साहित्य का बड़ा कोना खाली कर गए नंदकिशोर नवल, समाज ने भी अपना सच्चा दोस्त खो दिया
नवल जी मार्क्सवादी आलोचक थे, लेकिन प्रतिभाशाली गैर-मार्क्सवादी लेखक उनके लिए उतने ही अहम थे जितने घोषित वाम-प्रगतिशील लेखक। बिहार को रचनात्मकता की उर्वर भूमि माना जाता है और प्रगतिशील लेखक संघ की बिहार में जमी जड़ों को मजबूत करने में उनका बहुत बड़ा योगदान था।
लब्धनिष्ठ आलोचक नंदकिशोर नवल का 12 मई को 83 वर्ष की उम्र में जाना एक ऐसे हिंदी साहित्य हस्ताक्षर का जाना है, जो ताउम्र अग्रज, समकालीन के साथ-साथ नवोदित हिंदी प्रतिभाओं की सर्वमान्यता के लिए बहुत कुछ करते रहे, जिसके करीब से भी साहित्य समाज के तथाकथित 'सेवी' गुजरने से परहेज करते हैं। वह हिंदी के सर्वश्रेष्ठ अध्यापकों में अपने शुरुआती दिनों में ही शुमार हो गए थे। प्रोफेसर रहे लेकिन 'प्रोफेसरी' का नशा उनके इर्द-गिर्द से भी नहीं फूटता था, जबकि अपढ़ लोगों में भी कई दफा यह नशा अपनी पूरी निर्लज्जता से फूहड़ता के सारे रंग दिखाता है।
कभी वक्त था जब मार्क्सवादी कहलवाने में उन्हें गर्व का अहसास जैसा कुछ होता था, लेकिन बाद में डॉ नामवर सिंह के कहने के बाद उन्होंने मान लिया था कि भीतर से वामपंथी हों तो विचारधारा आपके लफ्ज-लफ्ज से बड़े संयम और विवेक के साथ खुद-ब-खुद प्रकट होती है। स्वाभाविक अप्रयासता के साथ। प्रतिबद्धता की समूची ईमानदारी का आत्मसात होना उनमें प्रकट होता था।
नवल जी मार्क्सवादी आलोचक थे, लेकिन प्रतिभाशाली गैर-मार्क्सवादी लेखक उनके लिए उतने ही महत्वपूर्ण थे जितने घोषित वाम प्रगतिशील लेखक। बल्कि वामपंथी प्रगतिशील बड़े-बड़े लेखकों की अपेक्षाकृत कमजोर कृतियों को वह बकायदा चुनौती देते हुए नकारते थे और अन्य कतारों में खड़े लेखकों के साथ पूरी तार्किकता लिए खड़े हो जाते थे।
बिहार को रचनात्मकता की उर्वर भूमि माना जाता है और प्रगतिशील लेखक संघ की बिहार में जमी जड़ों को मजबूत करने में उनका बहुत बड़ा योगदान था। नवल जी नक्सल आंदोलन से भी वाबस्ता रहे। बल्कि कहना चाहिए कि यह उनकी सियासी सक्रियता की शुरुआत थी। बाद में वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गए और वहां मिली हर भूमिका को पूरी लगन और मेहनत से निभाया। सीपीआई से जुड़े तो प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ना भी स्वाभाविक था। डॉ खगेंद्र ठाकुर के साथ मिलकर उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ की बिहार इकाई को ऐसी धार दी कि देश भर की शेष इकाइयों के लिए वह नजीर बन गई।
चूंकि विचारधारात्मक तौर पर वह कतई कट्टरवादी नहीं थे, इसलिए समय आने पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की लाइन से भी उनका जबरदस्त मोहभंग हुआ। वजह थी सोवियत संघ का ग्लास्नोस्त और पेरेस्त्रोयिका। जिस प्रगतिशील लेखक संघ के वह कर्मठ कार्यकर्ता थे, उससे भी वह अलहदा हो गए। जाहिरन इसके बाद नंदकिशोर नवल को कतिपय 'कठमुल्लों' के निशाने पर भी आना था और आए भी। खलने वालों को तो यह भी खला और हमेशा खलता रहा कि 'मार्क्सवादी आलोचक' नंदकिशोर नवल के बेहद प्रिय कवि अज्ञेय थे!
