गिरिजा देवी के संगीत की थाती हमारी अमूल्य बनी निधि रहेगी: मंजरी सिन्हा
यह गिरिजा देवी का बहुमूल्य अवदान है कि हाशिए पर पड़ी उपशास्त्रीय कही जाने वाली ठुमरी, दादरे जैसी विधा को उन्होंने शास्त्रीय धरातल पर पहुंचाया।
24 अक्टूबर को शास्त्रीय संगीत की दुनिया के रोशन नामों में एक महान गायिका गिरिजा देवी का निधन हो गया। संगीत मर्मज्ञ मंजरी सिन्हा ने गिरिजा देवी को लेकर नवजीवन से बात की। प्रस्तुत आलेख उसी बातचीत पर आधारित है। - नवजीवन
पदम विभूषण से सम्मानित विदुषी गिरिजा देवी को ठुमरी की रानी या ठुमरी क्वीन कहा जाता था। वस्तुतः यह परिचय पर्याप्त नहीं हैं, उन्हें बनारस घराने के चैमुखी गायन की विधिवत तालीम मिली थी।
बनारस में 1929 में जन्मी गिरिजा देवी के पिता एक संस्कृति प्रेमी जमींदार थे, जिन्होंने मात्र 5 वर्ष की कोमलवय में अपनी बेटी को शास्त्रीय संगीत की तालीम पंडित सरजू प्रसाद मिश्र से दिलानी शुरू की। आगे चलकर पंडित श्रीचंद्र मिश्र से उन्हें छंद प्रबंध, द्रुपद, खयाल, टप्पा, टप-खयाल, खयाल-नुमा चतुरंग, ठुमरी, दादरा और गुल-नक्श सीखा। उन्हें कजरी, झूला जैसे लोकगीत शैलियों की भी तालीम मिली, जिन्हें उन्होंने तराशकर शास्त्रीयता का रंग दिया। यह गिरिजा देवी का बहुमूल्य अवदान है कि हाशिए पर पड़ी उपशास्त्रीय कही जाने वाली ठुमरी, दादरे जैसी विधा को शास्त्रीय धरातल पर पहुंचाया।
गुरू-शिष्य परम्परा के तहत उन्होंने अनगिनत शिष्य तैयार किए, जो आज देश-विदेश में अपने प्रदर्शन से अपने गुरू का अलख जगा रहे हैं। शिष्य की खूबी देखकर वे अत्यधिक प्यार से उसे तालीम देतीं। गुरू के रूप में उनमें अपार धैर्य था। ठुमरी के बोलों को पहले वह समझातीं, शिष्य से सही उच्चारण का अभ्यास करातीं और किन स्वरसंगतियों से साहित्य का भाव उदीप्त हो सकेगा इसका मर्म समझातीं।
केवल 15 वर्ष की अवस्था में उन्होंने अपना पहला मंच प्रदर्शन किया जिसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। देश-विदेश की बड़ी से बड़ी संगीत सभाओं में वे लगातार आमंत्रित होती रहीं और प्रशस्ति के नए कीर्तिमान स्थापित करती रहीं। लेकिन उनका सबसे बड़ा अवदान एक गुरू के रूप में रहा। हमारी शास्त्रीय संगीत की परंपरा सदा से गुरूमुखी विद्या रही है। गुरू-शिष्य परम्परा के तहत उन्होंने अनगिनत शिष्य तैयार किए, जो आज देश-विदेश में अपने प्रदर्शन से अपने गुरू का अलख जगा रहे हैं। शिष्य की खूबी देखकर वे अत्यधिक प्यार से उसे तालीम देतीं। गुरू के रूप में उनमें अपार धैर्य था। ठुमरी के बोलों को पहले वह समझातीं, शिष्य से सही उच्चारण का अभ्यास करातीं और किन स्वरसंगतियों से साहित्य का भाव उदीप्त हो सकेगा इसका मर्म समझातीं। ‘बोल बनाओ’ उनके लिए तकनीक मात्र नहीं था। ठुमरी के बोलों को अलग-अलग तरह से कह पाने का सलीका ही ‘बोल बनाओ’ है। पहले वह विद्यार्थियों को बतातीं और फिर एक बोल के अनेक अंदाज कहने का तरीका समझातीं। इस तरह से स्वर और साहित्य के मणिकांचन संयोग से ठुमरी खिल उठती।
वे जितनी बड़ी कलाकार थीं, उतनी ही नेक इंसान भी थीं। घर आए मेहमान को अपने हाथ से व्यंजन बनाकर परोसना उन्हें अच्छा लगता था। वे अपने शार्गिदों को गाने-बजाने के अलावा आचार-व्यवहार की यह बातें भी सिखातीं। किस तरह से बनाना और परोसना, इस बात का सलीका भी उनकी तालीम का हिस्सा था। जितने प्यार से गाना सिखातीं उतने ही मनोहार से अपने शागिर्दों को खाना भी खिलातीं। जीवन जीने की ललक उनमें आखिर तक बनी रही और जीवन जीने का यह मंत्र भी उन्होंने अपने शिष्यों को शिद्दत से दिया। उनका जाना भारतीय संगीत जगत के लिए ऐसी अपूरणीय क्षति है जिसकी कोई भरपाई संभव नहीं। उनकी छोड़ी संगीत की थाती हमारी अमूल्य बनी निधि रहेगी।
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