पुण्यतिथि विशेषः गांधी का राजनीति में धार्मिक नैतिकता पर जाेर था
आज सारा संसार फिर से ‘हम और तुम’ के खाने में बंट गया है। मेरा धर्म तुम्हारे धर्म से बड़ा, मेरी जात तुम्हारी जात से ऊंची, मेरा गोरा रंग तुम्हारे काले रंग से बेहतर- जैसे संकीर्ण विचारों ने पूरी मानवता को एक बार फिर जकड़ लिया है। इस घनघोर अंधेरे को सिर्फ गांधीवाद ही रोशनी दे सकता है।
बीसवीं शताब्दी ऐसी थी जिसमें महान नेताओं का झुरमुट था। ऐसे नेता जिन्होंने न केवल अपने देशवासियों के लिए महान कार्य किए अपितु वे ऐसे थे जिन्होंने इतिहास रचा और मानवता की सेवा की। विशेषकर 1920 से 60 तक बल्कि उसके बाद के दशकों में ऐसे नेताओं की एक भीड़ नजर आती है जिन्हें युग पुरुष कहा जा सकता है। बड़े-बड़े क्रांतिकारी, आजादी की लड़ाई लड़ने वाले, यूरोप के फासीवाद से टक्कर लेने वाले और फिर विश्वयुद्ध के पश्चात यूरोप के पुनर्निर्माण में अपना योगदान देने वाले नेता इस शताब्दी में दिखाई पड़ते हैं।
अगर सोवियत यूनियन में कम्युनिस्ट क्रांति करने वाले लेनिन और स्टेलिन एक छोर पर हैं तो हिटलर के दांत खट्टे करने वाले विंस्टन चर्चिल जैसे चर्चित नेता दूसरे छोर पर खड़े नजर आते हैं। एशिया में तो मानो उसी समय में महान नेताओं का एक सैलाब था। एक ओर चीन में माओत्सेतुंग एक क्रांति लाने में जूझ रहे थे तो दूसरी ओर मोहनदास करमचंद गांधी भारत की जनता को अंग्रेजों के विरुद्ध गहरी नींद से जगाकर देश की आजादी के लिए तैयार कर रहे थे। फिर बाद के दशकों में वियतनाम में हो ची मीन और दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला अपने बलिदानों और संघर्ष से एक नया इतिहास रच रहे थे।
यह एक ऐसा युग था कि जिस युग में महापुरुषों की एक कतार थी जो अपने-अपने देशों के नवनिर्माण के लिए नए संघर्ष का इतिहास रच रहे थे। परंतु इन तमाम नेताओं के झुरमुट में मोहनदास करमचंद गांधी की एक अलग पहचान थी। वह लेनिन हों या चर्चिल, माओ हों या मंडेला, ये सब महान नेता जरूर थे। परन्तु मोहनदास करमचंद गांधी अकेले महापुरुष थे जिनको उनके देश की जनता ही नहीं, बल्कि सारा संसार महात्मा मान रहा था।
आखिर गांधीजी में ऐसी क्या अनूठी बात थी कि वह अकेले महात्मा थे जबकि बाकी सब केवल महान नेता थे। महात्मा तो साधारणतया धार्मिक नेताओं के साथ जुड़ी उपाधि होती है। इस शब्द का प्रयोग तो त्यागियों के साथ होता है। गांधीजी अपने समय के दूसरे महान नेताओं के समान अपनी जनता की आजादी की लड़ाई का नेतृत्व कर रहे थे। यही कार्य पड़ोस में माओ भी कर रहे थे। परन्तु उनके अनुयायियों ने उन्हें महात्मा नहीं माना, जबकि गांधीजी को भारतीय जनता महात्मा मान बैठी।
इसका सबसे पहला कारण यह है कि मोहनदास करमचंद गांधी जो संघर्ष कर रहे थे, उसमें उनके अपने लिए कुछ भी नहीं था। उनका संघर्ष और त्याग पूर्णतया अपनी जनता के लिए था। आप केवल उसी समय के लिए नहीं बल्कि शताब्दियों को उलट-पलट कर देख लें तो केवल मोहनदास करमचंद गांधी एक अकेला व्यक्ति दिखाई पड़ेगा जो अपने संघर्ष की सफलता के पश्चात स्वयं अपने लिए कुछ नहीं लेता। गांधीजी जब 1916 में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे, तब भी वह गांधी थे और साल 1947 में जब उन्होंने भारत को आजादी दिला दी, उस समय भी वह देश के न तो राष्ट्रपति बने थे और न ही प्रधानमंत्री।
हां, वह अब महात्मा अवश्य थे क्योंकि उनका बलिदान और संघर्ष निःस्वार्थ था जबकि लेनिन से लेकर माओ तक 20वीं शताब्दी का हर महापुरुष अपने संघर्ष की सफलता के पश्चात अपने देश के चरम पद पर था। परंतु गांधी सत्ता से परे देश की सेवा में वैसे ही लगे थे जैसे वह कभी अंग्रेजों से लड़ रहे थे। ऐसा ऐतिहासिक पुरुष महात्मा नहीं तो फिर क्या होगा?
