनके दिल में जो ख़्वाब बचपन से हिलोरें मार रहा था, वह ख़्वाब अभी तक पूरा नही हो पाया था। इसलिए अपने ख़्वाब को हक़ीक़त में बदलने के लिए वह सिर्फ़ 14 साल की उम्र में घर से भागकर बॉम्बे आ गए। यहां अपने शुरुआती दिनों में जब उन्हें काम नहीं मिला तो अपना पेट भरने के लिए उन्होंने 2 साल तक इंडियन नेवी, फिर आर्मी में बतौर कैडेट काम किया, लेकिन इस दौरान भी फ़िल्मी दुनिया में उनके काम करने की हसरत ख़त्म नहीं हुई।
इसी दौरान 1958 में उनकी मुलाक़ात हुई उस दौर के मशहूर फ़िल्म एक्टर भगवान दादा से, शायद आनंद बख्शी की किस्मत को भी यही मंज़ूर था कि वह गीतकार ही बनें। लिहाज़ा भगवान दादा से मिलने के बाद उन्होंने उनको अपनी आने वाली फ़िल्म बड़ा आदमी के लिए गीत लिखने का काम दे दिया। इस फ़िल्म के ज़रिये आनंद बख्शी फ़िल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बना पाने में भले ही नाक़ाम रहे, लेकिन बतौर गीतकार हिंदी सिनेमा में उनके करियर का आगाज़ हो गया। फ़िल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने के लिए उन्हें तक़रीबन 7 साल कड़ी मशक्कत करनी पड़ी।
साल 1965 में रिलीज़ हुई शशि कपूर और नंदा की फ़िल्म जब जब फूल खिले के गीतों से आनंद बख्शी को बॉलीवुड में पहचान मिली। इस फ़िल्म के गीतों की सफलता ने उन्हें हिंदी सिनेमा में एक क़ामयाब गीतकार के रूप में पहचान दिला दी। परदेसीयों से ना अंखियां मिलाना, ये समां समां है ये प्यार का, एक था गुल और एक थी बुलबुल जैसे लिखे उनके इस फ़िल्म के गीत सुपरहिट साबित हुए। इसी साल रिलीज़ हुई मनोज कुमार और माला सिन्हा की फ़िल्म हिमालय की गोद में उनका लिखा गाना चाँद सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था को भी लोगों ने ख़ूब पसंद किया। यह गाना भी उनका खूब मशहूर हुआ।
इसके बाद साल 1967 में रिलीज़ हुई सुनील दत्त और नूतन की फ़िल्म मिलन में उनके लिखे गीत सावन का महीना पवन करे सोर के सुपरहिट होने के बाद आनंद बख्शी का शुमार इंडस्ट्री में एक क़ामयाब गीतकार की फ़ेहरिस्त में होने लगा। 1969 में रिलीज़ हुई राजेश खन्ना और शर्मीला टैगोर की फ़िल्म आराधना में भी उन्होंने राजेश खन्ना के लिए मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू जैसा सुपरहिट गाना लिखा। फ़िल्म आराधना का यह गाना आज भी लोगों की ज़ुबानों पर ख़ूब चढ़ा रहता है।
आनंद बख्शी ने संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की जोड़ी के साथ ख़ूब काम किया था। उन्होंने उनके साथ 1967 में फ़र्ज़, 1969 में दो रास्ते, 1973 में बॉबी, 1977 में अमर अकबर एन्थोनी, 1981 में एक दूजे के लिए जैसी कई सुपरहिट फ़िल्मों में काम किया। संगीतकार आर.डी.बर्मन के साथ भी उनकी जोड़ी ख़ूब जमी, आर.डी.बर्मन के साथ उन्होंने 1970 में कटी पतंग, 1971 में अमर प्रेम और हरे रामा हरे कृष्णा, 1981 में लव स्टोरी जैसी क़ामयाब फ़िल्मों में काम किया।
अगर फ़िल्म निर्माताओं की बात की जाए तो उन्होंने 1973 में राज कपूर की फ़िल्म बॉबी, 1978 में सत्यम् शिवम् सुंदरम्, 1980 में सुभाष घई की फ़िल्म क़र्ज़, 1983 में हीरो, 1986 में कर्मा, 1989 में राम लखन, 1991 में सौदागर, 1993 में खलनायक, 1999 में ताल और 2001 में यादें जैसी हिट फ़िल्मों के लिए गीत लिखे। फ़िल्म निर्माता-निर्देशक यश चोपड़ा के लिए उन्होंने 1989 में फ़िल्म चांदनी, 1991 में लम्हे, 1993 में डर, 1997 में दिल तो पागल है जैसी क़ामयाब फ़िल्मों के लिए ख़ूबसूरत गाने लिखे।