वैसे, धूमिल की रचनात्मक क्षमताओं के वह सबसे ज्यादा कायल थे। नवल जी को वृहद हिंदी समाज 'निराला रचनावली' और 'दिनकर रचनावली' के कुशल/सजग संपादक के तौर पर भी बखूबी जानता है। दोनों रचनावलियों के संपादन ने निराला और दिनकर का पाठक समुदाय विस्तृत एवं संगठित किया ही, नंदकिशोर नवल की वशिष्ठ जगह भी बनाई। दोनों रचनावालियों के प्रत्येक खंड में उनका बेमिसाल श्रम भी हर पन्ने पर झलकता है।
कहते हैं कि निराला रचनावली और दिनकर रचनावली की पंक्ति-दर-पंक्ति प्रूफिंग तक उन्होंने दिन-रात एक करके की। दोनों रचनावलियों को तैयार करते वक्त वह खाना-पीना तथा सामान्य जीवनचर्या तक भूल गए थे। यह समर्पण उन्हें हिंदी साहित्य समाज का प्रथम नागरिक निसंदेह बनाता है। बेशक उस दौर का- जब इन रचनावालियों का संपादन-प्रकाशन संभव हुआ। देश और दुनिया का ऐसा कौन सा पुस्तकालय है, जहां हिंदी किताबें हों और निराला तथा दिनकर रचनावली उपलब्ध न हो? नवल जी की इस देन को कोई बिसरा सकता है? दोनों रचनावलियां मानक का दर्जा रखती हैं।
हिंदी समाज को उनका सौजन्य है कि कुछ अन्य रचनावलियां भी उन्होंने संपादित कीं। कहना अतिश्योक्ति नहीं कि उत्तर छायावादी कवि रामगोपाल शर्मा रुद्र, राम इकबाल सिंह 'राकेश' और रामजीवन शर्मा 'जीवन' की काव्य खिड़कियां नवल जी की वजह से ही विशाल होकर खुलती हैं। निराला, दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त, मुक्तिबोध, धूमिल, नागार्जुन, श्रीकांत वर्मा, कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, कुमार विकल और अशोक वाजपेयी की कविता पर शोध या सारगर्भित बात करने वालों के लिए नवल जी के नोट्स कहीं न कहीं अपरिहार्य हो गुजरते हैं।
आलोचना के दिग्गज पुरुष डॉक्टर रामविलास शर्मा और डॉक्टर नामवर सिंह के वह मुरीद थे, लेकिन 'भक्त' नहीं। उनकी असहमतियां नंदकिशोर नवल ने झेलीं, लेकिन अपनी विवेचनात्मक चेतना की राह नहीं छोड़ी। तार्किकता के साथ अडिग रहे। यह जिस दौर में हुआ होगा उसमें इस राह को दुर्लभ और दुर्गम माना गया होगा! आधुनिक कविता के इस नायाब-मौलिक आलोचक ने तुलसी, कबीर, सूरदास, रहीम और बिहारी पर भी बेमिसाल काम किया और कई किताबें लिखीं।
'कसौटी' पत्रिका को कौन भूल सकता है? प्रवेशांक से ही उन्होंने इसके अंतिम अंक की घोषणा भी कर दी थी। इस पत्रिका का हर अंक संग्रहनीय है। 'कसौटी' के अतिरिक्त नवल जी ने समय-समय पर 'धरातल', 'उत्तरशती' और 'आलोचना' (पत्रिकाओं) का संपादन भी किया। अ-कहानी और अ-कविता के दौर में उन्होंने 'सिर्फ' और 'ध्वजभंग' जैसी अल्पकालीन पत्रिकाएं भी अपने दम पर निकालीं। हिंदी में निबंध साहित्य को उन्होंने नए आयाम दिए। कविता ही नहीं गद्द पर भी उन्होंने लिखा। 'प्रेमचंद का सौंदर्यशास्त्र' बताने के लिए काफी है कि उनकी दृष्टि का दायरा कितना विशाल था।
नवल अपनी समग्र साहित्यिक समझ का सारा श्रेय अपने विद्यार्थियों और कक्षाओं को देते थे और कहते थे कि साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने जो कुछ सीखा, इन्हीं की बदौलत संभव हुआ। चिंतन और चेतना का ऐसा जिंदा मुहावरा अब कहां और कैसे मिलेगा? अपने जिस्मानी अंत के साथ साहित्य का एक बड़ा कोना डॉक्टर नंदकिशोर नवल खाली कर गए हैं...!
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