जन्मदिन 01 सितंबर पर विशेष: दुष्यंत कुमार होने का मतलब- आज भी संसद से सड़क तक गूँजते हैं उनके शे'र

हिंदी में ग़ज़ल की कोई साढ़े चार दशकों की यात्रा की शिनाख्त अगर हो पाई है तो इसके पीछे दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों का तेवर और उनकी संवेदना और बेचैनी ही थी। यह भी उनकी ग़ज़लों की ही ताकत है कि संसद से सड़क तक उनके शेर गूंजते पाए जाते हैं।

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कमलेश भट्ट कमल

'ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा

मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा।'

या फिर

'कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता

एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।'

ऐसे जानदार और कद्दावर शेर लिखने वाले कवि, कथाकार और ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार आज होते तो 88 साल के बुज़ुर्ग होते। लेकिन नियति को शायद यह मंज़ूर नहीं था और वे 30 दिसंबर 1975 को मात्र 42 वर्ष की जवान उम्र में ही दुनिया को अलविदा कह गए। कदाचित नियति भी उन्हें बुज़ुर्ग होते देखना बर्दाश्त नहीं कर सकती थी, इसीलिए जब वह ग़ज़ल की‌ रचना-धर्मिता की उठान पर थे, तभी हमसे बिछड़ गए। लेकिन

'मैं जिसे ओढ़ता- बिछाता हूं

वह ग़ज़ल आपको सुनाता हूं '

की भावभूमि वाली उनकी ग़ज़लों की ताकत ही रही, जिसने उन्हें कभी मरने नहीं दिया और हो सकता है कि वे अगली कई सदियों तक इसी तरह अपनी ग़ज़लों के माध्यम से एक जवांमर्द के रूप में जीवित बने रहें। यह भी उनकी ग़ज़लों की ही ताकत है कि संसद से सड़क तक उनके शेर गूंजते पाए जाते हैं।

यह देखना कितना महत्वपूर्ण है कि दुष्यंत कुमार अपनी ग़ज़लों के माध्यम से तो अमर हुए ही, हिंदी जैसी बड़ी भाषा को 'हिंदी ग़जल' जैसी एक अलग और जीवंत विधा भी सौंप गए। अन्यथा उनके पहले तक ग़ज़लें हिंदी में लिखी अवश्य जाती थीं लेकिन उनकी अलग से न तो कोई पहचान थी और न कोई शख़्सियत। उर्दू ग़ज़लों के साए में सांस लेती ऐसी ग़जलों के लिखे जाने का कोई बहुत बड़ा मकसद भी नहीं था। शायद यही कारण रहा कि दुष्यंत के पूर्व के अधिकांश रचनाकारों ने, जिनमें भारतेंदु, निराला, त्रिलोचन जैसे लोग भी शामिल रहे हैं, ग़ज़ल को एक पूर्णकालिक विधा के रूप में नहीं अपनाया। वह उनके लिए प्रायोगिक विधा ही बनी रही।

01 सितंबर 1933 को उत्तर प्रदेश में बिजनौर जिले के राजपुर नवादा में त्यागी परिवार में जन्मे तथा कोई तेरह-चौदह वर्ष की उम्र से लेखन का प्रारंभ करने वाले दुष्यंत कुमार जब ग़ज़लों की दुनिया में आए थे,तब तक उनके खाते में तीन कविता संग्रह, एक काव्य-नाटक तथा दो उपन्यास जुड़ चुके थे। लेकिन उनके भीतर कोई बेचैनी ज़रूर थी जो उस समय तक सामंती विधा मानी जाने वाली ग़ज़ल तक उन्हें ले आई। इसका खुलासा दुष्यंत कुमार के उस आत्मकथ्य से होता है,जो मूल रूप से 'कल्पना' पत्रिका में प्रकाशित हुआ था और जिसे कमलेश्वर ने मई 1976 की 'सारिका' के दुष्यंत स्मृति विशेषांक में जगह दी थी।


इसमें दुष्यंत ने कहा था-' यह एक विवादास्पद बात हो सकती है पर मैं बराबर महसूस करता रहा हूँ कि कविता में आधुनिकता का छद्म कविता को बराबर पाठकों से दूर करता गया है, कविता और पाठक के बीच इतना फासला कभी नहीं था, जितना आज है। इससे भी ज्यादा दुखद बात यह है कि कविता शनैः-शनैः अपनी पहचान और कवि अपनी शख्सियत होता गया है। ऐसा लगता है गोया दो दर्जन कवि एक ही शैली और शब्दावली में एक ही कविता लिख रहे हैं। इस कविता के बारे में यह कहा जाता है कि यह सामाजिक और राजनैतिक क्रांति की भूमिका तैयार कर रही है। मेरी समझ में यह वक्तव्य भ्रामक है और यह दलील खोटीहै। जो कविता लोगों तक पहुंचती नहीं, उनके गले नहीं उतरती, वह किसी भी क्रांति की संवाहिका कैसे हो सकती है!'

