कृष्ण बलदेव वैद: बिना खेमे और कबीले में बंधे एक कारवां गुजर गया...
‘वो गुजरा जमाना’ विभाजन पर कालजयी भारतीय उपन्यास इसलिए भी है कि समकालीन और असहिष्णुता के माहौल में अपनी प्रासंगिकता का खुद पुनर्जन्म करता है। एक कालजयी साहित्यिक कृति का ‘सबकुछ’ बदले हालात में भी प्रासंगिक या बरकरार रहना क्या उसका सबसे बड़ा हासिल नहीं है?
प्रयोगधर्मी रचनाकार कृष्ण बलदेव वैद के निधन से भारतीय, खासतौर से हिंदी साहित्य के एक और युग का अंत हो गया। वह भारत के पहले प्रयोगधर्मी रचनाकार थे। कृष्ण बलदेव वैद का जन्म 27 जुलाई 1927 को अब पाकिस्तान का हिस्सा बन गए पंजाब के डिंगा कस्बे में हुआ था। वह विभाजन के बाद हिंदुस्तान चले आए थे। उन्होंने साल 1949 में पंजाब विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एमए और फिर 1961 में हार्वर्ड विश्वविद्यालय से पीएचडी की।
कृष्ण बलदेव वैद भारत के विभिन्न कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में पढ़ाने के बाद न्यूयॉर्क स्टेट यूनिवर्सिटी और ब्रेंडाइज यूनिवर्सिटी के अंग्रेजी विभाग में रहे। उन्होंने अंग्रेजी में पढ़ाई भी की और पढ़ाया भी, लेकिन लिखने के लिए हिंदी को चुना। हिंदी में लिखते हुए ऐसे भाषागत प्रयोग किए जो उनसे पहले या उनके बाद के किसी लेखक ने नहीं किए। निर्मल वर्मा और कृष्णा सोबती (जिनसे उनका ताउम्र दोस्ती-दुश्मनी का रिश्ता रहा) भी उनकी तरह भाषा के बड़े प्रयोगधर्मी लेखक थे। लेकिन कृष्ण बलदेव वैद ने यह काम अलग किस्म की विलक्षणता के साथ किया।
उन्होंने हिंदी की पड़ोसी जुबानों उर्दू और पंजाबी को मिलाकर भाषा का बाकायदा नया सौंदर्यशास्त्र और मुहावरा गढ़ा। उसी से अपने समूचे गल्प संसार को रचकर चमत्कृत किया और हिंदी गद्य को नए आयाम दिए। उर्दू उनके बचपन के परिवेश की भाषा थी और पंजाबी उनकी मां की बोली। उर्दू और पंजाबी के भाषाई संस्कार उनके लहू में थे जो उनके सारे रचना संसार में, लिखते वक्त स्याही बनकर कागज पर उतरते रहे। हिंदी-उर्दू-पंजाबी से गुंथा ऐसा नायाब शब्द आकाश किसी अन्य लेखक ने नहीं बनाया। ऐसी सूक्ष्म कारीगिरी करते हुए वह अपनी उस धरा से नहीं हिले जिसे वह अपनी स्मृतियों की बुनियादी जमीन कहा करते थे।
1947 का विभाजन और उससे पहले जन्मभूमि डिंगा में बीता बचपन उनकी स्मृतियों में सदैव उथल-पुथल मचाता रहा। विभाजन से पहले की पृष्ठभूमि पर लिखा उपन्यास 'उसका बचपन' और विभाजन की त्रासदी के गर्भकाल एवं जन्म पर लिखा 'वो गुजरा जमाना' इसके गवाह हैं। 'वो गुजरा जमाना' हिंदी का कालजयी उपन्यास है और विश्व स्तरीय कृतियों में शुमार है। इस उपन्यास के जरिए संभवत: पहली बार भारतीय साहित्य समाज ने जाना कि भाषा इतने विविध रंग बिखेरते हुए नृत्य भी कर सकती है!
