गांधीजी की शहादत के 70 साल: साम्प्रदायिकता के खिलाफ उनके अथक अभियान को याद रखना जरूरी
साम्प्रदायिकता के मसले पर गांधी बमुश्किल ही किसी समझौते के लिए तैयार दिखते हैं।साम्प्रदायिकता के खिलाफ गांधी के अथक अभियान के बेशकीमती उदाहरण को अक्सर अनदेखा करता हुआ देश बहुत निराश करता है।
गांधी लगभग 79 साल के थे जब उनकी हत्या कर दी गई। उस घटना के 70 साल पूरे हो गए हैं। गांधी की उम्र के ये 149 वर्ष न सिर्फ भारतीय जीवन में, बल्कि पूरी दुनिया के नक्शे में एक निर्णायक और स्थायी छाप की तरह मौजूद हैं।
विभाजन की त्रासदी से उपजे साम्प्रदायिक उन्माद के खिलाफ संघर्ष करते हुए अपनी जिंदगी के आखिरी 144 दिन उन्होंने दिल्ली में गुजारे थे। उन दिनों बिड़ला हाउस (भवन) उनकी रिहायश थी, जहां उनकी हत्या की गई। आज वह जगह गांधी स्मृति, 5, तीस जनवरी लेन है। 15 अगस्त, 1973 से वह जगह आम लोगों के अवलोकन के लिए खुली हुई है। इसमें कोई शक नहीं कि गांधी की हत्या आजाद भारत की सेकुलर कल्पना पर साम्प्रदायिक विचारधारा का एक हमला था।
1947-48 की दिल्ली को साम्प्रदायिक उन्माद ने एक चीख में तब्दील कर दिया था। निश्चित तौर पर, इन स्थितियों के पीछे अमानवीय कृत्यों और क्रूरतम अपराधों की एक पूरी श्रृंखला थी, जिसे सुनकर वे यहां पहुंचे थे। 9 सितंबर, 1947 को अपने दिल्ली आगमन से लेकर 30 जनवरी, 1948 को अपनी मृत्यु तक उन्होंने पूरा वक्त इस शहर में साम्प्रदायिक समरसता और शांति स्थापना के प्रयासों को समर्पित कर दिया। उन्हें पता था कि ’बहुसंख्यक कट्टरता’ हमेशा ज्यादा खतरनाक होती है, शायद इसलिए ही उस हालात में, जिसमें मुसलमानों के लिए दिल्ली में रहना मुश्किल और असुरक्षित हो गया था, उनकी न्यायपूर्ण पक्षधरता स्वभाविक रूप से मुसलमानों के साथ थी।
दिल्ली के मुसलमानों ने इसे ‘सूखे धानों में पानी’ की तरह देखा। ‘दिल्ली अब बच जायेगा’, ‘मुसलमान अब बच जायेंगे’ जैसी बातें पुराने शहर में लोग एक-दूसरे से कहते पाए गए और ये सच भी साबित हुआ, गांधी के दिल्ली पहुंचने के बाद से दंगे की कोई बड़ी घटना नही हुई। 13 सितंबर को वे पुराना किला स्थित शरणार्थी शिविर पहुंचे, जहां मुसलमान बदतर हालात में जीवन व्यतीत कर रहे थे और अचानक सरकार हरकत में आ गई। मुसलमानों के साथ ’अपने’ नागरिकों जैसा व्यवहार किया जाने लगा और उन्हें तमाम सुविधाएं और सुरक्षा मुहैया कराई गईं। अक्टूबर, 1947 में एक प्रार्थना सभा में गांधी ने कहा, “दिल्ली का एक विशेष इतिहास है। इस इतिहास को मिटाने की कोशिश करना भी एक पागलपन होगा।” दिल्ली पर लिखते हुए लेखकों ने उस इतिहास की ‘खासियत’ पर ध्यान देना शायद उतना जरूरी नहीं समझा है।
फिरभी, दिल्ली में हिंसक घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रही थीं। 20 दिसंबर, 1947 को गांधी ने लगभग झल्लाते हुए लिखा, “यदि यह हमारी इच्छा है कि मुसलमान भारत छोड़ दें तो ये हमें साफ-साफ कहना चाहिए या सरकार को ये ऐलान कर देना चाहिए कि भारत में मुसलमानों का रहना सुरक्षित नहीं है।” हालात ऐसे ही थे और गांधी ने अपना सबसे कामयाब तरीका अपनाया।
13 जनवरी, 1948 को उन्होंने आमरण अनशन शुरू कर दिया। नेहरू, ‘द स्टेट्समैन’ के पूर्व संपादक आर्थर मूर और हजारों अन्य लोग गांधी के साथ अनशन पर बैठ गए, जिसमें हिंदुओं और सिखों की एक बड़ी तदाद थी और उनमें से कई तो पाकिस्तान से आये शरणार्थी थे। 12 जनवरी को महात्मा गांधी की प्रार्थना सभा में एक लिखित भाषण पढ़कर सुनाया गया, क्योंकि गांधी ने मौन धारण कर रखा था।
“कोई भी इंसान जो पवित्र है, अपनी जान से ज्यादा कीमती चीज कुर्बान नहीं कर सकता। मैं आशा करता हूं कि मुझमें उपवास करने लायक पवित्रता हो। उपवास कल सुबह (मंगलवार) पहले खाने के बाद शुरू होगा। उपवास का अरसा अनिश्चित है। नमक या खट्टे नींबू के साथ या इन चीजों के बगैर पानी पीने की छूट मैं रखूंगा। तब मेरा उपवास छूटेगा जब मुझे यकीन हो जाएगा कि सब कौमों के दिल मिल गए हैं और वह बाहर के दबाव के कारण नहीं, बल्कि अपना धर्म समझने के कारण ऐसा कर रहे हैं।”
