मृणाल पांडे का लेख: महिलाओं के संवैधानिक हकों में निरंतर लगती सेंध और स्त्री प्रश्नों के आईने में राज-समाज
महिलाओं की अनदेखी करने की आदत के कारण किसान आंदोलन की कवरेज में लोगों को नहीं पता चल रहा कि भारत में सबसे अधिक रोजगार देने वाले खेती क्षेत्र खेती पर नए कानूनों का कितना दुष्प्रभाव वे 86 फीसदी छोटे किसान भुगतेंगे जिनमें 8-10 करोड़ भारतीय महिलाएं शामिल हैं।
नीतीश कुमार देश के उन बहुत कम बड़े नेताओं में से हैं जिनको वाणी का संयमी माना जाता है। लेकिन बिहार में नई विधानसभा के पहले सत्र के समापन में उनका वह संयम टूट गया। विपक्ष के नए युवा नेता और नीतीश के पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने भरी सभा में मुख्यमंत्री पर आरोप लगाया कि उन्होंने चुनावी सभा में उनके परिवार पर तंज कसा और कुछ इस आशय की बात कही कि तेजस्वी के पिता लालू जी बेटे की चाह में कई लड़कियों के जन्मदाता बन गए। गुस्से में तेजस्वी ने कहा कि संभवत: खुद नीतीश जी बेटी के जन्म की संभावना से भी डरते रहे होंगे, जभी एक बेटे के बाद उनके घर अन्य औलादें न जन्मीं। अब नीतीश जी भभक उठे और उन्होंने पूर्व सहयोगी के बेटे के अशालीन व्यवहार पर बहुत कुछ कह डाला, क्या तेजस्वी भूल गए कि विगत में उनके पिता को किसने जनता दल का नेता बनाया? खुद उनको उपमुख्यमंत्री किसने बनवाया? यह होना था कि घट-घट व्यापी मीडिया हरकत में आ गया और मिर्च-मसाले सहित यह वार्तालाप वायरल हो गया!
वाणी का संयम फिर हैदरबाद के नगर निकायों के चुनाव में बुरी तरह दरका जब योगी, शाह और ओवैसी चुनाव प्रचार में उतरे। बहरहाल, बिहार विधानसभा के कड़वे प्रकरण में दो बातें बहुत खटकने वाली थीं। पहली तो दोनों पक्षों का एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप जड़ते हुए विधानसभा के सदन में भारतीय राज-समाज, खासकर उत्तर भारत के जनमानस में गहरे से बैठी इस भावना को सतह पर लाना कि बड़े घरों में भी कन्या शिशु आज भी उतनी ही अवांछित है जितनी तब थी जबकि ‘अथर्व वेद’ ने कहा था, ‘हे प्रभो हमको बेटा दो, बेटी का जन्म अन्यत्र हो!’ तब तो बड़े-बड़े हरफों वाले होर्डिंग्स की वह तमाम ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ नारेबाजी, वह लड़कियों को मुफ्त साइकिलें या पाठ्य पुस्तकें बांटना या सस्ते सैनिटरी नैपकिन दिलवाना- सब एक खोखली मौका परस्त राजनीति भर साबित हुई। उत्तर भारत के जिस राज्य में महिला वोट सबसे अधिक हैं, वहां विधानसभा में कन्या जन्म पर ऐसे बयान निहायत घटिया ही कहे जाएंगे।