‘वो गुजरा जमाना’ को लिखते हुए वैद साहब ने जिस कलात्मक जटिलता से निभाया, उससे ज्यादा हिम्मत इसे पढ़ने वालों को जुटानी पड़ी। बतौर पाठक 'वो गुजरा जमाना' के साथ अंत तक बने रहना सहज-आसान नहीं है। यह उपन्यास छपे हुए कागज के पन्नों से सीधा आपके जेहन में चिरकाल के लिए बस सकता है। आपकी चेतना के चंद हिस्सों को अवसादग्रस्त भी कर सकता है। इसे गूढ़ माना गया तो इसलिए कि 'वो गुजरा जमाना' सरीखी रचना बने-बनाए सांचों में संभव ही नहीं क्योंकि विभाजन की प्रक्रिया इतनी जटिल और संक्रमण भरी थी कि किसी भी बड़े लेखक के लिए रचनात्मक स्तर पर उसका रत्ती भर भी सरलीकरण अपनी सामर्थ्य के साथ बेइंसाफी करना है।
'वो गुजरा जमाना' विभाजन पर कालजयी भारतीय उपन्यास इसलिए भी है कि समकालीन और असहिष्णुता के माहौल में अपनी प्रासंगिकता का खुद पुनर्जन्म करता है। एक बड़ी/कालजयी साहित्यिक कृति का 'सबकुछ' बदले हुए हालात में भी प्रासंगिक अथवा बरकरार रहना क्या उसका सबसे बड़ा हासिल नहीं है? ‘काला कोलाज’, ‘बिमल उर्फ जाएं तो जाएं कहां’, ‘नसरीन’, ‘दूसरा न कोई’, ‘दर्द ला दवा’, ‘मायालोक’, ‘नर-नारी’, ‘एक नौकरानी की डायरी’ उनके अन्य उपन्यास हैं।
उन्होंने बीस से ज्यादा कहानी संग्रह और नाटक भी लिखे। इन सब में भी भाषा का सौंदर्य खिली धूप जैसा है। सामाजिक द्वंद्वात्मक मनोविज्ञान की यथार्थवादी छवियों से ओतप्रोत। उन्होंने कभी इसकी परवाह नहीं की कि हिंदी आलोचना के दिग्गजों ने उन्हें उस गंभीरता से नहीं लिया, जिसके वह जायज हकदार थे। शायद यह (हिंदी) साहित्य की स्थापित खेमेबाजियों से बाहर रहकर अपनी अलहदा रचनात्मक दुनिया बनाने की एक 'कीमत' हो।
बावजूद इसके वह और उनका रचना संसार वैश्विक स्तर पर विशिष्ट पहचान रखता था। खेमेबाजी से कृष्ण बलदेव वैद दूर रहे लेकिन सप्रयास उन खेमों के करीब से भी नहीं गुजरे जिन्हें 'दक्षिणपंथी' कहा जाता है। बंटवारे की पीड़ा और मजहब के आधार पर बचपन के दोस्तों को खो देने और 'मुकम्मल उर्दू माहौल' (जिससे उन्हें जबरदस्त मोहब्बत थी) से निष्कासन ने उन्हें आजीवन सांप्रदायिकता और जातपात से गहरी नफरत करने वाला बुद्धिजीवी बनाए रखा। किसी किस्म की प्रतिबद्धता का दावा या प्रकटीकरण भी उनके यहां नहीं मिलता।
उनकी प्रतिनिधि कृतियां बताने के लिए काफी हैं कि उनके मानवीय सरोकार कितने अनंत थे। उन्हें अपठनीय तथा दूरुह लेखक के खिताब से हमारे कतिपय आलोचकों ने जरूर नवाजा लेकिन अपनी धुन-लगन में वह खामोशी के साथ मुक्तिबोध की इस अवधारणा को अचेतन सार्थक करते रहे कि जीवन इतना जटिल है कि उसे साधारणता से व्याख्ति नहीं किया जा सकता। वैद की कलम ने यह किया भी नहीं। उनकी रचनाएं 'आनंद' के लिए नहीं बल्कि 'सुख' और बेचैनी के लिए थीं। अब प्रगतिशील और अप्रगतिशील इसे किन मानदंडों पर कैसे परिभाषित करेंगे?
