जन्मदिन विशेष: ...कहानी हिंदी सिनेमा के 'गुलज़ार' की, मोटर गैराज से निकले और फिर करोड़ों दिलों पर छा गए
1963 में आई बिमल रॉय की फ़िल्म बंदिनी में गुलज़ार को बतौर गीतकार काम करने का पहला मौक़ा मिला। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नही देखा। फ़िल्म बंदिनी में उनको पहला मौक़ा मिलने के पीछे का क़िस्सा भी बड़ा दिलचस्प है।
हिंदी सिनेमा के मशहूर गीतकार, राइटर और डॉयरेक्टर गुलज़ार आज अपना 89वां जन्मदिन मना रहें हैं। गुलज़ार का असल नाम सम्पूर्ण सिंह कालरा है, लेकिन जब से उन्होंने फ़िल्म इंडस्ट्री में काम करना शुरू किया, तब से उनका नाम गुलज़ार पड़ गया। गुलज़ार की पैदाइश आज ही के दिन यानी 18 अगस्त 1934 को पंजाब के झेलम शहर में हुई थी, जोकि अब पाकिस्तान का हिस्सा है। 1947 में हिंदुस्तान के बंटवारे के बाद उनका पूरा परिवार अमृतसर आकर बस गया था। गुलज़ार दिल्ली में रहकर अपनी पढ़ाई करने लगे। पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी की आस में वह बॉम्बे चले गए। फिर वहीं के होकर रह गए। बॉम्बे में शुरुआती दिनों में वह एक मोटर मैकेनिक का काम करते थे। यहां उन्हें गैराज में आई एक्सीडेंट से ख़राब हुई गाड़ियों के रंग रोग़न का काम दिया गया। इसी दौरान ख़ाली वक़्त में वह शेरो-शायरी और कविताएं भी लिखने लगे।
बॉम्बे में काम करने के दौरान गुलज़ार हर इतवार के दिन प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की मीटिंग में भी जाया करते थे। जहां उनकी उस ज़माने के बड़े-बड़े शायरों और कवियों से अच्छी जान पहचान हो गई। इसी दौरान उनकी मुलाक़ात गीतकार शैलेन्द्र, शायर अली सरदार ज़ाफ़री वगैरह से हुई। इस माहौल का गुलज़ार की शख़्सियत पर बहुत गहरा असर पड़ा। उसके बाद वह शेरो-शायरी और कविताओं की दुनिया में दिन बा दिन डूबते चले गए।
1963 में आई बिमल रॉय की फ़िल्म बंदिनी में उन्हें बतौर गीतकार काम करने का पहला मौक़ा मिला। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नही देखा। फ़िल्म बंदिनी में उनको पहला मौक़ा मिलने के पीछे का क़िस्सा भी बड़ा दिलचस्प है। हुआ ये था कि 1963 में फ़िल्म इंडस्ट्री के मशहूर फ़िल्म निर्माता-निर्देशक बिमल रॉय अशोक कुमार, नूतन और धर्मेंद्र को लेकर अपनी फ़िल्म बंदिनी बना रहे थे। इसके संगीतकार एस.डी. बर्मन थे, गीतकार शैलेन्द्र थे। इसी दौरान किसी बात को लेकर एस.डी.बर्मन और शैलेन्द्र में तीखी बहस हो गई। गीतकार शैलेंद्र नें फ़िल्म बंदिनी से अपने आप को अलग कर लिया, लेकिन अभी फ़िल्म का एक गाना लिखना बाकी रह गया था।
गीतकार शैलेंद्र इस बात से अच्छी तरह वाकिफ़ थे कि गुलज़ार भी अच्छी शेरो-शायरी करते हैं। वह कविताएं वग़ैरह भी लिखते हैं। चूंकी गुलज़ार से उनकी अच्छी दोस्ती थी, इसलिए उन्होंने गुलज़ार से कहा की आप जाकर बिमल रॉय से मिलिए और उन्हें अपने बारे में बताकर उनसे फ़िल्म बंदिनी में गीत लिखने की गुज़ारिश करिए। चूंकी गुलज़ार भी उस वक़्त फ़िल्मों में काम की तलाश में थे। गुलज़ार ने शैलेंद्र की बात फ़ौरन मान ली और जाकर बिमल रॉय से मुलाक़ात की। गुलज़ार ने जब अपने बारे में बिमल रॉय को बताया और साथ ही गीतकार शैलेंद्र की बात बताई तो वह तैयार हो गए। अब यह बात फ़िल्म के म्युज़िक डॉयरेक्टर रहे सचिन देव बर्मन को थोड़ी अजीब लगी कि बिमल रॉय जैसा दिग्गज डॉयरेक्टर अपनी फ़िल्म के लिए किसी ऐसे नए गीतकार से कैसे गीत लिखवा सकता है। लेकिन फ़िल्म के बनने में हो रही देरी की वजह से वह ख़ामोश ही रहे।
