जयंती विशेष: बेग़म अख़्तर जब ट्रेन में ही हारमोनियम निकालकर इस मशहूर ग़ज़ल की बनाने लगीं धुन, पढ़िए पूरा किस्सा

बेगम अख़्तर की आख़िरी तमन्ना थी, कि वह अपनी ज़िंदगी के आख़िरी समय तक गाने गाती रहें, जो पूरी भी हुई। निधन से आठ दिन पहले उन्होंने मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी की एक ग़ज़ल रिकॉर्ड की थी।

मल्लिका-ए-ग़ज़ल बेग़म अख़्तर की आज 109वीं जयंती है।
मल्लिका-ए-ग़ज़ल बेग़म अख़्तर की आज 109वीं जयंती है।
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अतहर मसूद

हिंदुस्तान की मशहूर दादरा, ठुमरी और ग़ज़ल गायिका, पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित मल्लिका-ए-ग़ज़ल बेग़म अख़्तर की आज 109वीं जयंती है। उन्हें अख़्तरी फ़ैज़ाबादी के नाम से भी जाना जाता है। बेग़म अख़्तर की पैदाइश आज ही के दिन यानी 7 अक्टूबर 1914 को उत्तर प्रदेश में फ़ैज़ाबाद जिले के छोटे से क़स्बे भदरसा में हुई थी। बचपन से ही उनका संगीत में बहुत मन लगता था। वह संगीत सीखना चाहतीं थीं, लेकिन उनके परिवार वाले उनकी इस इच्छा के खिलाफ थे। बेग़म अख़्तर के चचा ने उनकी क़ाबलियत को पहचाना। उन्होंने बेग़म अख़्तर को संगीत सीखने के लिए प्रेरित किया।

बेग़म अख़्तर ने फ़ैज़ाबाद में सारंगी के उस्ताद इमान ख़ाँ और अता मोहम्मद ख़ान से संगीत की प्रारंभिक शिक्षा ली। इसके बाद उन्होंने मोहम्मद ख़ान और अब्दुल वहीद ख़ान से भारतीय शास्त्रीय संगीत सीखा। एक बार की बात है कि उस्ताद मोहम्मद ख़ान से बेग़म अख़्तर ने संगीत सीखने से मना कर दिया था। हुआ यह था कि बेग़म अख़्तर किसी सुर को बार-बार लगाने के बाद भी उसे सही तरह से नहीं लगा पा रहीं थीं। तब उनके उस्ताद ने उन्हें ज़ोर की डांट लगाई। डांट सुनकर बेग़म अख़्तर रोने लगीं और बोलीं, "हमसे नहीं होता नाना जी, मैं गाना नहीं सीखूंगी"। तब उनके उस्ताद ने कहा, "बस इतने में हार मान ली तुमने, नहीं बिट्टो ऐसे हिम्मत नहीं हारते, मेरी बहादुर बिटिया चलो एक बार फिर से सुर लगाने में जुट जाओ"। उनकी यह बात सुनकर बेग़म अख़्तर ने फिर से रियाज़ शुरू किया। उसके बाद उनके सुर सही लग गए।

तीस के दशक में बेग़म अख़्तर एक्टिंग के गुर सीखने के लिए पारसी थिएटर से जुड़ गईं। थिएटर में काम करने की वजह से उनका रियाज़ छूट गया, जिससे उनके उस्ताद मोहम्मद अता ख़ान उनसे बहुत ख़फ़ा हो गए। उन्होंने बेग़म अख़्तर से कहा कि जब तक तुम थिएटर में काम करना नहीं छोड़ोगी मैं तुम्हें गाना नहीं सिखाऊंगा। उनकी इस बात पर बेग़म अख़्तर ने उनसे कहा कि आप एक बार मेरा नाटक देखने आ जाइए, फिर जो आप जो कहेंगे उसे मैं मान लूंगी। उस रात उनके उस्ताद अता मोहम्मद ख़ान उनका नाटक तुर्की हूर देखने गए। नाटक में जब बेग़म अख़्तर ने उस नाटक का गाना 'चल री मोरी नैय्या' गाया तो उनकी आंखों में आंसू आ गए। नाटक के ख़त्म होने के बाद बेग़म अख़्तर से उन्होंने कहा कि बिटिया तू सच्ची अदाकारा है, जब तक चाहो नाटक में काम करो।

