कुंवर नारायण: जीवन और कविता की विनम्रता का संयोग

15 नवंबर को वरिष्ठ कवि कुंवर नारायण का 90 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। उनकी रचनाशीलता में सवाल तो हैं, लेकिन उसका शोर नहीं है। उनकी सहज कविताओं में एक गहराई है, उनका व्यक्तित्व भी ऐसा ही था।

कुंवर नारायण/ फोटो: सोशल मीडिया
कुंवर नारायण/ फोटो: सोशल मीडिया
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प्रगति सक्सेना

वरिष्ठ कवि कुंवर नारायण नहीं रहे। हिंदी साहित्य को उन्होंने जो दिया, उसका लेखा-जोखा गूगल में खोजने पर बहुत तरतीब से मिल जायेगा। उन्हें जो अनेक सम्मान मिले, उनकी सूची भी इन्टरनेट पर मौजूद है। लेकिन जो मौजूद नहीं है वह है उनकी विनम्र और मृदुभाषी शख्सियत। वे हिंदी के उन बहुत कम साहित्यकारों में से एक थे जो साहित्य की राजनीति और गुटबंदी से न सिर्फ अलग रहे, बल्कि उसके परे उनकी एक विशिष्ट और प्रतिष्ठित पहचान भी बनी रही।

जब मैंने लिखना शुरू किया था तो हिंदी साहित्य की राजनीति और साहित्यकारों से नितांत अपरिचित थी। सिर्फ एक मंगलेश डबराल को जानती थी और उनसे भी इसलिए बात कर पाती थी क्योंकि वे खुद कविता और लेखन को लेकर बहुत गंभीर थे और प्रोत्साहित भी किया करते थे। जनसत्ता में मंगलेश जी के दफ्तर में ही कुंवर नारायण से मुलाकात हुई थी। मंगलेश जी ने परिचय कराया, “ये हिंदी के बहुत अच्छे और प्रतिष्ठित कवि हैं।”

कुंवर जी बहुत संकोच से मुस्कुराये, बोले, “हां, कवि तो हूं।” फिर कुछ देर के लिए मैं और कुंवर जी चुपचाप बैठे रहे। उन्होंने बस इतना पूछा, “क्या करती हैं?”

“जी, अभी पढ़ रही हूं, थोड़ा बहुत लिखती हूं।”

“बहुत अच्छी बात है, लिखती रहो।”

बस इतना ही संवाद। बातचीत में संकोची वे भी थे, मैं भी।

इसके बाद देर तक मैं मंगलेश जी और कुंवर जी के बीच तारकोवस्की को लेकर हो रही बातचीत सुनती रही। अब समझ आता है कि इस तरह की बातचीत सुन-सुन कर ही मुझमें बाहरी और भीतरी दुनिया की समझ विकसित हुई। आजकल पत्रकारिता में ऐसे बहुत कम लोग मिलते हैं जिनसे इस तरह की सार्थक चर्चा हो सके। पत्रकारिता भी भाग-दौड़ से भरे अन्य व्यवसायों की तरह हो गयी है। आज खबर ढूंढो, कल भूल जाओ। यहां तक कि सिनेमा, साहित्य और कला भी न्यूज़ पेग के मोहताज हो गए हैं।

फिर एक कविता पाठ में उनसे मुलाकात हुई तो अपनी खास संकोच भरी मुस्कराहट के साथ उन्होंने बस इतना ही कहा, “भाई, तुम्हारी अमुक कविता अच्छी थी।”

उनका पूरा व्यक्तित्व उनकी कविताओं की तरह ही नाजुक था। कहीं कोई पैनी धार नहीं। सिनेमा, संगीत, कला और साहित्य की उनकी समझ बहुत गहरी थी, लेकिन कोई दंभ, अहंकार या कठोरता नहीं। जीवन के थपेड़ों ने आहत तो उन्हें भी किया ही होगा, लेकिन उनकी शख्सियत में, उनकी रचनाओं में कटुता नहीं है। ये एक रचनाकार की बहुत बड़ी उपलब्धि होती है कि बाहरी जगत का खुरदुरापन उसके रचनाजगत को प्रभावित न कर पाए।

