जयंती विशेष: अल्पसंख्यकों पर जुल्म करने वाले जनतंत्र के खिलाफ थे जवाहर लाल नेहरू
नेहरू अपने किसी भी रूप में, कहीं भी अपने अनुयायियों, प्रशंसकों या विरोधियों को ऐसी कोई छूट देते नजर नहीं आते जिससे वह किसी भी स्तर पर उन्हें अपने पोंगापंथी, प्रतिगामी, परंपरावादी और संप्रदायवादी का तनिक भी पैरोकार साबित कर पाएं
एक सुखद स्मृति से बात शुरू करते हैं। 1982 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जीवन और कर्म पर आधारित रिचर्ड एटनबरो की बहुचर्चित फिल्म ‘गांधी’ प्रदर्शित हुई, तो उसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म के पुरस्कार के साथ आठ और ऑस्कर अवॉर्ड मिले थे। उत्कृष्ट निर्देशन के लिए रिचर्ड एटनबरो को और बापू की उत्कृष्ट भूमिका निभाने के लिए अभिनेता बेन किंग्सले को भी ऑस्कर पुरस्कार दिया गया था।
लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि बापू पर ऐसी फिल्म बनाने का विचार रिचर्ड एटनबरो के दिल और दिमाग में अरसे से पलता आ रहा था। इसे लेकर वह पंडित जवाहरलाल नेहरू से भी मिल चुके थे। अपने जीवन के अंतिम दौर में हुई उस मुलाकात में नेहरू ने उन्हें अन्य कई सीखों के अलावा यह हिदायत दी थी कि वह जब भी यह फिल्म बनाएं, बापू को देवता की तरह नहीं, मनुष्य की तरह ही चित्रित करें।
बापू के व्यक्तित्व के बारे में रिचर्ड एटनबरो को दी गई हिदायत को खुद नेहरू के व्यक्तित्व पर लागू करें, तो उसके कई अनूठे आयाम सामने आते हैं। कोई मनुष्य अगर देवता नहीं है या मनुष्य बने रहने के लिए देवता होना ही नहीं चाहता, तो उसके संदर्भ में यह स्वाभाविक भी है। खासकर जब नेहरू जैसा मनुष्य होना भी आसान नहीं जिसकी जड़ें आधुनिक भारतीय राष्ट्र-राज्य यानी संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में भारत के वास्तुकार से लेकर ‘बच्चों के चाचा’ होने तक फैली हुई हैं। भले ही उनकी सुंदर प्रतिमा को धूल-धूसरित या विकृत करने की कोशिशें उसके प्रयाण के इतने दशकों बाद भी खत्म होने को आने के बजाय बढ़ती जा रही हैं।
हां, नायकत्व के मद्देनजर विचार करें, तो उनके जैसे नायक के लिए मनुष्य होना और भी स्वाभाविक लगता है जिसकी विचारधारा या पक्षधरता में कोई झोल ढूंढे न मिलता हो और द्वैधों व द्वंद्वों से लाभ उठाना चाहने वालों को जिसमें अपने लिए कोई संभावना ही नजर नहीं आती हो।
यकीनन नेहरू अपने किसी भी रूप में, कहीं भी अपने अनुयायियों, प्रशंसकों या विरोधियों को ऐसी कोई छूट देते नजर नहीं आते जिससे वह किसी भी स्तर पर उन्हें अपने पोंगापंथी, प्रतिगामी, परंपरावादी और संप्रदायवादी का तनिक भी पैरोकार साबित कर पाएं।
स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान वह जिन मूल्यों के साथ रहे और प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने जैसे आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष और बहुलतावादी भारत का निर्माण करना चाहा, उससे जुड़े उनके विचारों की यह कहकर तो आलोचना संभव है कि कई मामलों में वह कम्युनिस्टों के साथ खड़े दिखने लगते हैं। हालांकि कई लोग इसकी उलटी बात भी कहते हैं लेकिन यह कहकर नहीं कि उनकी प्रगतिशीलता में कहीं कोई लोचा है।
आज यह जानना बेहद दिलचस्प है कि जिस धर्मनिरपेक्षता को कुछ लोग संविधान की प्रस्तावना में भी बरदाश्त नहीं करना चाहते, नवस्वतंत्र देश में सर्वोत्कृष्ट संवैधानिक मूल्य के रूप में उसकी प्रतिष्ठा के लिए नेहरू ने तत्कालीन हिन्दू महासभाइयों और कांग्रेस के भीतर के गोविन्द वल्लभ पंत और पुरुषोत्तमदास टंडन जैसे संकीर्णतावादियों के बीच के उच्चस्तरीय सहयोग और गठजोड़ से जमकर लोहा लिया था।
