‘नीरज’ की आवाज और शब्दों का जादू कभी जहन से नहीं उतर सकता
कभी लगता था कि साहित्य की यह अराजक प्रतिभा ज्यादा नहीं जी पाएगी, लेकिन 94 साल की लंबी आयु उन्हें प्राप्त हुई। साफ है कि ईश्वर भी नहीं चाहता था कि गीतों के इस बेमिसाल चितेरे से दुनिया महरूम हो जाए। लेकिन उम्र का एक तकाजा होता ही है।
हिंदी भाषा का गौरव, गीतों और गजलों का सम्राट गोपाल दास नीरज महाप्रयाण पर निकल गया। पूरे देश के साहित्य प्रेमियों के लिए यह खबर बेहद दुखद है, लेकिन यही अंतिम सत्य भी है। बचपन में जब मेरे मन में साहित्य के प्रति रुझान की गठरियां खुलने लगीं, तो सबसे पहले जिनसे मैं प्रभावित हुआ, उनमें से एक गोपाल दास नीरज भी थे। उनकी खुमार भरी आवाज, अभिव्यक्ति की अनूठी शैली और मंच पर पूरी तरह छा जाने की प्राकृतिक, स्वाभाविक प्रतिभा हमारे दौर के युवा लेखकों, साहित्यकारों, गीतकारों के लिए किसी जादू से कम नहीं थी। उनका गीत ‘कारवां गुज़र गया’ सुन कर तो हम काफी देर तक भावनात्मक रूप से सुन्न से हो जाते थे।
हालांकि, नीरज का जन्म इटावा जिले में हुआ था, लेकिन उन्होंने रहने के लिए अलीगढ़ को चुना। मैंने साल 1993 में 12वीं की परीक्षा इटावा के इस्लामिया इंटर कॉलेज से पास की और उन दिनों ही लिखना भी तरतीब से शुरू हो गया था। इटावा में गुजारे करीब तीन साल के दौरान मुझे वहां के साहित्य जगत में नवागत नौजवान के रूप स्वीकृति मिल गई थी। उन दिनों इटावा के वरिष्ठ साहित्यकारों की संगत में रोज ही उठना-बैठना होता था। नीरज जी के किस्सों का जिक्र करीब-करीब रोज ही होता था। उनके बारे में तरह-तरह की मनमोहक कहानियां सबसे ज्यादा मुझे इटावा में ही सुनने को मिलीं। मेरे मन पर एक ऐसे महानायक का अक्स छा गया, जिसके बिना साहित्य के रूमानी पक्ष की कल्पना ही बेमानी थी।
मुझे पता चला कि गीतों के राजकुमार नीरज की मर्जी से ही पूरे देश में कवि सम्मेलनों का आयोजन किया जाता था। पहले उनकी तारीख सुनिश्चित की जाती थी और तब दूसरे कवियों से संपर्क किया जाता था। अपने दौर में कोई कवि सम्मेलन नीरज के बिना हो ही नहीं सकता था। उनकी आवाज और शब्दों की ताकत महसूस करने का तलबगार देश में हर कोई था। मुझे पता चला कि कवि सम्मेलनों के लिए नीरज जब ट्रेन से जाते थे, तो गंतव्य से पहले पड़ने वाले रेलवे स्टेशनों पर उनके चाहने वालों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। यह बताना भी जरूरी है कि उनके चाहने वालों में लड़कियों की संख्या ही सबसे ज्यादा होती थी। नीरज जी के व्यक्तित्व की लोकप्रियता के बारे में यह पता चलने से पहले मुझे यही जानकारी थी कि लड़कियां मायानगरी यानी तब की बंबई में अभिनेता देवानंद और राजेश खन्ना की ही खास तौर पर दीवानी हुआ करती थीं। लेकिन एक गीतकार, अभिनेताओं से यह जलवा छीन सकता है, यह महसूस कर मेरी छाती भी गर्व से बहुत चौड़ी हो जाया करती थी। लगता था कि मैं भी ऐसा ही करिश्मा कर पाऊंगा।
