आकार पटेल का लेख: 2019 में जीतना है तो पहले जीतने होंगे राज्यों में होने वाले चुनाव
कांग्रेस आज जितने कम राज्यों में सत्ता में हैं उतना वह इतिहास में कभी भी नहीं रही। शायद इसमें इस साल के अंत तक कुछ तब्दीली आए जब मध्य प्रदेश, राजस्थान और छतीसगढ़ जैसे राज्यों में चुनाव होंगे।
भारत के पूर्वोतर को लेकर जितनी दिलचस्पी पिछले कुछ हफ्तों में हमने देखी है उतनी शायद ही पहले कभी देखी हो। मैं आमतौर पर सुबह 5 बजे के आसपास जाग जाता हूं और मैं यह देखकर आश्चर्यचकित था कि 7 बजे से पहले ही न्यूज चैनल त्रिपूरा, मेघालय और नागालैंड के चुनाव परिणामों का इंतजार करते हुए टिप्पणीकारों के अपने पैनल के साथ तैयार थे।
एक राष्ट्र के रूप में यह हमारे लिए एक अच्छा संकेत है। मुझे याद है कि कुछ साल पहले इंडिया टूडे पत्रिका ने एक संपादकीय प्रकाशित किया था जिसमें उन्होंने पूर्वोतर की उपेक्षा को लेकर शिकायत की थी। उस अंक में लगभग 8 विधानसभा चुनावों को लेकर चर्चा थी, लेकिन पत्रिका के आवरण पर उत्तर भारत के सिर्फ 5 बड़े राज्यों का जिक्र था, और चुनाव में जा रहे पूर्वोतर के राज्यों की उपेक्षा की गई थी। यह व्यवहार बदल रहा है और जैसा मैंने कहा कि यह हमारे लिए अच्छा है।
परिणाम चौंकाने वाले थे, खासतौर पर त्रिपूरा में। भारत उन आखिरी बड़ें लोकतंत्रों में शामिल है जहां सक्रिय कम्युनिस्ट पार्टियां हैं और एक कमजोर शक्ति होने के बावजूद वे हमारी राजनीति में कई मूल्य और आयाम जोड़ते हैं। फिर भी, मैं आज कांग्रेस पर अपना ध्यान केन्द्रित रखना चाहता हूं। फरवरी में राजस्थान में हुए कुछ उपचुनाव जीतने के बाद कांग्रेस नेता सचिन पायलट ने कहा था, “राज्य विधानसभा चुनाव जीतने के लिए नगर निगम और वार्ड के चुनाव जीतना जरूरी है। उन चुनावों से पार्टी संगठन मजबूत होता है। हमें राज्य के चुनाव जीतने हैं। कोई पार्टी तब तक केन्द्र में सरकार बनाने की नहीं सोच सकती जब तक उसके पास अच्छी संख्या में राज्य सरकारें न हों।” राष्ट्रीय दलों के लिए राज्य में सरकारें होना क्यों जरूरी है? स्थानीय सत्ता का क्या महत्व है? इन चीजों पर हमें जरूर ध्यान देना चाहिए क्योंकि कांग्रेस आज जितने कम राज्यों में सत्ता में हैं उतना वह इतिहास में कभी भी नहीं रही।
शायद इसमें इस साल के अंत तक कुछ तब्दीली आए जब मध्य प्रदेश, राजस्थान और छतीसगढ़ जैसे राज्यों में चुनाव होंगे। क्यों कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए यह महत्वपूर्ण है कि 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले के महीनों में होने वाले राज्य चुनावों में उनकी पार्टी अच्छा प्रदर्शन करे?