इतना कुछ था दुनिया में
लड़ने झगड़ने को
पर ऐसा मन मिला
कि ज़रा-से प्यार में डूबा रहा
और जीवन बीत गया

कृष्ण कल्पित ने अपने फेसबुक पेज पर ठीक ही लिखा है, “करुणा का अंतिम कवि चला गया।”

उनकी कविताओं में करुणा के साथ साथ मनुष्यता पर अटूट भरोसा है जो द्रवित करता है तो हैरान भी कर जाता है -

अबकी बार लौटा तो
बृहत्तर लौटूंगा
चेहरे पर लगाए नोकदार मूंछें नहीं
कमर में बांधें लोहे की पूंछे नहीं
जगह दूंगा साथ चल रहे लोगों को
तरेर कर न देखूंगा उन्हें
भूखी शेर-आंखों से

अबकी बार लौटा तो
मनुष्यतर लौटूंगा
घर से निकलते
सड़को पर चलते
बसों पर चढ़ते
ट्रेनें पकड़ते
जगह बेजगह कुचला पड़ा
पिद्दी-सा जानवर नहीं

अगर बचा रहा तो
कृतज्ञतर लौटूंगा

अबकी बार लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूंगा

रचना प्रक्रिया और भाषा के अंतर्संबंध का बयान करते-करते वे इन दोनों से परे जाकर उस कम्युनिकेशन पर गहरी बात कर जाते हैं जिसकी जटिलता में बाहरी जगत उलझा रहता है -

बात सीधी थी पर एक बार
भाषा के चक्कर में
जरा टेढ़ी फंस गई ।

उसे पाने की कोशिश में
भाषा को उलटा पलटा
तोड़ा मरोड़ा
घुमाया फिराया
कि बात या तो बने
या फिर भाषा से बाहर आये -
लेकिन इससे भाषा के साथ साथ
बात और भी पेचीदा होती चली गई।

सारी मुश्किल को धैर्य से समझे बिना
मैं पेंच को खोलने के बजाय
उसे बेतरह कसता चला जा रहा था
क्यों कि इस करतब पर मुझे
साफ़ सुनायी दे रही थी
तमाशाबीनों की शाबाशी और वाह वाह।

आखिरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था –
जोर जबरदस्ती से
बात की चूड़ी मर गई
और वह भाषा में बेकार घूमने लगी।

हार कर मैंने उसे कील की तरह
उसी जगह ठोक दिया ।
ऊपर से ठीकठाक
पर अन्दर से
न तो उसमें कसाव था
न ताकत।

बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह
मुझसे खेल रही थी,
मुझे पसीना पोंछती देख कर पूछा -
“क्या तुमने भाषा को
सहूलियत से बरतना कभी नहीं सीखा?”

यूट्यूब पर उनका एक इंटरव्यू उपलब्ध है जिसमें वे एक आसान से सवाल का जवाब दे रहे हैं - कविता क्या है?

“अक्सर आसान से दिखने वाले सवालों के जवाब बहुत मुश्किल होते हैं। कविता क्या नहीं है, कहां नहीं है, कविता एक ऐसी दृष्टि है जो हमें खास तरह से दुनिया को देखने में मदद करती है, अपने अनुभवों को, अपने आप को जानने में मदद करती है, इसे हम भाषा में, बोल-चाल में , आपबीती में और जो जगबीती है उसमें भी देख सकते हैं। कविता को एक खास परिभाषा में बांधना मुश्किल है, वह हमारे चारों तरफ बिखरी हुई है। कविता हमारे अन्दर भी है और बाहर भी - दोनों के संवाद से ही कविता उत्पन्न होती है।”

इतनी सरलता से इतनी गहन बात वही व्यक्ति कर सकता है जिसने इसे जीया भी हो। वे सही मायनों में कविता को जीते थे। उनके जीवन से जो रचनाएं हमें मिलीं, उनसे हर पाठक का एक निजी एसोसिएशन बना। यही तो कवि होता है, और ऐसा ही जीवन भी - जिसे हम अपनी स्मृति में, अपने सन्दर्भ में बार-बार अनुभव कर सकें। फिर वह कविता, वह शख्सियत मर कैसे सकती है!

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