देश के विभाजन के बाद हिन्दू महासभा और संघ को पक्का विश्वास था कि वे देश की नई सांप्रदायिक स्थिति को अपने पक्ष में इस्तेमाल कर लेंगे। महात्मा गांधी की हत्या का दांव उलटा पड़ा था, फिर भी कांग्रेस के भीतर के अपने 'शुभचिंतकों' से उन्हें ढेरों उम्मीदें थीं। ये उम्मीदें फलीभूत होती भी दिखीं जब अयोध्या में 22-23 दिसंबर 1949 की रात षडयंत्रपूर्वक बाबरी मस्जिद में मूर्तियां रख दिए जाने के मामले में यूपी के प्रीमियर गोविन्द वल्लभ पंत ने सरदार पटेल और टंडन की शह से हेकड़ीपूर्वक नेहरू की अवज्ञा शुरू कर दी। लेकिन इस अवसर पर नेहरू ने खासी राजनीतिक परिपक्वता से काम लिया।
17 अप्रैल 1950 को उन्होंने पंत को लिखा, ‘मैं पा रहा हूं कि सांप्रदायिकता आज उन लोगों के दिलो-दिमाग में भी प्रवेश कर चुकी है जो इससे पहले कांग्रेस के स्तंभ हुआ करते थे। यह धीरे-धीरे बढ़ता हुआ लकवा है जिसे बीमार समझ भी नहीं पा रहा।’ साथ ही उन्होंने लिखा कि एक दिन वह इसके विरुद्ध अपनी पूरी शक्ति से अभियान शुरू करेंगे। दो मई 1950 को उन्होंने सारे मुख्यमंत्रियों को लिखा, ‘हम संप्रदायों के बीच एकता का उद्देश्य भूल गए हैं। धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं, पर उसे बहुत कम समझ पाए हैं।’
फिर भी बात नहीं बनी, तो उन्होंने और सख्ती से काम लिया। 8 अगस्त 1950 को सीधे पुरुषोत्तमदास टंडन को लिखा, ‘आप भारत में लोगों की बड़ी संख्या के लिए सांप्रदायिक और पुरातनपंथी दृष्टि के प्रतीक बन गए हैं।’ इसलिए कृपया कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव न लड़ें। 28 अगस्त को सरदार पटेल को पत्र लिखकर टंडन के प्रति अपने एतराजों के कारण बताए।
फिर भी टंडन अगस्त 1950 में हुआ कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ा। जीते तो संघ और हिन्दू महासभा की बांछें खिल गईं। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने उनकी जीत पर संतोष जताया और संघ के अंग्रेजी मुखपत्र ‘आर्गनाइजर’ ने अपने 11 सितंबर 1950 के अंक में लिखा कि यह कांग्रेस के ‘गांधी प्लस नेहरू’ समीकरण की पराजय और ‘गांधी प्लस पटेल’ समीकरण की जीत है।
इसके बाद नेहरू की चुनौतियां खासी विकट हो गईं लेकिन वह ऐसे ही नेहरू नहीं बन गए थे। जल्दी ही उन्होंने बाजी पलट दी। सितंबर 1950 में टंडन की बल्ले-बल्ले के बीच नासिक में कांग्रेस का सम्मेलन हुआ, तो नेहरू ने उसके मंच से आर या पार की शैली में कई कड़ी और खरी बातें कहीं। यह दो टूक बात भी कि ‘पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर जुल्म हो रहे हैं, तो क्या हम भी यहां वही करें? यदि इसे ही जनतंत्र कहते हैं, तो भाड़ में जाए ऐसा जनतंत्र!’ उन्होंने सम्मेलन के प्रतिनिधियों से कहा, ‘यदि आप मुझे प्रधानमंत्री के रूप में चाहते हैं, तो आपको बिना शर्त मेरे पीछे चलना होगा। नहीं चाहते, तो वैसा साफ-साफ कहें। मैं पद छोड़ दूंगा और कांग्रेस के आदर्शों के लिए स्वतंत्र रूप से लड़ूंगा।’ तीर निशाने पर लगा और उन्होंने न सिर्फ प्रतिनिधियों का विश्वास जीत लिया बल्कि भारत में धर्मनिरपेक्षता का भविष्य भी तय कर दिया। तब ‘न्यूयार्क टाइम्स’ ने अपने 22 सितंबर 1950 के अंक में लिखा, ‘अब तय हो गया है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनने की ओर ही बढ़ेगा।’
इतिहास गवाह है, इसके बाद मजबूर टंडन को कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा और 1952 के आम चुनाव में देश के मतदाताओं ने भी नेहरू की धर्मनिरपेक्ष नीतियों पर मुहर लगाकर न सिर्फ हिन्दू महासभा बल्कि सारे संप्रदायवादियों को औकात बता दी। कुछ ऐसे कि वे लंबे समय तक कोई मंसूबा ही नहीं बांध सके।
(कृष्ण प्रताप सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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