धर्मवीर भारती जन्मदिन विशेष: अमर किरदारों को बुनने और अद्भुत लेखकों को गढ़ने वाला साहित्यकार संपादक
आज जब हिंदी पत्रकारिता और पत्रिकाएं एक अजीब से दौर से गुज़र रही हैं, इस दौर में जब साहित्य चार दिन की चर्चाओं तक सिमट गया है, भारती जी के व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों को याद करना बहुत ज़रूरी है, ताकि हम एक समाज के तौर पर ये ना भूल जाएं कि बाज़ार हमारी संवेदनाओं और मनुष्यता से ज्यादा बड़ा और अहम नहीं है।
ये एक अजीब बात है कि धर्मवीर भारती का ज़िक्र आते ही मेरे मन में दो विशुद्ध विपरीत बातें कौंधती हैं—एक तो उनका उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ और दूसरा ‘धर्मयुग’ में छपने वाला आबिद सुरती का ‘कार्टून कोना डब्बू जी’। हालांकि उस कार्टून का नाम सिर्फ ‘डब्बू जी’ ही था लेकिन हम बच्चे उसे पूरा पढ़ते थे – ‘कार्टून कोना डब्बू जी’।
यह भी एक दिलचस्प बात है कि मेरी स्मृति में कौंधने वाली ये दोनों बातें धर्मवीर भारती की शख्सियत के दो अहम् पहलुओं का प्रतिनिधित्व करती हैं- एक लेखक के तौर पर धर्मवीर भारती और एक कड़क संपादक के तौर पर भारती जी।
हिंदी पत्रिकाओं के दौर में ‘धर्मयुग’ सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली पत्रिकाओं में से था।और उसे इतना लोकप्रिय बनाने का श्रेय बतौर संपादक धर्मवीर भारती की पैनी नज़र, हिंदी पाठक की समझ और तमाम विषयों को दिलचस्प तरीके से पेश करने का हुनर या यूं कहिये कि विज़न को जाता है। ये ज़रूर है कि बाद में उनकी ख्याति ऐसे संपादक की हो गयी थी जिससे मिलना मुश्किल था और जो लेखकों से रचनाओं के मौलिक होने का ‘प्रमाणपत्र’ भी चाहता था। लेकिन जिस तरह से ‘धर्मयुग’ में राजनीति से लेकर साहित्य समाज और मनोरंजन जैसे विषयों को पेश किया जाता था वह उसे एक पूरे परिवार यहां तक कि छोटे बच्चों के लिए भी दिलचस्प और पठनीय पत्रिका बनाता था।
आज की पत्रिकाओं के लिए भी धर्मयुग एक आदर्श मिसाल की तरह है और हमेशा रहेगा।
लेकिन, संपादक से कहीं अधिक धर्मवीर भारती का योगदान एक साहित्यकार के तौर पर रहा।हालांकि उनकी दोनों भूमिकाओं की तुलना करना उचित नहीं। उनका उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ हिंदी के सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले उपन्यासों में से एक है, जिसे वे खुद अपनी श्रेष्ठ रचना नहीं मानते थे और बहुत से समीक्षकों ने भी इस उपन्यास को महज एक भावनात्मक कथा ही कहा। लेकिन इस उपन्यास की ख़ास बात ये रही कि यह आदर्शों और व्यावहारिकता के बीच की उहापोह को प्रेम के विभिन्न आयामों के ज़रिये बहुत सशक्त रूप से अभिव्यक्त करता है। उपन्यास का नायक चंदर 60 और 70 के दशक के हिंदी भाषी समाज का प्रिय किरदार रहा जो अपने ‘आदर्श’ प्रेम के लिए सब कुछ न्यौछावर करता है। लेकिन उसका संबंध एक स्वच्छंद लड़की से भी होता है जो उसे प्रेम का एक अलग रूप भी दिखलाती है जो आदर्श नहीं, सामाजिक तौर पर मान्य नहीं लेकिन फिर भी मधुर है, बहुमूल्य है।
एक ऐसे समय में जब आज़ादी के बाद देश आदर्शवाद की तीव्र लहर के बाद व्यावहारिकता के धरातल पर खुद को ढूंढ रहा था, पहचान रहा था, चंदर के ज़रिये उस समाज की दुविधा ‘गुनाहों का देवता’ में बखूबी उकेरी गयी है। व्यक्तिगत स्तर पर भी चंदर एक मध्यवर्गीय युवक के अनिर्णय और उहापोह को कुशलता से चित्रित करता है। यही वजह है कि आज भी जो युवा हिंदी साहित्य थोड़ा बहुत पढ़ते हैं, उनके बीच गुनाहों का देवता अपनी ख़ास जगह बनाए हुए है।
भारती जी की दूसरी कृति जो हिंदी रंगमंच के लिए एक महत्वपूर्ण कृति है वह है उनका काव्य नाटक ‘अंधायुग’। ‘महाभारत’ के आख़िरी दिन पर लिखा गया ये नाटक आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि ये युद्ध की विभीषिका के बाद तमाम स्तरों पर उठे संशयों की बात करता है। ‘महाभारत’ के अनेक किरदारों की अपूर्णता, उनके फैसलों के त्रासद प्रभाव एक समाज की ही नहीं बल्कि एक व्यक्ति के जीवन में आने वाली मुश्किलों, नैतिक अनैतिक निर्णयों और उनके परिणामों से उठते वालों पर एक उद्वेलित कर देने वाली टिप्पणी है ‘अंधायुग’। इस नाटक के एक संस्करण के परिचय में भारती जी ने खुद लिखा था:
‘अन्धा युग’ कदापि न लिखा जाता, यदि उसका लिखना-न लिखना मेरे वश की बात रह गयी होती ! इस कृति का पूरा जटिल वितान जब मेरे अन्तर में उभरा तो मैं असमंजस में पड़ गया। थोड़ा डर भी लगा। लगा कि इस अभिशप्त भूमि पर एक कदम भी रक्खा कि फिर बच कर नहीं लौटूँगा !