बिमल रॉय ने गुलज़ार को अपनी फ़िल्म की उस सिचुएशन के बारे में बताया जिस पर उन्हें गाना लिखना था। गुलज़ार ने जब सिचुएशन को अच्छी तरह से समझ लिया, तब उन्होंने वैष्णव भजन की तर्ज़ पर उस सिचुएशन के लिए मोरा गोरा अंग लइलें गाना लिखा, जिसे लेकर वह बिमल दा के पास पहुंचे। बिमल रॉय ने जब उस गाने को सुना तो उन्हें पहली ही बार में वह गाना बहुत पसंद आ गया। उन्होंने जब उस गाने को फ़िल्म के संगीतकार एस.डी.बर्मन को सुनाया तो वह भी गुलज़ार की कलम की तारीफ़ किए बिना नही रह पाए। उन्होंने उस गाने की शानदार धुन बनाई, जिसे उन्होंने सुरों की मलिका लता मंगेशकर से रिकॉर्ड करवाया।
जब फ़िल्म बंदिनी रिलीज़ हुई तो इस फ़िल्म के सभी गाने हिट हुए, जिसमे गुलज़ार का लिखा गाना भी सुपरहिट साबित हुआ। इसी फ़िल्म से गुलज़ार बतौर गीतकार हिंदी सिनेमा में अपनी पहचान बनाने में क़ामयाब हो गए। फ़िल्म बंदिनी ने 1964 के फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड्स में कुल 6 अवॉर्ड जीते, जिसमे बिमल रॉय को बेस्ट डॉयरेक्टर, नूतन को बेस्ट एक्ट्रेस के साथ फ़िल्म को मिला बेस्ट स्टोरी का अवॉर्ड भी शामिल है। साथ ही 1963 में फ़िल्म बंदिनी को उस साल की बेस्ट फ़िल्म का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरुस्कार भी मिला।
बिमल दा एक बहुत ही पारखी नज़र रखने वाले इन्सान थे। उन्होंने गुलज़ार के अंदर छिपे टैलेंट को पहचान लिया था। लिहाज़ा उन्होंने गुलज़ार के सामने बतौर अपने असिस्टेंट काम करने का प्रस्ताव रखा तो गुलज़ार बोले की उन्हें फ़िल्मों में गीत लिखने में कोई ख़ास दिलचस्पी नही है। उनकी यह बात सुनकर बिमल दा ने गुलज़ार से कहा की तुम चाहे गीत लिखो या मत लिखो मगर मैं तुम्हें अब उस मोटर गैराज में जाकर अपनी ज़िन्दगी बर्बाद करने नहीं दूंगा। उसके बाद गुलज़ार ने बतौर असिस्टेंट फ़िल्म डॉयरेक्टर बिमल रॉय की बहुत सी फ़िल्मों में उनके साथ काम किया और उसके गीत भी लिखे। बाद में उन्होंने मशहूर फ़िल्म डॉयरेक्टर हेमंत कुमार और ऋषिकेश मुखर्जी के साथ भी बतौर अस्सिटेंट काम किया। यही वजह रही की गुलज़ार ने उसके बाद कई सफल फ़िल्मों का निर्देशन भी किया। इसके साथ ही फ़िल्म इंडस्ट्री ने उनके अंदर के एक शानदार डॉयरेक्टर को भी देखा।
गुलज़ार आज फ़िल्म इंडस्ट्री में अपनी एक अलग पहचान रखते हैं। वह एक बहुत ही आला दर्जे के गीतकार होने के साथ-साथ एक शानदार राइटर और फ़िल्म डॉयरेक्टर भी हैं। उन्होंने अब तक 10 फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड्स अपने नाम किए हैं। इसके अलावा उन्हें साल 2002 में साहित्य अकादमी अवॉर्ड से भी नवाजा गया। साल 2004 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से भी नवाज़ा। साल 2009 में डैनी बॉयल की फ़िल्म स्लमडॉग मिलिनेयर में उनके लिखे गाने ‘जय हो’ के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीतकार का ऑस्कर अवॉर्ड भी मिल चुका है। इसी गीत के लिए उन्हें 2010 में ग्रैमी अवॉर्ड से भी नवाज़ा गया। साल 2013 में उन्हें फ़िल्म इंडस्ट्री के सबसे बड़े पुरस्कार दादा साहब फ़ाल्के अवॉर्ड से भी नवाज़ा गया।
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