स्वतंत्र लेखन के 50 वर्ष पूरे, सार्थक बदलाव की यह जंग बदस्तूर रहेगी जारी

समाज, देश और दुनिया को सार्थक बदलाव के लिए नए विचारों और नई सोच के लिए अधिक जगह बनानी चाहिए। आज जब गंभीर गलतियों के कारण धरती की जीवनदायिनी क्षमता ही गंभीर रूप से संकटग्रस्त हो गई है, तो यह बहुत जरूरी हो गया है कि नई सोच को, नए विचारों को अधिक जगह मिले।

फोटोः प्रतीकात्मक
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भारत डोगरा

हाल ही में मैंने स्वतंत्र लेखन के 50 वर्ष पूरे किए। इसमें कोई बड़ी बात तो नहीं है, पर लोकतंत्र में स्वतंत्र लेखन के महत्त्व को देखते हुए ये अनुभव साझा करने योग्य हो जाते हैं।

1970 के दशक में जब मैंने यह निर्णय लिया कि मुझे जीवन भर कहीं नौकरी न कर एक स्वतंत्र लेखक के रूप में ही जीवन-निर्वाह करना है, तब शायद मुझे स्वयं पूरा विश्वास नहीं था कि मैं इस निश्चय को जीवन भर निभा सकूंगा। पर किसी तरह यह निश्चय अभी तक तो निभ ही गया है, और आगे तो इससे हटने की कोई वजह बहुत कम ही नजर आती है।

तो कैसा रहा है यह 50 वर्ष का सफर, एक स्वतंत्र लेखक के रूप में जीवन-यात्रा।

वैसे यह लेखकीय जीवन-यात्रा आरंभ करने से पहले भी मैं 4 वर्ष तक एक छात्र के रूप में पैट्रायट, टाईम्स ऑफ इंडिया आदि समाचार पत्रों में लिखता रहता था। पर उस समय मैंने मुख्य रूप से सिनेमा के गंभीर अध्ययन पर ही लिखा था। अब पूर्णकालीन लेखन अपनाने पर यह सवाल सामने आया कि जब जीवन-भर लेखन ही करना है तो सबसे सार्थक विषय क्या चुनना चाहिए।

उस समय की मेरी समझ के अनुसार तो मुझे यही लगा कि गरीबी और इससे जुड़े विषय ही सबसे महत्त्वपूर्ण हैं। अतः इस पर ध्यान केन्द्रित करना ही सबसे उचित है। कुछ समय बाद मुझे अपने सरोकार अधिक व्यापक करना जरूरी लगने लगा। जब चिपको आंदोलन पर उत्तराखंड से रिपोर्टिंग की, तो पर्यावरणीय विषयों का महत्त्व बेहतर ढंग से समझ में आया। इस आंदोलन के गांधीवादी कार्यकर्ताओं से संबंध बढ़ने पर उन्हांने मुझे शराब और नशे के विरोध का महत्व समझाया।

इस तरह अनेक मित्रों और साथियों से सीखते हुए अंत में मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि दुख-दर्द के जो भी कारण हैं, वे सभी लेखन का विषय बनने चाहिए। इसके साथ यह भी सीखा कि केवल मनुष्य के दुख-दर्द की चिंता नहीं होनी चाहिए। सभी जीव-जंतुओं के दुख-दर्द के बारे में सोचना चाहिए। दूसरी बात यह भी सीखी कि केवल इस पीढ़ी की नहीं आगामी पीढ़ियों के दुख-दर्द की भी चिंता करना जरूरी है।


इस दूसरी बात पर अधिक अध्ययन-चिंतन किया तो यह समझ में आया कि आगामी समय की दृष्टि से देखें तो धरती की जीवनदायिनी क्षमताएं ही खतरे में पड़ रही हैं- कुछ तो अति गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं (जैसे जलवायु बदलाव) के कारण और कुछ महाविनाशक हथियारों (जैसे परमाणु हथियारों) के कारण। जैसे-जैसे इन समस्याओं की अति गंभीरता समझ आई, वैसे-वैसे इस पर मैंने अधिक ध्यान केंद्रित किया और अपनी नई पुस्तकों का विषय भी बनाया। ‘धरती रक्षा अभियान’ भी आरंभ किया।