अब आते हैं नए किसानी कानून के खिलाफ उमड़े किसान आंदोलन पर जिसने दिल्ली की किल्ली हिला रखी है। मीडिया इसे जिस तरह कवर कर रहा है, उसमें यह विराट आंदोलन लगभग पूरी तरह पुरुष नेतृत्व तले पुरुष किसानों की इज्जत बहाली का पुरुष राजनेताओं की अदालत में प्रस्तुतीकरण ही दिखता है। जबकि सच यह है कि हमारे खेतिहर समाज तथा मंदी के बावजूद खेती के जीडीपी में निरंतर अच्छे योगदान के पीछे खेतिहर महिलाएं हैं। घर के पुरुषों से पहले उठ कर वे पशुधन से परिवार तक को खिला-पिला कर फिर खुद भी अपने, बंटाई के या दूसरों के खेतों पर काम करने को निकल जाती हैं। मनरेगा में भी उनकी तादाद पुरुष कामगारों से ज्यादा है। और उनकी कमाई से ग्रामीण इलाके के वे अधिकतर परिवार पल रहे हैं जिनके पुरुष या तो आत्महत्या कर चुके हैं या शहरों को पलायन। फिर भी हमारा मीडिया और राजनेता- दोनों उनको भावुक लफ्जों में हमारी ‘अन्नपूर्णा माताओं-बहनों’ के ही रूप में ही पेश करते हैं।
किसान आंदोलन की छवियां याद करें जिनमें महिलाओं को अक्सर लंगर की रोटियां थापने और पुरुषों की हौसला अफजाई से आगे कोई खास महत्व नहीं दिखाया जाता। शोचनीय है कि बॉलीवुड की एक निहायत बददिमाग बड़बोली अभिनेत्री यह कहने से भी नहीं चूकीं कि सरकारी कानून के विरोध में टीवी पर मुखर चंद बूढ़ी प्रौढ़ महिलाएं असली किसान नहीं। वे तो किराये पर जनसहानुभूति बटोरने को मीडिया पर लाई गई हैं। भारत की वित्तमंत्री खुद एक महिला हैं। किंतु घर और बाहर पुरुषों से अधिक शारीरिक जोखिम मोल लेकर सत्ता से दो-दो हाथ करने निकली इन महिलाओं से खेती और अनाज बिकवाली की दशा-दिशा पर मीडिया या राजनेताओं का गंभीरता से विमर्श न करना सचमुच अचंभे की बात है।
महिलाओं की अनदेखी करने की इसी निखालिस भारतीय आदत के कारण ताजा किसान आंदोलन की कवरेज में जनता को यह नहीं पता चल रहा कि भारत में सबसे अधिक रोजगार देने वाला क्षेत्र खेती ही है। और नए कानूनों का कितना दुष्प्रभाव वे 86 फीसदी छोटे किसान भुगतेंगे जिनमें 8 से 10 करोड़ भारतीय महिलाएं शामिल हैं। बीज बचाना, पनीरी बनाना, रोपनी, दरांईं तथा खरपतवार सफाई के साथ शुरू कर अनाज की दरांईं और कुटाई-पिसाई सबमें उनकी भूमिका और गहरा अनुभव उपेक्षा लायक नहीं है। किसानी घरों में दुधारू पशुओं की सार-संभाल में भी उनके श्रम का योगदान पुरुषों से अधिक ही होगा, कम नहीं। फिर भी किसी मां के सपूत ने उनका इंटरव्यू लेकर बतौर खेतिहर या खेत मजदूर उनके समृद्ध अनुभवों को उजागर करना तो दूर, विपणन और खेत-मजूरी में सरकारी कानून से आने जा रहे बदलाव पर उनकी जानकारी का कोई पहलू सामने नहीं रखा। बस, भावुकता सहित आत्महत्या कर चुके किसान की बेवा या पुलिस गोली से आहत बेटों की माताओं के रूप में ही वे हमारे पर्दों पर हैं।
कृषि कानूनों पर मचा महाभारत गवाह है कि किस तरह लक्षित वर्ग और विपक्ष को भरोसे में लिए बिना अफरातफरी में बनवाए गए कानून कई अच्छे कोण होते हुए भी जनता की नजरों में संदिग्ध बनजाते हैं। बातचीत की बजाय किसानी जत्थों को ठंड के बीच पानी की बौछारों, सड़कों पर कांटेदार तार की बाड़ या सीमेंट के अवरोधक लगा कर जिस घबराहट के साथ पुलिस ने रोका, वह भी सरकारी अहंकार और संवेदनहीनता का ही प्रमाण है।