पर एक नशा होता है—अन्धकार के गरजते महासागर की चुनौती को स्वीकार करने का, पर्वताकार लहरों से खाली हाथ जूझने का, अनमापी गहराइयों में उतर जाने का और फिर अपने को सारे खतरों में डालकर आस्था के, प्रकाश के, सत्य के, मर्यादा के कुछ कणों को बटोर कर, बचा कर, धरातल तक ले जाने का—इस नशे में इतनी गहरी वेदना और इतना तीखा सुख घुला-मिला रहता है कि उसके आस्वादन के लिए मन बेबस हो उठता है। उसी की उपलब्धि के लिए यह कृति लिखी गयी।‘
इस नाटक का मंचन हिंदी रंगमंच के कई दिग्गज और युवा निर्देशकों ने किया है और आज भी यह रंगमंच का एक प्रिय नाटक है क्योंकि इसकी व्याख्या हर निर्देशक अपनी तरह से करता है। मुझे याद है, कुछ 30 -35 बरस पहले ‘अंधायुग’ का रेडियो रूपांतरण श्रोताओं में खासा लोकप्रिय भी था।
हिंदी साहित्य के संस्कार में पगे धर्मवीर भारती की कुछ कवितायें भी बहुत लोकप्रिय हुईं, जिनमें कनुप्रिया का एक विशेष स्थान है। कनुप्रिया का वर्गीकरण करना मुश्किल है, लेकिन हिंदी काव्य के ज्ञाता इसे खंड काव्य के नज़दीक पाते हैं। श्रेणी चाहे कोई भी हो, लेकिन कनुप्रिया अर्थात कृष्ण की प्रिय राधा के माध्यम से इसमें स्त्री मन की व्यथा, प्रेम में अकेलापन, अनेक सवाल और संशय बखूबी उकेरे गए हैं;
बुझी हुई राख, टूटे हुए गीत, डूबे हुए चाँद,
रीते हुए पात्र, बीते हुए क्षण-सा - मेरा यह जिस्म...
‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ अपने नरेटीव में उतना सरल नहीं है, जितना ‘गुनाहों का देवता’, लेकिन इस उपन्यास में भारती जी का घुमक्कड़ लेखक, और सूक्ष्म संवेदनशील शख्सियत को लगभग छुआ जा सकता है।
आज जब हिंदी पत्रकारिता और पत्रिकाएं एक अजीब से दौर से गुज़र रही हैं, जब पत्र-पत्रिकाओं को एक प्रोडक्ट के तौर पर बेचने का दबाव ज्यादा है, गुणवत्ता, अर्थपूर्ण विषय और कथ्य ग्लैमर की चकाचौंध में कहीं गुम हो गये हैं; इस दौर में जब साहित्य बुक लांच/ रिलीज़ और चार दिन की चर्चाओं तक सिमट गया है, भारती जी का व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों को याद करना बहुत ज़रूरी है, ताकि हम एक समाज के तौर पर ये ना भूल जाएं कि बाज़ार हमारी सेन्सिबिलिटीज, हमारी संवेदनाओं और मनुष्यता से ज्यादा बड़ा और अहम् नहीं है।
भूख, ख़ूँरेज़ी, ग़रीबी हो मगर
आदमी के सृजन की ताक़त
इन सबों की शक्ति के ऊपर
और कविता सृजन कीआवाज़ है.
फिर उभरकर कहेगी कविता
"क्या हुआ दुनिया अगर मरघट बनी,
अभी मेरी आख़िरी आवाज़ बाक़ी है,
हो चुकी हैवानियत की इन्तेहा,
आदमीयत का अभी आगाज़ बाकी है !
लो तुम्हें मैं फिर नया विश्वास देती हूँ,
नया इतिहास देती हूँ !
कौन कहता है कि कविता मर गई?
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