पुण्यतिथि विशेष: थाने में थानेदार राजकुमार को सिपाही ने दिखाया हीरो बनने का सपना, फिर एक दिन हकीकत में बदला ख्वाब

एक दिन रात में गश्त के दौरान एक सिपाही ने राजकुमार से कहा की हजूर आप रंग-ढंग और कद-काठी में किसी हीरो से कम नही लगते। फिल्मों में अगर आप हीरो बन जाएं तो लाखों दिलों पर राज कर सकते हैं। राजकुमार को सिपाही की यह बात बहुत पसंद आई।

फोटो: सोशल मीडिया
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अतहर मसूद

हिंदी सिनेमा के मशहूर और दिग्गज अभिनेता राजकुमार की आज 27वीं पुण्यतिथि है। राजकुमार का शुमार फिल्म इंडस्ट्री के उन चंद अभिनेताओं में किया जाता है, जिन्होंने अपने डॉयलॉग बोलने के अंदाज़ से लाखों लोगों को अपना दीवाना बना लिया था। जानी लफ़्ज़ तो जैसे उनका तकिया कलाम बन गया था। उनके क़रीबी दोस्त भी उन्हें जानी कहकर बुलाते थे।

राजकुमार की पैदाइश 8 अक्टूबर 1926 को पाकिस्तान के बलूचिस्तान में हुई थी। उनका ताल्लुक एक मिडिल क्लास ब्राह्मण परिवार से था। उनका असल नाम कुलभूषण पंडित था, लेकिन हिंदी सिनेमा में वह राजकुमार के नाम से मशहूर हुए। 1940 में अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद राजकुमार बॉम्बे के माहिम पुलिस थाने में बतौर सब इंस्पेक्टर नौकरी करने लगे। उनके थाने में अक्सर फ़िल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोगों का आना जाना लगा रहता था।

एक दिन रात में गश्त के दौरान एक सिपाही ने राजकुमार से कहा की हजूर आप रंग-ढंग और कद-काठी में किसी हीरो से कम नही लगते। फ़िल्मों में अगर आप हीरो बन जाएं तो लाखों दिलों पर राज कर सकते हैं। राजकुमार को सिपाही की यह बात बहुत पसंद आई।

एक बार की बात है राजकुमार के थाने में फ़िल्म निर्माता बलदेव दूबे किसी काम से आए। वह राजकुमार के बात करने के अंदाज़, हाव-भाव और पर्सनालिटी से काफ़ी प्रभावित हुए। उन्होंने फ़ौरन राजकुमार को फ़िल्मों में बतौर अभिनेता काम करने की पेशकश कर डाली। सिपाही की बात तो राजकुमार के दिमाग़ में वैसे ही हिलोरें मार रहीं थी। उन्होंने फ़ौरन फ़िल्म निर्माता बलदेव दूबे के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। बलदेव दूबे नें राजकुमार को बतौर अभिनेता अपनी फ़िल्म शाही बाज़ार में कास्ट कर लिया।

राजकुमार अपनी पुलिस की नौकरी छोड़ चुके थे और फ़िल्म शाही बाज़ार को बनने में काफ़ी वक़्त लग रहा था। ऐसे में उनको पैसे की तंगी होने लगी। इसलिए साल 1952 में रिलीज़ हुई फ़िल्म रंगीली में उन्होंने एक छोटा सा किरदार निभा डाला। फ़िल्म रंगीली कब सिनेमाघरों में लगी कब उतर गई किसी को पता भी नही चला। इसी बीच राजकुमार की शाही बाज़ार भी रिलीज़ हुई,लेकिन फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर बुरी तरह फ़्लॉप हो गई।

साल 1952 से 1957 तक राजकुमार फ़िल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए काफ़ी जद्दोजहद करते रहे। फ़िल्म रंगीली के बाद उन्हें जो भी किरदार मिला उसे वह निभाते चले गए। इस बीच राजकुमार नें 1952 में अनमोल सहारा, 1953 में अवसर, 1955 में घमंड, 1957 में नीलमणि, 1957 में ही कृष्ण सुदामा जैसी फ़िल्मो में काम किया, लेकिन यह सभी फ़िल्में फ़्लॉप साबित हुईं।


साल 1957 में रिलीज़ हुई मशहूर फ़िल्म निर्माता-निर्देशक महबूब ख़ान की फ़िल्म मदर इंडिया में राजकुमार को गांव के एक किसान का छोटा सा किरदार निभाने को मिला। हालांकि फ़िल्म मदर इंडिया की पूरी कहानी एक्ट्रेस नरगिस के इर्द गिर्द ही घूमती है। फिर भी इस फ़िल्म में राजकुमार अपने छोटे से किरदार के ज़रिए अपने दमदार अभिनय की छाप छोड़ने में क़ामयाब हुए। इस फ़िल्म की क़ामयाबी के बाद राजकुमार बतौर अभिनेता फ़िल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में क़ामयाब हो गए।

साल 1959 में रिलीज़ हुई फ़िल्म पैग़ाम में राजकुमार को हिंदी सिनेमा के ट्रेजिडी किंग कहे जाने वाले एक्टर दिलीप कुमार के साथ काम करने का मौका मिला, लेकिन राजकुमार इस फ़िल्म में भी अपने दमदार किरदार की वजह से दर्शकों का दिल जीतने में क़ामयाब हुए। इसके बाद राजकुमार नें 1960 में दिल अपना और प्रीत पराई, 1961 में घराना, 1963 में गोदान, 1964 में दिल एक मंदिर, 1964 में दूज का चांद जैसी क़ामयाब फ़िल्में हिंदी सिनेमा को दी।इसके बाद राजकुमार की हिंदी सिनेमा में वह हैसियत बन गई कि फ़िल्मों में अपना किरदार वह ख़ुद चुन लगे। राजकुमार की क़ामयाब फ़िल्मों में मदर इंडिया, पैग़ाम, वक़्त, नीलकमल, पाकीज़ा, मर्यादा, हीर रांझा, सौदाग़र, तिरंगा जैसी फ़िल्मो का शुमार किया जाता है।