हालांकि, हिंदी और अंग्रेजी दोनों के समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में मैंने लिखा। लगभग 10,000 लेख प्रकाशित हुए, फिर भी यह जरूरत महसूस होती रही कि अधिक समग्र लेखन पुस्तक-पुस्तिकाओं के रूप में किया जाए। मेरी पत्नी मधु और हमारी बेटी रेशमा भारती ने वैसे तो सभी कार्यों में भरपूर सहयोग दिया, पर पुस्तक-पुस्तिकाओं के इस कार्य में उनका विशेष महत्त्वपूर्ण सहयोग रहा। इस तरह लगभग 400 छोटी-बड़ी पुस्तक-पुस्तिकाओं का प्रकाशन हमारी कुटीर स्तर के प्रकाुंशन ‘सोशल चेंज पेपर्स’ से हो सका।

आर्थिक कठिनाईयां प्रायः बनी ही रहीं और इन्हें कम करने के लिए मैंने कई प्रयास किए जैसे प्रेस क्लिपिंग सर्विस निकाली, अनेक संस्थानों के लिए डाक्यूमेंटेशन और अनुवाद कार्य किए।खैर, कठिनाईयां आती रहीं तो कुछ राह भी निकलती रही। कुल मिलाकर, अभी तक का 50 वर्ष का यह स्वतंत्र लेखन का सफर तय हो सका। अब इस कार्य के साथ-साथ ‘धरती रक्षा अभियान’ की नई जिम्मेदारी भी मेरे साथ है। वृद्धावस्था में कितना हो सकेगा, कहां तक पहुंच सकेंगे कमजोर होते हाथ, पता नहीं, पर इतना जरूर पता है कि अंतिम समय तक हमारे प्रयास में कमी नहीं आएगी।

साथ में दिल की गहराई से आभार प्रकट करना जरूरी है उन सभी मित्रों, साथियों, आंदोलनकारियों के प्रति, संपादकों के प्रति जिनके सहयोग से यह जीवन यात्रा तय हो सकी और इस दौरान उन सब से बहुत कुछ सीखने को मिला जो बहुमूल्य रहा।


सार्थक बदलाव पर स्वतंत्र लेखन का अर्थ यह है कि देश-दुनिया की महत्त्वपूर्ण समस्याओं का अध्ययन करना, उनके समाधान के बारे में अध्ययन-चिंतन करना और इसे ही अपने लेखन का मुख्य उद्देश्य व आधार बनाना। यह कार्य वैसे तो बहुत सार्थक है, पर इसे निरंतरता से करने में अनेक कठिनाईयां भी हैं। एक कठिनाई तो फिलहाल यह रहेगी ही कि इस कार्य को निरंतरता से करते हुए जीवन-यापन करना सरल नहीं है। पर इस कठिनाई को किसी तरह सुलझा लिया जाए तो इससे भी कहीं पेचीदा समस्याएं लेखक के सामने आ सकती हैं।

जब ऐसा लेखक (जो सार्थक बदलाव पर लिखने के लिए प्रतिबद्ध है) पूरी ईमानदारी से समस्याओं का विश्लेषण कर समाधान की ओर बढ़ता है, तो कई बार उसका अनुभव यह रहता है कि पूरी ईमानदारी से इन समाधानों और सार्थक बदलाव के बारे में लिखने पर लेखन के प्रकाशन की संभावनाएं कम हो जाती हैं। दूसरी ओर यदि प्रचलित सोच के साथ समझौता कर लिखा जाए तो प्रकाशित होने की संभावना बढ़ जाती है।

इस स्थिति में लेखक-लेखिका के लिए बहुत दुविधा होती है कि वह क्या करें? कुछ विचार ऐसे होते हैं जो किसी समय समाज को बहुत महत्त्वपूर्ण नई दिशा दे सकते हैं, पर फौरी तौर पर उनका मजाक भी उड़ सकता है या उन्हें अव्यवहारिक मान कर उपेक्षित किया जा सकता है। जिन विचारों को बहुत शक्तिशाली तत्त्व स्वीकार नहीं कर सकते हैं उन्हें सामने लाने वाले लेखक को प्रकाशन का स्थान मिलना ही कठिन हो जाता है।

किसी लेखक की इन समस्याओं को कैसे सुलझाया जाए, यह तो निश्चित नहीं है पर इतना स्पष्ट है कि समाज, देश और दुनिया को सार्थक बदलाव के लिए नए विचारों की, नई सोच की अधिक जगह बनानी चाहिए क्योंकि इसकी बहुत जरूरत है। आज जब गंभीर गलतियों के कारण धरती की जीवनदायिनी क्षमता ही गंभीर रूप से संकटग्रस्त हो गई है, तो यह बहुत जरूरी हो गया है कि नई सोच को, नए विचारों को अधिक जगह मिले।

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