आज होते तो 100 साल के होते मजरूह सुल्तानपुरी, इनमें से 2 साल गुज़ारे मुंबई की आर्थर रोड जेल में
शायरी में कितने रंगों को कितनी बार दोहराया जा सकता है। और हुनर ऐसा हो कि हर रंग नया नया सा लगे। दिल की तड़प, जुदाई की कसक, मिलन की मस्ती, इंतज़ार की बैचैनी, मौत की दहशत यानी जिंदगी का हर मौका गीतों में उभर आए। काम तो नामुमकिन सा लगता है। लेकिन इस मामुमकिन को मुमकिन बना दिया मजरूह सुल्तानपुरी ने।
74 साल पहले फिल्म शाहजहां (1945) में सहगल के गाए ये दो गीत किस सिने प्रेमी को याद नहीं होंगे। “ग़म दिये मुस्तकिल कितना नाजुक था दिल ये ना जाना” और “जब दिल ही टूट गया तो जी के क्या करेंगे… “ यह शुरूआत थी। फिल्मी दुनिया में पहुंचने से पहले मजरूह की शायरी चर्चित हो चली थी। एक मुशायरे में मुंबई पहुंचे तो फिल्मी दुनिया ने उन्हें अपने दामन में समेट लिया। पहली फिल्म मिली ताजमहल (1945) जिसके गाने सुपर हिट हो गए। अब काम की कमी नहीं रह गयी, लेकिन अपनी विद्रोही तेवरों की शायरी के चलते मजरूह को भारी खामियाजा भी उठाना पड़ा।
अपनी एक नज्म की वजह से मजरूह को करीब दो साल मुंबई की आर्थर रोड जेल में बिताने पड़े। जेल से निकले तो मुंह में पान दबाया और फिर लिखना शुरू कर दिया। सिर्फ क्रांति की बातें ही नहीं बल्कि इश्क, जुनून, मदहोशी, शोखी, मिलन और जुदाई समेत हर जज़्बात पर कलम चली। यानी जिंदगी के एक एक मोड़ को गीतों में ढाल दिया। वे गीत फिल्मी पर्दे से हो कर आज तक लाखों दिलों में सुरक्षित हैं।
फिल्मी गीतों में भावनाओं के जितने रंग मजरूह ने उंडेले उतने तो उनके समकालीन कई गीतकार मिल कर नहीं कर सके। मजरूह के लंबे फिल्मी सफर में उनकी जोड़ी नौशाद, ओ पी नैय्यर और लक्ष्मी कांत प्यारेलाल सहित कई संगीतकारों के साथ बनी लेकिन सचिन देव बर्मन के साथ उन्होंने हिट मधुर गीतों की झड़ी लगी दी। पेइंग गेस्ट, नौ दो ग्यारह, सुजाता, काला पानी, बात एक रात की, तीन देवियां, ज्वैलथीफ और अभिमान जैसी फिल्में उस कामियाबी की गवाह हैं।
आगे चल कर एस डी बर्मन के संगीतकार बेटे राहुल देव बर्मन की मॉडर्न धुनों के साथ मजरूह के गीतों के बोल इस तरह घुल मिल गए कि फिल्म संगीत को नया जायका मिल गया। इन दोनो ने करबी 76 फिल्में साथ साथ कीं। इस जोड़ी के किस किस गीत को याद कीजिएगा, ओ हसीना जुल्फों वाली जाने जहां सहित आर डी की पहली मेगा हिट फिल्म तीसरी मंजिल के सारे गाने, आजा पिया तोहे प्यार दूं (बहारों के सपने), ना जा मेरे हमदम (प्यार का मौसम), वादियां मेरा दामन रास्ते मेरी बाहें (अभिलाषा), गुम हैं किसी के प्यार में दिल सुबह शाम (रामपुर का लक्षमण), बंगले के पीछे तेरी खिड़की के नीचे (समाधि), ओ मेरे दिल के चैन (मेरे जीवन साथी), मेरी भीगी भीगी सी पलकों सहित अनामिका के सभी गीत, यादों की बारात, और हम किसी से कम नहीं के सभी गीत,एक हंसनी मेरी हंसनी (जहरीला इंसान), हमें तुमस प्यार कितना ये हम नहीं जानते (कुदरत), एक दिन बिक जाएगा माटी के बोल (धर्म कांटा) सहित क्या क्या बेशकीमती नगीने इस जोड़ी ने हिंदी फिल्म संगीत के ताज में जड़ दिये।
मजरूह की कलम पचास साल से ज्यादा चलती रही। संगीतकारों की पीढ़ियां बदलीं लेकिन मजरूह ने हर बदलाव के साथ ताल मेल बिठाकर हिंदी फिल्म संगीत की लोकप्रियता को नयी ऊंचाईयां दी। उनके लिखे बेमिसाल गीतों को याद करने बैठें तो रात गुजर जाएगी लेकिन लिस्ट पूरी नहीं होगी।
गीत, कव्वाली, भजन, मुजरा, कैबरे और गजल सब कुछ मजरूह ने लिखा। हिंदी फिल्मों को समृद्ध करने और भारतीय सिनेमा के विकास में शानदार भूमिका निभाने के लिये 1994 में उन्हें उनके फिल्मी गीतों ने दादा साहब फालके सम्मान दिलवाया। यह सम्मान हासिल करने वाले वे पहले गीतकार थे। लेकिन उनकी गंभीर शायरी का मूल्यांकन आज तक नहीं हुआ। कम्युनिस्ट विचारधारा के कट्टर समर्थक मजरूह ने ग़ज़ल में जो प्रयोग किये वे अदभुत हैं। लेकिन आलोचकों ने मजरूह को फिल्मी गीतकार बनने की शायद सजा दी जो उनके साहित्यिक योगदान पर गंभीर चर्चा से बचते रहे।
24 मई 2000 को इस दुनिया से बिदा लेने से पहले तक मजरूह लगातार सक्रिय रहे और वो भी अपनी शर्तों पर। मजरूह का जन्म उत्तर प्रदश के सुल्तानपुर में 1 अक्टूबर 1919 को हुआ था। यानी सौ साल पहले।
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