आगरा के सेंट जॉन्स कॉलेज से बीएससी करने के बाद मेरा मन विज्ञान की पढ़ाई से उचट गया और मैंने परिवार के तमाम विरोध के बावजूद मेरठ विश्वविद्यालय से एमए हिंदी भाषा में किया। यही वह दौर था, जब नीरज जी को करीब से जानने, सुनने और समझने के बहुत से प्रत्यक्ष मौके मिले। बुलंदशहर की सालाना नुमाइश में उन्हें कई बार सुना, रात-बिरात उनकी सेवा करने का मौका भी मिला। फिर सहारनपुर में भी उनका सानिध्य मिला। बुलंदशहर की प्रख्यात साहित्यकार कुसुम सिन्हा से जो किस्से नीरज जी के बारे में मैंने सुने, वे इटावा के किस्सों से बिल्कुल अलग थे। उनके व्यक्तित्व की बहुत सी अनसुनी परतें वहीं खुलते हुए महसूस कीं। नीरज बुलंदशहर आते थे, तो कुसुम जी के यहां जरूर जाते थे। वे अपने जमाने की मंच पर छा जाने वाली गीतकार थीं। उनकी आवाज का जादू उनके बुज़ुर्ग होने तक भी जस का तस जिंदा था। अब कुसुम जी भी इस दुनिया में नहीं हैं।
तब तक मेरी आवाज में भी थोड़ा बहुत खुमार पैदा होने लगा था, लेकिन नीरज जी का मुकाबला दुनिया में कोई भी नहीं कर सकता था और आगे भी नहीं कर पाएगा। उन्होंने कई बार मेरी रचनाओं को सराहा, जिससे मुझे हौसला मिला। उनके साथ जाम भी छलकाए और उनकी बीड़ियां भी खूब पीं। तब लगता था कि साहित्य की यह अराजक प्रतिभा ज्यादा नहीं जी पाएगी, लेकिन 94 साल की लंबी आयु उन्हें प्राप्त हुई। साफ है कि ईश्वर भी नहीं चाहता था कि गीतों के इस बेमिसाल चितेरे से दुनिया महरूम हो जाए। लेकिन उम्र का एक तकाजा होता ही है।
इसके बाद पत्रकारिता की दुनिया में कदम रखने के बाद मुझे लंबा वक्त नवभारत टाइम्स के जयपुर संस्करण में गुजारना पड़ा। लिखना-पढ़ना तो जारी रहा, लेकिन कवि सम्मेलनों में शामिल हो पाना नियमित रूप से संभव नहीं हो पाता था। मंच से मेरी दूरी जरूर बढ़ गई, लेकिन नीरज जी का जादू जेहन से कभी नहीं उतरा। जयपुर प्रेस क्लब में सांध्यकालीन नियमित बैठकों में जब रंग जमता, तो मेरे कई पत्रकार मित्र और वरिष्ठ साथी मुझसे नीरज जी का एक गीत गाने को करीब-करीब रोज ही कहते। वह गीत था- आदमी को आदमी बनाने के लिए, जिंदगी में प्यार की कहानी चाहिए, और लिखने के लिए कहानी प्यार की, स्याही नहीं आंखों वाला पानी चाहिए...। मैं नीरज जी के अंदाज में ये गीत सुनाने की कोशिश करता और खुद के अंदर नीरज होने का एहसास टटोलने की कोशिश करता रहता। आज भी जब भी चार यार मिल बैठते हैं, तो इस गीत की फरमाइश जरूर होती है।
प्रसंगवश एक बात और याद आ रही है। धर्मवीर भारती जी की सेहत बहुत खराब होने पर नवभारत टाइम्स ने उनकी स्मृति में एक पन्ने की सामग्री तैयार की थी। अखबारों में ऐसी तैयारी पहले से ही करके रख लेने की परंपरा थी। निधन की खबर आने के बाद आपाधापी से यही बेहतर भी था कि मरणासन्न हस्तियों के बारे में सामग्री पहले से ही तैयार कर ली जाए। देश में जब टीवी न्यूज चैनल आए, तब भी मशहूर हस्तियों की श्रद्धांजलि पहले से ही तैयार रखने की परंपरा थी। आज के एक बड़े चैनल के शुरुआती दौर में वर्ष 2000 में मैंने भी कई हस्तियों की स्मृति में सामग्री तैयार की थी। एक तो स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर जी की ही थी। लेकिन भगवान उन्हें हमेशा इसी तरह सेहतमंद रखे, ऐसी दुआ करता हूं। बहरहाल, धर्मवीर भारती की स्मृति में तैयार किए गए पन्ने पर मशहूर