दुष्यंत कुमार का यह आत्मकथ्य वस्तुत: उस छन्दमुक्त प्रयोगवादी कविता के विरुद्ध हिंदी ग़ज़ल का एक चार्टर था, जिसकी उस समय तक तूती बोल रही थी और जो उस आलोचना की छत्रछाया में लिखी जा रही थी जहां आलोचकों का कद बड़ा होता जा रहा था और रचनाकारों के कद छोटे होते जा रहे थे। जहां कविताएं केवल आलोचकों के लिए लिखी जा रही थीं और भौंचक पाठक उनसे छिटकता जा रहा था।

आश्चर्य ही है कि डॉ. रामविलास शर्मा जैसा प्रगतिशील विद्वान आलोचक ही नहीं, नई कविता के चर्चित कवि केदारनाथ सिंह व अशोक वाजपेई और‌ राजेंद्र यादव तथा ज्ञान रंजन जैसे साहित्य-संपादक भी हिंदी में ग़ज़ल विद्या के विरुद्ध खड़े दिखाई देते थे । निदा फ़ाज़ली जैसे उर्दू शायर तो दुष्यंत की ग़ज़लों के लहजे को वर्ष 2014 में तब भी 'उखड़ा-उखड़ा' बता कर स्वयं को सुकून देने की कोशिश कर रहे थे, जब हिंदी ग़ज़ल आंदोलन की शक्ल धारण करते हुए चार दशकों की यात्रा कर चुकी थी।

यह ग़ज़ल की अभिव्यक्ति सामर्थ्य ही थी जिसकी पहचान दुष्यंत ने 1975 में ही कर ली थी और कहा था कि 'अगर ग़ज़ल के माध्यम से गालिब अपनी निजी तकलीफ को इतना सार्वजनिक बना सकते हैं तो मेरी दुहरी तकलीफ(जो व्यक्तिगत भी है और सामाजिक भी, इस‌ माध्यम के सहारे एक अपेक्षाकृत व्यापक पाठक वर्ग तक क्यों नहीं पहुंच सकती?'


कहना न होगा कि हिंदी में ग़ज़ल की कोई साढ़े चार दशकों की इस यात्रा की शिनाख्त अगर हिंदी ग़ज़ल के रूप में हो पाई है तो इसके पीछे दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों का तेवर और उनकी संवेदना और

' कहां तो तय था चिरागां हर एक घर के लिए

कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।'

जैसी बेचैनी तो थी ही, उनका अपने करियर के लगभग चरम बिंदु पर पहुंच कर लिए गए उस निर्णय और उस उठाए गए ख़तरे को भी इसका श्रेय जाता है जब वे ग़ज़ल की दुनिया में उतर आए थे।

आज हम देख पाते हैं कि हिंदी ग़ज़ल एक विराट रचनात्मक आंदोलन ही नहीं है, वरन हिंदी कविता के नाम पर साहित्य से ही दूर हो रहे पाठकों को वापस साहित्य की ओर मोड़ने का एक बृहद अनुष्ठान भी साबित हुई है। दुष्यंत के बाद बेशक उनकी कोई परंपरा नहीं बनी लेकिन उनके माध्यम से हिंदी ग़ज़ल का जो मुहावरा बना और जिसमें सामाजिक सरोकार और यथार्थ ग़ज़ल के केंद्र में आए, आने वाली पीढ़ियों में उस मुहावरे का बहुआयामी विकास हुआ है। आज यदि हिंदी ग़ज़ल हिंदी काव्य की मुख्य धारा बनने की ओर अग्रसर है तो नि: संदेह इसका श्रेय दुष्यंत कुमार को भी जाएगा ही।

(लेखक स्वतंत्र लेखक हैं। उनके कई कविता, गजल और कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।)

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