अगर संगीतकारों की बात की जाए तो उन्होंने लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, राहुल देव बर्मन, कल्याणजी-आनंदजी, शिव-हरि, राजेश रौशन, अनु मलिक, जतिन-ललित, उत्तम सिंह और ए.आर. रहमान जैसे चोटी के संगीतकारों के साथ सुपरहिट गाने बॉलीवुड को दिए।
आनंद बख्शी गायक बनने की हसरत लेकर बॉम्बे आए थे। 1972 में उनकी यह ख़्वाहिश भी पूरी हो गई। म्युज़िक डॉयरेक्टर लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की जोड़ी ने उनसे फ़िल्म मोम की गुड़िया में एक गाना रिकॉर्ड करवाया। जिसके बोल थे मैं ढूंढ़ रहा था सपनों में, फ़िल्म के डॉयरेक्टर मोहन कुमार को उनका गाया यह गाना इतना पसंद आया की उन्होंने ऐलान कर दिया की गीतकार आनंद बख्शी सुरों की देवी लता मंगेशकर के साथ भी एक डुएट गीत गाएंगे। वह गाना भी रिकॉर्ड हुआ, जिसके बोल थे बागों में बाहर आई, होंठो पे पुकार आई, उनका लता मंगेशकर के साथ गाया यह डुएट गीत भी लोगों ने ख़ूब पसंद किया।
इसके बाद तो उन्होंने शोले, महाचोर, चरस और बालिका वधु जैसी हिट फ़िल्मों के लिए भी अपनी आवाज़ में गाने रिकॉर्ड करवाए। आनंद बख्शी के लिखे गीतों की सबसे ख़ास बात यह थी कि उनके गीतों के जो बोल होते थे, वह बहुत ही आम बोल चाल के होते थे। जब जब फूल खिले से लेकर कटी पतंग, शोले, हरे रामा हरे कृष्णा, सत्यम् शिवम् सुंदरम् और साल 2001 में रिलीज़ हुई उनकी आख़िरी फ़िल्म ग़दर-एक प्रेम कथा और फ़िल्म यादें के गाने इसकी ख़ूबसूरत मिसाल है।
आनंद बख्शी के लिखे गानों में जीवन की सरलता नज़र आती थी। बहुत आम सी सिचुएशन से वह गीत खोज लेते थे, मसलन एक बार वह थिएटर में सिकंदर और पोरस नाटक देख रहे थे, जहां उन्होंने पोरस को सिकंदर के सामने बंधा देखा और उन्होंने उस सिचुएशन पर गाना लिख डाला- मार दिया जाए की छोड़ दिया जाए बोल तेरे साथ क्या सुलूक़ किया जाए। उनका लिखा यह गाना फ़िल्म मेरा गांव मेरा देश में इस्तेमाल किया गया और यह गाना भी ख़ूब पॉपुलर हुआ।
कुछ तो लोग कहेंगे, आदमी मुसाफ़िर है, बड़ा नटखट है किशन कन्हैया, दम मारो दम और मेरे ख़्वाबों में जो आए गानों तक आनंद बख्शी ने चार हज़ार से भी ज़्यादा गाने लिखे। उनके गाने लिखने की रफ़्तार इतनी तेज़ थी की एक इंटरव्यू में संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने उनके बारे में कहा था कि जहां दूसरे गीतकार गीत लिखने के लिए सात से आठ दिन लेते थे, वहीं आनंद बख्शी आठ मिनट में गाना लिख दिया करते थे।
आनंद बख्शी को 40 बार बतौर सर्वश्रेष्ठ गीतकार फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड के लिए नॉमिनेट किया गया था, जिसमें से चार बार उन्हें वह अवॉर्ड मिला। आख़िरी फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड उन्हें साल 1999 में रिलीज़ हुई सुभाष घई की फ़िल्म ताल के गीत इश्क़ बिना क्या जीना यारों, इश्क़ बिना क्या मरना के लिए मिला था।
आनंद बख्शी सिगरेट पीने के बहुत शौक़ीन थे। इसी वजह से उन्हें फेफड़ों और दिल की बीमारी हो गई थी। 30 मार्च साल 2002 में 72 साल की उम्र में फ़िल्म इंडस्ट्री के इस शानदार गीतकार ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। वह तो चले गए, लेकिन आम आदमी के जज़्बातों को ज़ुबान देने वाले उनके गीत आज भी हमारे बीच मौजूद हैं।
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Published: 21 Jul 2023, 6:59 AM