परन्तु गांधीजी में केवल त्याग ही एक ऐसा अनूठा गुण नहीं था जिसने उनको महात्मा बनाया। गांधीजी अपने समय के विचारों से बिल्कुल अलग-थलग स्वयं अपनी सोच के एक ऐसे सरीखे नेता थे जिसका उदाहरण जल्द ढूंढे नहीं मिल सकता है। बीसवीं शताब्दी एक ऐसी शताब्दी है जिस समय में साधारणतया राजनीति को पूर्णतया धर्म से अलग कर विचार होता था। उस समय की ‘डाॅमिनेंट’ विचाराधारा यह थी कि राजनीति और धार्मिक नैतिकता दो अलग रास्ते हैं।
परंतु ऐसे समय में गांधीजी अकेले राजनीतिक व्यक्ति थे जिनका यह मानना था कि राजनीति धार्मिक नैतिकता के बिना नहीं होनी चाहिए। इस विषय में उनकी सोच संकीर्ण नहीं थी। वह धर्म को किसी एक समुदाय से नहीं जोड़ते थे बल्कि उनके लिए धर्म का अर्थ सत्य और अहिंसा था जो हर धर्म का निचोड़ था।
गांधीजी का सबसे बड़ा योगदान कदापि यही था कि उन्होंने भारतीयों को यह मानने पर मजबूर किया कि स्वतंत्रता संग्राम जैसा संघर्ष भी, किसी भी हिंसा के बिना होना चाहिए और उसका मार्ग उन्होंने ‘सत्याग्रह’ ढूंढा जो इस इक्कीसवीं शताब्दी में भी हर संघर्ष के समय भारतीयों के संघर्ष का रास्ता है। राजनीति को सत्य और अहिंसा जैसे धार्मिक मूल्यों से जोड़कर गांधीजी ने एक और अनूठा कार्य किया जिसने उनको महात्मा बना दिया।
परंतु क्या आज की तेज भागती दुनिया में भी गांधी जी की कोई ‘रेलिवेंस’ है। इस इक्कीसवीं शताब्दी में जब स्मार्ट फोन और रोबोटिक टेक्नोलाॅजी ने दुनिया को एक मुट्ठी में समेट दिया है, ऐसे युग में क्या गांधीजी मानवता के किसी काम आ सकते हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि आज विज्ञान और टेक्नोलाॅजी ने मानवता को प्रगति और उन्नति के जिस छोर पर पहुंचा दिया है, उसकी कल्पना भी आज से 20-25 साल पहले तक संभव नहीं थी। लेकिन इस प्रगति और उन्नति की होड़ में आज स्मार्ट फोन में खोया व्यक्ति तो है लेकिन उसमें मानवता का अंश बहुत कम है।
आज आदमियों की भीड़ तो है परंतु उस भीड़ में इंसान ढूंढ़ना कठिन है। क्योंकि इस सारी दौड़-भाग में वह त्याग और सत्य- जैसे मूल्यों से कटकर अपने हर्ष, उल्लास और आराम के साधन ढूंढ़ने में लगा है। तब ही तो सारे संसार में नफरत की राजनीति की एक लहर दौड़ रही है जिसमें डोनाल्ड ट्रंप, नरेंद्र मोदी और एर्दोगान जैसे नेता नफरत की आग फैला रहे हैं।
आज सारा संसार फिर ‘हम और तुम’ के खाने में बंट गया है। मेरा धर्म, तुम्हारे धर्म से बड़ा, मेरी जात तुम्हारी जात से ऊंची, मेरा गोरा रंग तुम्हारे काले रंग से बेहतर है- जैसे संकीर्ण विचारों ने पूरी मानवता को पुनः जकड़ लिया है। इस घनघोर अंधेरे को केवल गांधीवाद ही रोशनी दे सकता है। महात्मा गांधी की पुण्यतिथि के अवसर पर पुनः मानवता को सत्य और अहिंसा के मार्ग की आवश्यकता है जिस पर चलकर ही इंसान फिर से अपनी खोई मानवता प्राप्त कर सकता है। और जब-जब मानवता अपने मूल्य अर्थात मानवीय सत्य के मार्ग से हटकर केवल अपने स्वार्थ और केवल अपनी प्रगति में डूब जाएगी, तब-तब उसको गांधी जैसे महात्मा की ही आवश्यकता होगी। इसीलिए मोहनदास करमचंद गांधी 20वीं शताब्दी में भी महात्मा थे और आने वाले युगाों में भी महात्मा रहेंगे।
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