समीक्षक विष्णु खरे जी का भी लेख था। शब्द हू-ब-हू याद नहीं हैं, लेकिन जहां तक याद है उन्होंने लिखा था कि भारती जी अगर कविता में थोड़े से असावधान होते, तो नीरज बन कर रह जाते और गद्य में अगर थोड़ा सा चूकते, तो गुलशन नंदा बन कर रह जाते। मुझे उस वक्त भी ये तुलना अच्छी नहीं लगी थी और आज भी नहीं लग रही है। मेरे विचार से भारती जी की तुलना नीरज जी से किया जाना सही नहीं है। भारती जी की खासियत की तरह नीरज की शैली अनूठी थी, बेजोड़ थी, अतुलनीय थी। अब ऐसा दूसरा महानायक पैदा नहीं होगा, यह कहना तो संभव नहीं है, लेकिन जो भी दूसरा होगा वह नीरज नहीं हो सकता।
अखबार से टीवी न्यूज चैनलों में नौकरी के दौरान साहित्यिक गतिविधियों से प्रत्यक्ष दूरी और बढ़ गई। लेकिन 2009 में छुट्टियों के दौरान जब अलीगढ़ जाना हुआ, तो पता चला कि नीरज जी वहीं हैं और उनकी तबियत नासाज है। मैं उनके घर पहुंच गया, तो बड़े प्यार से मिले। बहुत देर तक उन्होंने मेरी गजलें और गीत सुने। अपने कुछ हायकू सुनाए। बताया कि आज भी बॉलीवुड के बहुत से प्रोड्यूसर, डायरेक्टर उनसे संपर्क करते रहते हैं। लेकिन अब बहुत लिखने की इच्छा नहीं होती। पूरी आत्मीयता से उन्होंने मेरे साथ तस्वीरें खिंचवाईं। चाय के दो दौर चले। उनसे बहुत मुलाकातें हुईं थीं, लेकिन हर मुलाकात भीड़भाड़ के बीच होती थी या फिर देर रात की महफिल के सुरूर के साथ। ये पहली मुलाकात थी, जब बीच में न तो भीड़ थी, न ही सुरूर का पर्दा। नीरज जी ने यादों की बहुत सी पोटलियां खोलीं। मैंने भी अनुभवों की बहुत सी गांठें उनके सामने खोल कर रख दीं। उनके घर से निकलते वक्त अपनेपन का जो एहसास मुझे हुआ था, उसे बयान कर पाना संभव नहीं है।
2013 में जब एक न्यूज चैनल में नौकरी का मौका मिला, तो पता चला कि जिस चैनल का मैं संपादक हूं, उसमें नीरज जी के सुपुत्र मृगांक भी काम करते हैं। मृगांक से पहली मुलाकात के बाद से आज तक बड़ा प्रगाढ़ संबंध है। संपादक के तौर पर मेरे लिए मृगांक कभी रिपोर्टर नहीं रहा, बल्कि नीरज जी के बेटे के तौर पर मेरा छोटा भाई ही रहेगा। उससे मिलने के बाद नीरज जी को लेकर उनके वार्धक्य के किस्से-कहानियां पता चलने का नया दौर शुरू हुआ। कई बार हमारा कार्यक्रम दिल्ली में नीरज जी से मिलने-मिलाने का बना। लेकिन विभिन्न कारणों से व्यस्त रहने की वजह से ऐसा हो नहीं पाया। इसका अफसोस जीवन भर रहेगा। मुझे लगता है कि कोई बहुत अपना है, उससे कभी भी मिला जा सकता है, यह भाव मन में जागने के बाद मिलना-जुलना हो ही नहीं पाता। वर्ष 2016 में प्रकाशित मेरी गजलों का संकलन ‘एक पत्ता हम भी लेंगे...’ मैंने मृगांक के जरिए ही नीरज जी तक पहुंचाई।
गोपाल दास नीरज कभी न आने के लिए चले गए हैं। इसके साथ ही गीतों के एक और सशक्त युग का अध्याय संपन्न हुआ। लेकिन उनके गीतों का खुमार साहित्य प्रेमियों के दिल-ओ-दिमाग पर हमेशा चढ़ा रहेगा। मैं धन्य रहा कि अपनी काव्य यात्रा के सफर में मुझे उनका दुलार हासिल हुआ। ईश्वर उनके शोकाकुल परिवार को इतनी बड़ी क्षति सहने की शक्ति दे। विनम्र श्रद्धांजलि।
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