साल 1965 में रिलीज़ हुई फ़िल्म काजल की ज़बर्दस्त क़ामयाबी के बाद राजकुमार ने बतौर अभिनेता अपनी एक नई पहचान बना ली। साल 1965 में रिलीज़ हुई मशहूर फ़िल्म निर्माता-निर्देशक बी.आर.चोपड़ा की फ़िल्म वक़्त में अपनी दमदार अदाकारी की वजह से वह एक बार फिर दर्शकों का दिल जीतने में कामयाब रहे। फ़िल्म वक़्त में राजकुमार का बोला गया एक डॉयलॉग "चिनाय सेठ जिनके घर शीशे के बने होते है वो दूसरों पे पत्थर नहीं फेंका करते” दर्शकों के बीच काफ़ी मशहूर हुआ था, फ़िल्म वक़्त की कामयाबी से राजकुमार शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुंचे। राजकुमार नें अपने आप को कभी किसी ख़ास किरदार में नही बांधा, इसलिए अपनी इन फ़िल्मों की क़ामयाबी के बाद भी उन्होंने 1967 में हमराज़, 1968 में नीलकमल, 1968 में ही मेरे हूज़ूर, 1970 में हीर रांझा' और 1971 में पाकीज़ा जैसी शानदार फ़िल्मों में मुख्तलिफ किरदार निभाए।यह सभी फ़िल्में बॉक्स ऑफ़िस पर सुपरहिट साबित हुईं।

साल 1971 में रिलीज़ हुई मशहूर फ़िल्म निर्माता-निर्देशक कमाल अमरोही की फ़िल्म पाकीज़ा पूरी तरह से मीना कुमारी के किरदार पर बेस्ड थी, फिर भी राजकुमार ने इस फ़िल्म में अपनी दमदार मौजूदगी दर्ज कराई। इस फ़िल्म में भी अपनी लाजवाब अदाकारी और अपने दमदार डॉयलॉग्स से उन्होंने दर्शकों से ख़ूब वाहवाली लूटी। फ़िल्म पाकीज़ा में राजकुमार का बोला गया एक डॉयलॉग "आपके पांव देखे बहुत हसीन हैं इन्हें ज़मीन पर मत उतारियेगा मैले हो जायेगें" इस क़दर मशहूर हुआ की लोग राजकुमार की आवाज़ की नकल करने लगे थे।

80 के दशक में राजकुमार नें फ़िल्मों में कैरेक्टर रोल निभाने शुरू कर दिए थे। उन्होंने 1981 में क़ुदरत, 1982 में धर्मकांटा, 1984 में राजतिलक, 1984 में ही शरारा, 1987 में मरते दम तक, 1989 में सूर्या, 1989 में ही जंगबाज़ और 1990 में पुलिस पब्लिक जैसी क़ामयाब फ़िल्मों में अपनी चरित्र भूमिका के ज़रिए भी दर्शकों में अपनी खूब धाक जमाई।

साल 1991 में रिलीज़ हुई जाने माने फ़िल्म निर्माता-निर्देशक सुभाष घई की फ़िल्म सौदाग़र में राजकुमार की दमदार अदाकारी का एक नया रंग और अंदाज़ दर्शकों को देखने को मिला। इस फ़िल्म में दिलीप कुमार और राजकुमार साल 1959 में आई फ़िल्म पैग़ाम के बाद दूसरी बार एक साथ काम कर रहे थे। फ़िल्म में दिलीप कुमार और राजकुमार जैसे दिग्गज एक्टर्स का टकराव देखने लायक़ था। फ़िल्म सौदाग़र में राजकुमार का बोला एक डॉयलॉग "दुनिया जानती है कि राजेश्वर सिंह जब दोस्ती निभाता है तो अफ़साने बन जाते हैं मगर जब दुश्मनी करता है तो इतिहास लिखे जाते है" आज भी सिनेमा प्रेमियों के दिलो-दिमाग़ में गूंजता है।

90 के दशक में राजकुमार ने फ़िल्मों मे काम करना बहुत कम कर दिया था। इस दौरान उन्होंने 1992 में तिरंगा, 1993 में पुलिस और मुजरिम, 1994 में बेताज बादशाह, 1995 में जवाब जैसी कुछ फ़िल्मों में काम किया। बिल्कुल अकेले रहने वाले राजकुमार ने शायद यह महसूस कर लिया था कि मौत उनके काफ़ी क़रीब है। इसीलिए अपने बेटे पुरू राजकुमार को उन्होंने अपने पास बुलाया और कहा, "देखो मौत और ज़िंदगी इंसान का निजी मामला होता है। मेरी मौत के बारे में मेरे दोस्त चेतन आनंद के अलावा और किसी को नहीं बताना। मेरा अंतिम संस्कार करने के बाद ही फ़िल्म इंडस्ट्री को इस ख़बर के बारे में बताना।

राजकुमार को फ़िल्म दिल एक मंदिर और वक़्त के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड दिया गया था। साल 1996 में भारत सरकार ने उन्हें फ़िल्म जगत के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फ़ाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया था। अपनी दमदार अदाकारी और संवाद अदायगी से तक़रीबन चार दशक तक अपने चाहने वालों के दिलों पर राज करने वाले राजकुमार नें 3 जुलाई 1996 को इस फ़ानी दुनिया को हमेशा-हमेशा के लिए अलविदा कह दिया।

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