इसी बीच वयस्क महिलाओं के संवैधानिक हकों में एक और सेंध लगती दिख रही है। उत्तर प्रदेश की महिला राज्यपाल ने अंतरधार्मिक विवाहों को ‘लव जिहाद’ की संज्ञा देकर गैरकानूनी बनाने वाले एक नए कानून पर दस्तखत करके एक बहुत ही कंटकाकीर्ण मोर्चा और खोल दिया है। मालूम हो, किदेश के गृह राज्यमंत्री कुछ ही दिन पहले संसद को बता चुके हैं कि ‘लव जिहाद’ नामक कोई संज्ञा हमारे संविधान में मौजूद ही नहीं है इसलिए इसकी तहत अंतरधार्मिक विवाहों पर कानूनी रोक लगवाना नामुमकिन होगा। लेकिन उत्तर प्रदेश की सरकार यह नहीं मानती। राज्यपाल की स्वीकृति मिलते ही अगले दिन एक दाखिल दफ्तर मामले में फाइलें खुलवा कर अल्पसंख्यक समुदाय के युवक को इस नए कानून की तहत गिरफ्तार किया गया है। जिस देश में लड़की का जन्म एक हादसा माना जाता हो, जहां पारिवारिक इज्जत के नाम पर कानून सम्मत सगोत्री विवाह करने वाले युगलों की लाशें बिछा दी जाती हों, वहां ऐसे प्रतिगामी कानून का बनना वयस्क लड़कों से कहीं अधिक लड़कियों की संविधान प्रदत्त आजादी के संदर्भ की जड़ में मठा डालने का काम करेगा।
कई बार हम वरिष्ठ मीडिया कर्मी यह सब देख-सुनकर और फिर इन मुद्दों पर सोशल मीडिया में मचे या मचवाए गए महनामथ और गलतबयानी से गहरी दुविधा से भर जाते हैं। ऐसी हालत में क्या किया जाना चाहिए जब एक पक्ष एक स्पष्टीकरण देता है, दूसरा पक्ष दूसरा। सबसे बड़ी खामी यह कि मीडिया का तेजी से विस्तार होने के साथ उसके मालिकों की ताकत और उनके द्वारा गढ़ा व्यावसायीकरण का स्वरूप लगातार बदल रहा है। और कंपनी की मालिकी और आर्थिक स्रोत आर्थिक और नैतिक रेखाओं का साफ उल्लंघन करते पाए जाएं तो सरकार उन पर आसानी से अपनी जकड़बंदी बना लेती है। लिहाजा सरकार को खुश रखने वाली मीडिया कंपनियों पर कुछेक बड़े समूहों का क्षैतिज एकाधिकार तो जायज बना हुआ है।
निजी डिजिटल खबरिया पोर्टलों और डिजिटल मनोरंजन प्रसारित करने वाली ओटीटी प्लेटफार्मों पर सरकारी नियमन सख्त बनाया जा रहा है। उधर, नागरिकों के सूचनाधिकार में लगातार पानी मिलाया जा रहा है और डिजिटल सोशल मीडिया पर कठोर सेंसरशिप लागू करने की कार्रवाई पर काम हो रहा है।
ऐसे में मीडिया जगत तथा विपक्ष सचमुच अपने कार्यकर्ताओं तक सही सूचनाएं पहुंचा कर लोकतंत्र को बचाना और जनता के बीच पकड़ को बचाए रखना चाहते हों, तो उनको पहले खुद अपने भीतर दशकों से कायम लैंगिक, आर्थिक, भाषायी और वर्गगत असमानताओं को ईमानदारी से स्वीकार करना होगा। फिर उनको एकजुट होकर यथासंभव मिटाना होगा। अपने मद में गाफिल होकर वे अपने ही बचाव में ‘भेड़िया आया’ का हल्ला करते रहे, तो सचमुच का भेड़िया आने पर उनके पास सर पर हाथ धर रोने के अलावा कोई अन्य राह न बचेगी।
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