इस अनशन का असर चमत्कारिक था। दिल्ली में जगह-जगह गांधी के समर्थन में लोग जुटने लगे। 15 जनवरी, 1948 को हुए एक सार्वजनिक सभा में करोल बाग के निवासियों ने गांधीजी को विश्वास दिलाया कि वे उनके आदर्शों में आस्था रखते हैं और उन्होंने एक शांति ब्रिगेड बनाकर घर-घर जाकर अभियान चलाया। श्रमिकों की एक सभा में, जहां रेलवे, प्रेस आदि के प्रतिनिधि मौजूद थे, ये संकल्प लिया गया कि विभिन्न समुदायों के बीच अच्छे संबंध स्थापित करने के काम में वे तुरंत जुट जाएंगे। इस सभा को हुमायूं कबीर ने भी संबोधित किया था। प्रिंसिपल एनवी थडानी की अध्यक्षता में दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों और छात्रों की एक बैठक हुई और प्रस्ताव पास किया गया कि शहर में साम्प्रादायिक सौहार्द स्थापित करने के लिए वे अपना योगदान देंगे। नेहरू पार्क में हुई बैठक में नागरिकों से अनुशासित रहने की अपील की गई।
बिड़ला हाउस में ही 17 जनवरी को नेहरू ने अपने सार्वजनिक भाषण में कहा, “जब से मुझे महात्मा गांधी के उपवास पर जाने की जानकारी मिली है, न मैंने उन्हें उपवास न करने के लिए कहा है और न इस पर पुनर्विचार करने के लिए, क्योंकि मैं जानता हूं कि वे क्या चाहते हैं। ये अवाम पर है कि वह अपने कर्तव्य का पालन ठीक से करे और केवल तब ही उनको उपवास बंद करने के लिए राजी किया जा सकता है।”
विभिन्न संगठनों के 100 से ज्यादा प्रतिनिधि, जिनमें हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जमायते-उलेमा के सदस्यों के अलावा कई अन्य लोग थे, 18 जनवरी 1948 को सुबह 11.30 बजे गांधीजी से मिले और शांति के लिए गांधीजी ने जो शर्ते रखी थीं, उसे स्वीकार किया और ‘शांति शपथ’ प्रस्तुत किया। इसके बाद गांधीजी ने उपवास के अंत की घोषणा की। उसी दिन एक शांति कमेटी की स्थापना की गई, जिसमें हिंदू, सिख, मुसलमान और अन्य धार्मिक मतों और संगठनों के 130 प्रतिनिधि शामिल थे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, जो इस शांति कमेटी के आयोजक थे, ने गांधीजी को आश्वासन दिया कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा, आर्थिक भी नहीं। दिल्ली की मस्जिदें मुसलमानों को वापस कर दी जाएंगी और पाकिस्तान चले गए मुसलमान अगर वापस आना चाहें तो उन्हें पूरी सुविधा प्रदान की जाएगी। ख्वाजा कुतुबद्दीन की दरगाह में उर्स का मेला भी हर साल की तरह लगेगा और मुसलमानों के धार्मिक उत्सवों में किसी भी किस्म का अवरोध नहीं आने दिया जाएगा। साम्प्रदायिक एकता स्थापित करने के उद्देश्य से प्रेरित गांधीजी का ये अंतिम उपवास पांच दिनों तक चला, जिसकी वजह से मुसलमान अपने घरों को लौटने लगे थे।
गांधी की हत्या की योजना भी इसी बीच तैयार हो रही थी। 20 जनवरी, 1948 को बिड़ला हाउस में प्रार्थना सभा के दौरान गांधी की हत्या का असफल प्रयास किया गया और 10 दिन बाद उनकी हत्या कर दी गई। सफल और असफल दोनों प्रयास हिंदु कट्टरपंथियों के थे। लेकिन, उनकी हत्या से वह हो गया जो उनके अनशन से भी नही हो पाया था, मुसलमानों के लिए ‘दुनिया ही बदल गई।’ हिंदु-मुस्लिम हिंसा पूर्णतः समाप्त हो गई थी। लोगों को डर था कि देश में सेकुलर तत्व कमजोर हो जाएंगे, लेकिन हुआ इसका उलटा - सरकार को मजबूर होकर साम्प्रदायिक शक्तियों और संगठनों के खिलाफ कड़ा रुख अख्तियार करना पड़ा।
लेखकों ने गांधी की कई राजनीतिक गतिविधियों के लिए उनकी आलोचना की हैं। वर्गीय दृष्टि से गांधी का मूल्यांकन करते हुए लोगों ने उन्हें संघर्ष को समन्वय की दिशा देने की कोशिश करने वाले शासक वर्ग के प्रतिनिधि के तौर पर भी देखा है। लेकिन, साम्प्रदायिकता के मसले पर गांधी बमुश्किल ही किसी समझौते के लिए तैयार दिखते हैं। इस देश की आबोहवा में साम्प्रदायिक डर का एक ऐसा रंग घुला हुआ है जो जब-तब फैल जाता है और कई बार ये आत्मरक्षा की जगह आत्मग्लानि की चेतना पैदा करता है। कवियों के कवि शमशेर बहादुर सिंह ने कभी ’निराला’ के लिए लिखा था - ‘भूलकर जब राह- जब-जब राह...भटका मैं/तुम्हीं झलके, हे महाकवि।’ साम्प्रदायिकता के खिलाफ गांधी के अथक अभियान के इस बेशकीमती उदाहरण को अक्सर अनदेखा करता हुआ देश बहुत निराश करता है।
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