इससे होने वाला पहला लाभ काफी आसान है। सत्ता में रहना ही राजनीति की बुनियाद है। पार्टी अपनी विचारधारा के हिसाब से चीजों को अंजाम दे सकती है और इसलिए एजेंडा भी तय कर सकती है। उदाहरण के लिए, बीजेपी गौ-मांस और गौ-हत्या को महीनों तक एक राष्ट्रीय मुद्दा बनाए रख सकी क्योंकि हरियाणा और महाराष्ट्र की उसकी राज्य सरकारों ने वहां इन पर प्रतिबंध लगा दिया।
दूसरा लाभ यह है कि नगर निगम और राज्य विधानसभा के स्तर पर सत्ता नेताओं को जनता के लिए काम करने का मौका देती है। कई नेता अपने दिन की शुरुआत और अंत उन लोगों के साथ करते हैं जो बिजली कनेक्शन, बच्चों के स्कूल में दाखिले से लेकर न जाने कितनी तरह मांगों को लेकर उनके पास आते हैं। सत्ता में रहने वाली पार्टी ही इन मांगों को पूरा कर सकती है, विपक्ष नहीं।
तीसरा पहलू वित्तीय सहायता का है। यह दो तरह से काम करता है। सच्चाई यह है कि नेता अपनी पार्टियों के लिए पैसे लेते और कमाते हैं, वे भ्रष्ट नहीं होने के बावजूद ऐसा करते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह को लेकर दिवंगत पत्रकार धीरेन भगत की किताब ‘कंटेमपरॉरी कंजर्वेटिव’ में एक बहुत कमाल का किस्सा है। कॉरपोरेट जगत से सत्ताधारी पार्टी को भी साफ वजहों से ज्यादा वित्तीय सहायता मिलती है।
चौथा और उससे जुड़ा हुआ पहलू है उम्मीवारों द्वारा किया जाने वाला खर्च। विपक्ष से ताल्लुक रखने वाले उम्मीदवार अपने चुनाव अभियान में ज्यादा पैसे खर्च नहीं करते हैं। इसकी वजह से वे ज्यादा प्रतिस्पर्धी नहीं रह पाते।
पांचवा पहलू यह है कि सत्ताधारी पार्टी कई तरह के संदेश को नियंत्रित कर सकती है। उदाहरण के लिए, विज्ञापन पर होने वाले सरकारी खर्च को। केन्द्र सरकार देश की सबसे बड़ी विज्ञापनदाता है। पिछले साल इसने 1280 करोड़ प्रधानमंत्री और उनकी योजनाओं के विज्ञापन पर खर्च किए। इसे थोड़ा ढंग से समझने के लिए बताना जरूरी है कि हिन्दुस्तान लीवर जो एक्स डियोडेरेंट से लेकर लक्स साबुन और ताजमहल चाय तक बनाता है, वह अपने विज्ञापन पर 900 करोड़ खर्च करता है। भारत की सारी टेलीकॉम कंपनियां मिलकर जितना विज्ञापन पर खर्च करती हैं, उससे ज्यादा केंद्र सरकार करती है। हर राज्य सरकार के पास बजट में प्रचार पर खर्च किए जाने वाले पैसे का प्रावधान है और वह मुख्य रूप से अपने प्रचार पर खर्च होता है। अरविन्द केजरीवाल की दिल्ली सरकार ने 2015 में प्रचार पर 526 करोड़ रुपए खर्च किए।
छठा पहलू यह है कि पैसों का यह भंडार मीडिया को सत्ताधारी पार्टी के पक्ष में रखता है। यह क्षेत्रीय अखबारों के लिए खासतौर पर सच है क्योंकि उन्हें सरकारी विज्ञापनों पर सबसे ज्यादा निर्भर रहना पड़ता है। एक उदाहरण यह है कि राजस्थान पत्रिका जो भारत का सातवां सबसे बड़ा अखबार है और जिसके पास लगभग डेढ़ करोड़ पाठक हैं, वह सुप्रीम कोर्ट चली गई क्योंकि प्रदेश की वसुंधरा सरकार ने उसे विज्ञापन देना बंद कर दिया (शायद इसलिए कि उसने सरकार के पक्ष में खबरें नहीं प्रकाशित कीं)।
सातवां और आखिरी कारण है राज्य की संस्थाओं का इस्तेमाल। चुनाव आयोग इस पर थोड़ी निगाह रखता है, लेकिन ऐसा चुनाव की घोषणा के बाद ही होता है। बाकी के 5 साल सत्ताधारी पार्टी पुलिस बल का इस्तेमाल कर सकती है, समर्थकों को ऊंचे पद दे सकती है और सरकार की संरचना का इस्तेमाल या गलत इस्तेमाल कर सकती है।
यह चीजें खासतौर पर हमारे हिस्से की दुनिया में राजनीतिक पार्टियों को पालती-पोसती और बनाए रखती हैं। स्थानीय सत्ता के द्वारा निरंतर इस शक्ति को प्राप्त किए बगैर 2019 में राहुल गांधी के लिए 2019 में अपने आप राष्ट्रीय स्तर पर दावेदारी पेश करना बहुत मुश्किल होगा।
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