थिएटर के नाटकों से मिली शोहरत के बाद बेग़म अख़्तर को कलकत्ता की ईस्ट इंडिया कम्पनी में अभिनय करने का मौक़ा मिल गया। उन्होंने बतौर अभिनेत्री 'एक दिन का बादशाह' फ़िल्म से अपने सिने कैरियर का आग़ाज़ किया। लेकिन इस फ़िल्म की असफलता ने बतौर अभिनेत्री उन्हें कोई ख़ास पहचान नही दिलाई। फिर साल 1933 में ईस्ट इंडिया कंपनी के बैनर तले बनी फ़िल्म 'नल दमयंती' की सफलता के बाद बेग़म अख़्तर को बतौर अभिनेत्री थोड़ी पहचान मिली। उसके बाद उन्होंने 1934 में 'अमीना', 'मुमताज़ बेग़म', 1935 में 'जवानी का नशा' और 'नसीब का चक्कर' जैसी फ़िल्मों में काम किया। उसके कुछ साल बाद वह लखनऊ चली गईं, जहां उनकी मुलाक़ात फ़िल्म इंडस्ट्री के मशहूर फ़िल्ममेकर महबूब ख़ान से हुई। बेग़म अख़्तर से मिलकर महबूब ख़ान उनसे काफ़ी प्रभावित हुए, उन्होंने बेग़म अख़्तर को बॉम्बे आने का मशवरा दिया।


जब महबूब ख़ान के बुलावे पर बेग़म अख़्तर बंबई पहुंचीं। तब 1942 में महबूब ख़ान नें अपनी फ़िल्म 'रोटी' में बेग़म अख़्तर को एक्टिंग करने के साथ-साथ गाने का भी मौक़ा दिया। इस फ़िल्म के लिए बेग़म अख़्तर ने कुल 6 गाने गाए थे, लेकिन संगीतकार अनिल बिस्वास के साथ हुई उनकी अनबन के बाद फ़िल्म में उनके गाए सिर्फ़ 3 गाने ही रखे गए। इस फ़िल्म के बाद बेग़म अख़्तर ने 1953 में फ़िल्म 'दानापानी', 1954 में 'एहसान' और 1958 में 'जलसा घर' जैसी क़ामयाब फ़िल्मों में अभिनय किया। उसके बाद उन्होंने मुड़कर कभी पीछे नहीं देखा। उन्होंने फ़िल्मों के साथ-साथ अपनी गायकी के शौक को भी बरक़रार रखा और मल्लिका-ए-गज़ल के नाम से पहचानी जाने लगी। बाद में उन्हें बंबई की चकाचौंध भरी ज़िंदगी अच्छी नहीं लगी और वह लखनऊ वापस लौट आईं।

1945 में जब वह अपने कैरियर की पीक पर थीं, तब उन्होंने पेशे से वकील इश्तिआक अहमद अब्बासी से निकाह कर लिया। शादी के बाद वह अख़्तरी बाई से बेग़म अख़्तर बन गईं। अब उन्होंने गायकी छोड़ दी और पर्दे में रहने लगीं। जिस पर उनपर लोगों ने काफ़ी तंज़ भी किया। शादी के बाद पांच साल तक उन्होंने घर के बाहर की दुनिया को नहीं देखा। लेकिन जो वह अपनी तक़दीर में लिखवा कर आईं थीं, उसे कैसे बदल सकती थीं। घर में रहते रहते बेग़म अख़्तर बीमार रहने लगीं, डॉक्टरों ने उनके बीमार रहने की वजह उनके गायकी से दूर रहने को बताया। तब अपने शौहर के कहने पर वह एक बार फिर अपने पहले प्यार गायकी की तरफ़ लौटीं। उसके बाद वह 1949 में आकाशवाणी लखनऊ से जुड़ गईं, और फिर ताउम्र यहीं काम करतीं रहीं। उन्होंने फिर से संगीत की दुनिया में क़दम रखा और फ़िल्मों में भी गीत गाने लगीं।

बेग़म अख़्तर ने जब रेडियो पर गाना शुरू किया, उसके बाद से वह संगीत सम्मेलनों में भी शिरकत करने लगीं। इसी बीच फ़िल्मों में भी उनकी दोबारा वापसी हुई। मशहूर संगीतकार मदन मोहन के कहने पर उन्होंने 1953 की फ़िल्म 'दानापानी' में "ऐ इश्क़ मुझे और कुछ याद नहीं" और 1954 की फ़िल्म 'एहसान' में "हमें दिल में बसा भी लो" जैसे नग़में गाकर श्रोताओं का दिल जीत लिया। पचास के दशक में बेग़म अख़्तर ने फ़िल्मों मे काम करना कम कर दिया। साल 1958 में सत्यजीत रे की फ़िल्म 'जलसा घर' बेग़म अख़्तर के सिने कैरियर की आख़िरी फ़िल्म साबित हुई। इस फ़िल्म में उन्होंने एक गायिका की भूमिका निभाकर उसे पर्दे पर जीवंत कर दिया था।


