मैनेजर पांडेय : संस्कृति के पक्ष में एक आलोचक

आलोचक होना क्यों महत्त्वपूर्ण है और समाज में उसकी क्या हैसियत होनी चाहिए, इसका उदाहरण मैनेजर पांडेय का लेखन है। अपनी शर्तों पर अडिग और जनपक्षधरता के लिए समर्पित एक दृष्टिवान विद्वान ही समाज को बता सकता है कि मनुष्यता के लिए क्या सही है और क्या गलत?

फोटो : सोशल मीडिया
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पल्लव

भूमंडलीकरण के दौर में हिंदी साहित्य और संस्कृति में जनपक्षधरता के मुखर समर्थक मैनेजर पांडेय नहीं रहे। वे दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिंदी में आचार्य रहे थे और जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर भी रहे। नामवर सिंह और केदारनाथ सिंह के साथ मिलकर वे जेएनयू में हिंदी के प्रतिष्ठित विद्वानों की एक त्रयी बनाते थे जो एक साथ साहित्य, संस्कृति और जनक्षेत्र में सक्रिय थी। उनका जन्म 23 सितंबर 1941 को बिहार के गोपालगंज जिले के लोहटी में हुआ था। बरेली कॉलेज, बरेली और जोधपुर विश्वविद्यालय में अध्यापन करने के बाद उन्हें नामवर जी जे एन यू ले आए जहां से एक आलोचक और मार्क्सवादी चिंतक के रूप में उन्हें व्यापक पहचान मिली।

मूलत: सूरदास पर शोध कर वे हिंदी की दुनिया में आए थे लेकिन नामवर जी का साहचर्य और संपर्क उन्हें विश्व चिंतन और मार्क्सवाद की तरफ ले गया। उन दिनों नामवर जी आलोचना का सम्पादन कर रहे थे और नामवर जी के सुझाव पर उन्होंने आलोचना में नियमित लिखना प्रारम्भ किया जिसके फलस्वरूप उन्होंने 'साहित्य का समाजशास्त्र' जैसी महत्त्वपूर्ण किताब हिंदी पाठकों को दी। इसके साथ हिंदी साहित्य और इतिहास पर लिखे गए आलेखों की पुस्तक भी 'साहित्य और इतिहास-दृष्टि' शीर्षक से आई।

उन्होंने आलोचना तथा अन्य पत्रिकाओं के लिए मार्क्सवादी चिंतकों के साक्षात्कारों का भी अनुवाद किया जिनका संकलन 'संकट के बावजूद' ठीक उस दौर में आया जब सोवियत संघ के विघटन के बाद एक तरह की वैचारिक पस्ती दिखाई दे रही थी।

आलोचक होना क्यों महत्त्वपूर्ण है और समाज में उसकी क्या हैसियत होनी चाहिए, इसका उदाहरण मैनेजर पांडेय का लेखन है। अपनी शर्तों पर अडिग और जनपक्षधरता के लिए आकंठ समर्पित एक दृष्टिवान और बहुपठित विद्वान ही समाज को बता सकता है कि मनुष्यता के लिए क्या सही है और क्या गलत?

याद आता है कि एक बार उदयपुर में व्याख्यान देते हुए वे आन्दोलनों की जरूरत पर बोल रहे थे। एक श्रोता ने सवाल पूछा कि आप राम मंदिर निर्माण के लिए हुए आंदोलन को आंदोलन क्यों नहीं मानते हैं? इस पर उनका निर्भीक जवाब था कि जिस गतिविधि से समाज का अहित होता हो और जिससे उसके विकास की सही दिशा अवरुद्ध होती हो उस गतिविधि में भले ही कितनी बड़ी संख्या में लोग हों वह आंदोलन नहीं है।


पांडेय जी का अवदान इस तरह से भी देखा जा सकता है कि उनके द्वारा पढ़ाये विद्यार्थियों की संख्या खासी है जो देश भर के शिक्षण संस्थानों और अन्य सामाजिक क्षेत्रों में सक्रिय रहकर अपनी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति दर्शाते हैं। जे एन यू को भारत के सर्वोत्तम उच्च शिक्षण संस्थान के रूप में प्रतिष्ठित करने में अपने साथी अध्यापकों के साथ पांडेय जी की भूमिका भी निश्चय ही रेखांकित करने योग्य है।

उनकी प्रमुख पुस्तकें निम्न हैं - साहित्य और इतिहास-दृष्टि 1981, भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य -1982, साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका-1989, आलोचना की सामाजिकता-2005 उपन्यास और लोकतंत्र-2013, हिंदी कविता का अतीत और वर्तमान -2013 आलोचना में सहमति-असहमति-2013, भारतीय समाज में प्रतिरोध की परम्परा-2013, साहित्य और दलित दृष्टि - 2014

इन पुस्तकों के साथ जन संस्कृति मंच के अध्यक्ष और सदस्य के रूप में देश भर में दिए गए उनके व्याख्यानों को जोड़ दिया जाए तब सहज ही समझा जा सकता है कि विसंस्कृतीकरण के दौर में पांडेय जी जैसे विद्वान की उपस्थिति किसी समाज में कितनी महत्त्वपूर्ण हो सकती है।

(पल्लव दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध हिंदू कॉलेज में हिन्दी पढ़ाते हैं और साहित्यिक तौर पर सक्रिय हैं)

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