हिंदी और भारतीय साहित्य को कृष्ण बलदेव वैद की एक बड़ी देन साहित्य की अनौपचारिक विधाओं, डायरी, पत्र-संवाद और अपने समकालीनों, विशेषकर कृष्णा सोबती के साथ मौखिक संवाद है। पांच खंडों में अलग-अलग समयकाल की उनकी प्रकाशित डायरियां उनकी समस्त जीवन यात्रा सामने रखती हैं। ढलती उम्र में लिखी डायरियों के पन्नों में 'मौत के दस्तखत/आभास' जगह-जगह मिलेंगे। एक बड़ा लेखक-बुद्धिजीवी, 'महान बुद्धिमान शब्दजीवी' मौत का कैसे इंतजार करता है और जिंदगी की निरंतर स्थगित अथवा लुप्त होती धूप को किस मनोदशा के साथ भुगतता है- इसे कायदे से जानना हो तो कृष्ण बलदेव वैद की डायरियों में से गुजरिए।
बहुपक्षीय सरोकार और भारतीय तथा विश्व साहित्य पर सारगर्भित चिंतन भी यहां मिलेगा। समकालीन लेखकों पर उनका नजरिया भी। ख्वाब उनकी डायरियों के अहम आधार-वस्तु हैं। प्रवास के सुख-दुख भी। उनकी डायरियां 'आनंद' की बजाय 'सुख' देती हैं। डायरी-साहित्य में ऐसा बहुत कम होता है जो वैदजी की डायरियों में है।
साल 1949 में कृष्ण बलदेव वैद ने जालंधर के डीएवी कॉलेज में पढ़ाया। मोहन राकेश और भीष्म साहनी से उनकी मुलाकात यहीं हुई। अलबत्ता करीबी दोस्ती, उर्दू के साहित्यकारों फिक्र तौंसवी और मख्मूर जालंधरी के साथ थी। साल 1962 से 1966 तक वह पंजाब विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में रहे। उसके बाद विदेश प्रवास का सिलसिला शुरू हुआ और वहां के नामी विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी शिक्षण किया। लेखन हिंदी-उर्दू-पंजाबी की संयुक्त 'हिंदुस्तानीयत' में जारी रखा। अपने तईं भाषा का मौलिक सौंदर्यशास्त्र निखारते रहे।
बचपन के दोस्तों के अलावा साहित्यि-संस्कृति-कला से नाता रखने वाले बिछड़ गए दोस्तों की स्मृतियां उन्हें हमेशा यंत्रणा देती रहीं। निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी, शीला साहनी, कृष्णा सोबती, बलराज साहनी, रामू गांधी, फजल ताबिश, कमलेश, जगदीश स्वामीनाथन, बी राजन, शानी, दया कृष्ण, भवानी, फ्रान्सिन, धर्म नारायण, विद्यानिवास मिश्र उनके ऐसे नजदीकी दोस्तों में थे, जो उनसे पहले चले गए, लेकिन उनकी यादों में और डायरियों में जिंदा रहे। लेकिन अब वह खुद दूसरों की डायरियों-यादों में जिंदा मिलेंगे। जिस्मानी अंत तो हो गया लेकिन उनका अंतिम समय का (अप्रकाशित) लेखन सामने आना शेष है।
6 फरवरी की देर रात को कृष्ण बलदेव वैद नाम का एक जमाना गुजर गया। अपनी जड़ों से दूर, बहुत दूर! सुदूर विदेश में। अब वह मुट्ठी भर राख बनकर और अनगिनत महत्वपूर्ण शब्दों के साथ वतन लौटेंगे। उनका लिखा हुआ और उनकी स्मृतियां कभी नहीं मरेंगीं। यह तय है।
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