बेग़म अख़्तर से गीतकार शकील बदायूँनी की बहुत अच्छी दोस्ती थी। बेग़म अख़्तर ने उनकी लिखी कई गज़लों को गाकर उन्हें मशहूर कर दिया था। एक बार की बात है कि बेग़म अख़्तर अपने एक कॉन्सर्ट के लिए बॉम्बे गईं थीं। जब वह कॉन्सर्ट ख़त्म करके रात की ट्रेन से लखनऊ वापस लौट रहीं थी कि तभी स्टेशन पर शकील बदायूँनी उनसे मिलने पहुंचते हैं, गाड़ी चलने ही वाली होती है। तभी शकील उन्हें ट्रेन की खिड़की से एक पर्ची थमाते हैं और कहते हैं कि "बेग़म साहिबा यह ग़ज़ल मैंने आपके लिए लिखी है फ़ुर्सत से पढ़ियेगा इसे"। इतने में गाड़ी चलने लगती है। बेग़म अख़्तर ने वह पर्ची उनके साथ बॉम्बे गईं अपनी एक शिष्या को थमा दी। रात को वह उसे बिना पढ़े ही सो गईं। तब बॉम्बे से लखनऊ के सफ़र में एक रात लग जाती थी। अगली सुबह जब वह उठीं तो उन्होंने चाय पीते हुए अपनी शिष्या से कहा कि "बिट्टन ज़रा वह पर्ची तो देना जो शकील साहब दे गए थे", और हारमोनियम निकाल कर ट्रेन में ही उस ग़ज़ल को पढ़ कर उसकी धुन बनाने लगीं। शकील बदायूँनी की बहुत सी गज़लों को बेग़म अख़्तर ने अपनी आवाज़ देकर अनमोल बना दिया था। जिस ग़ज़ल की धुन उन्होंने ट्रेन के डिब्बे में बैठकर बनाई थी वह ग़ज़ल यही थी,

मेरे हमनफ़स मेरे हमनवा, मुझे दोस्त बनके दग़ा ना दे।

मैं हूँ दर्द-ए-इश्क़ से जांबलब, मुझे ज़िंदगी की दुआ ना दे।

बेग़म अख़्तर को गज़ल, ठुमरी और दादरा गाने में महारथ हासिल थी। उन्होंने "वो जो हममें तुममें क़रार था, तुम्हें याद हो के न याद हो", "ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया", "मेरे हमनफ़स, मेरे हमनवा, मुझे दोस्त बन के दग़ा न दे", जैसी कई दिल को छू लेने वाली गज़लें गायी हैं। एक इंटरव्यू में जब उनसे पूछा गया कि आपको लता मंगेशकर का गाया कौन सा गाना अच्छा लगता है, तो उन्होंने हँसते हुए जवाब दिया कि उन्हें लता का सिर्फ़ एक ही गाना पसंद है। जो की फ़िल्म मेरा गांव मेरा देस से है, "आया आया अटरिया पे कोई चोर आया आया"।

बेग़म अख़्तर को भारत सरकार ने 1968 में पद्मश्री, 1972 में संगीत नाटक अकादमी पुरुस्कार और 1975 में पद्मभूषण से नवाज़ा था। अपनी जादुई आवाज़ से श्रोताओं कों मन्त्रमुग्ध कर देने वाली बेग़म अख़्तर ने 30 अक्टूबर 1974 को इस फ़ानी दुनिया को हमेशा-हमेशा के लिए अलविदा कह दिया। बेगम अख़्तर की आख़िरी तमन्ना थी, कि वह अपनी ज़िंदगी के आख़िरी समय तक गाने गाती रहें, जो पूरी भी हुई। निधन से आठ दिन पहले उन्होंने मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी की एक ग़ज़ल रिकॉर्ड की थी। उनकी गाई मशहूर ठुमरी "हमरी अटरिया पे आओ संवरिया" को फ़िल्म निर्माता-निर्देशक विशाल भारद्वाज ने 2014 में अपनी फ़िल्म डेढ़ इश्किया में एक नए अंदाज़ में गायिका रेखा भारद्वाज से गवाया था।

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