आकार पटेल का लेखः 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए ‘अयोध्या’ मसले को आगे बढ़ाएगी बीजेपी?

2019 के लोकसभा चुनाव के लिए नेतागण एक बार फिर से सूट-बूट पहन नागरिकों को सबसे ज्यादा आकर्षित करने वाले नारों की पावरपॉइंट प्रस्तुतियां तैयार करने वालों के साथ बैठकें करेंगे।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया
user

आकार पटेल

वे कौन से मुद्दे होंगे, जिनपर 2019 का चुनाव लड़ा जाएगा? चुनाव होने में अभी लगभग एक साल का वक्त है और अभी से अगले कुछ महीनों में सभी दल और गठजोड़ अपना-अपना रुख साफ कर चुके होंगे। सबसे प्रभावी नारे कैसे तैयार और प्रसारित किया जाए, यह समझने के लिए वे लोग विज्ञापन एजेंसियों, चुनाव विशेषज्ञ एजेंसियों और प्रचार विशेषज्ञों की मदद लेंगे। 2014 के अपने सफल चुनाव अभियान में बीजेपी ने विज्ञापन कंपनी ‘ओगिलवी एंड माथर’ की सेवाएं ली थी, जबकि कांग्रेस ने ‘डेंट्सू’ की सेवाएं ली थीं। जहां तक मुझे याद है, भारतीय राजनीति में पहली बार किसी विज्ञापन एजेंसी का इस्तेमाल 1985 में किया गया था, जब राजीव गांधी ने रीडिफ्यूजन की सेवाएं ली थीं।

नेता एक बार फिर से सूट-बूट पहन नागरिकों को सबसे ज्यादा आकर्षित करने वाले नारों की पावरपॉइंट प्रस्तुतियां तैयार करने वालों के साथ बैठकें शुरू करेंगे। प्रचार विशेषज्ञ माहौल अपने पक्ष में करने के लिए ‘ये दिल मांगे’, ‘ये अंदर की बात है’ और ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’, जैसे आकर्षक नारे गढ़ेंगे।

2019 के चुनाव अभियान में 2014 के चुनाव अभियान में सोशल मीडिया और तकनीक में किए गए बड़े निवेश से मिली सीख का असर देखने को मिलेगा। कई लोग चुनावों से बहुत सारा पैसा बनाएंगे।

बीजेपी ने चुनाव आयोग को दी जानकारी में बताया है कि उसने 2014 के चुनाव अभियान पर 714 करोड़ रुपये खर्च किए थे। कांग्रेस ने 516 करोड़ रुपये खर्च किए। शरद पवार की एनसीपी जैसी एक राज्य में दखल रखने वाली पार्टी ने 51 करोड़ रुपये खर्च किए। 2019 में इन आंकड़ों के दोगुना और तीन गुना होने की संभावना है। और इसमें वह पैसा नहीं शामिल है जो उम्मीदवारों द्वारा नगद और पार्टी की तरफ से कंपनियों द्वारा खर्च किया जाएगा, जो कि भारत में बहुत आम चलन है। एक-एक बड़ा उम्मीदवार टीकट के खर्च के अलावा बहुत ही आसानी से 15 करोड़ तक खर्च करेगा। मेरा आकलन है कि मई 2019 से पहले कम से कम 25000 करोड़ रुपये इधर से उधर होंगे। अगर आपको लगता है कि ये रकम बहुत ज्यादा है, तो आपको बता दें कि ‘इकॉनमिक टाइम्स’ में छपे एक अध्ययन में बताया गया है कि 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव पर लगभग 5,500 करोड़ रुपये खर्च हुए थे।

अखबार और टीवी चैनल राजनीतिक प्रचार से अतिरिक्त कमाई करेंगे। इनमें से ज्यादातर प्रचार-विज्ञापन खबरों की तरह होंगे। कई सौदे होंगे और जैसा कि नीरव मोदी के मामले से पता चलता है कि एक अभ्रष्ट नेता के होने से भ्रष्टाचार शुरू या खत्म नहीं होता है।

राजनीतिक दल बिना किसी भावनात्मक दबाव के इस बात का आकलन और प्रयास करेंगे कि कैसा गठजोड़ उन्हें ज्यादा से ज्यादा फायदा पहुंचाएगा। कुछ नेता बाद में बड़े फायदे की उम्मीद में शुरुआती लाभ को छोड़ते हुए अपने विकल्पों को खुला रखेंगे।

2019 से पहले चार राज्यों- मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में होने वाले चुनाव के परिणाम बहुत सारे क्षेत्रीय दलों को यह तय करने में मदद करेंगे कि उन्हें राहुल गांधी से कितनी करीबी या दूरी बनाकर रखनी है।

पिछले छह वर्षों में भारतीय जनता पार्टी की शानदार चुनावी सफलताओं के कारण अब उसके प्रतिद्वंद्वियों द्वारा पूरी तरह से समझे जा सकेंगे, जिन्होंने अपनी पार्टी को ठीक से दुरुस्त कर लिया है। यही वजह है कि हाल ही में हमें उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश यादव के बीच सबसे असंभावित साझेदारी देखने को मिली।

हमने जिस सवाल से शुरू किया था उस पर लौटते हैं कि वो कौन से मुद्दे होंगे जिन पर 2019 का चुनाव लड़ा जाएगा।

ये इस बात पर निर्भर करेगा कि चुनावी माहौल को कौन नियंत्रित करेगा। 2014 में चुनावी माहौल पर पूरी तरह से विपक्ष का नियंत्रण था, ना कि सत्ताधारी पार्टी का। कांग्रेस को भ्रष्टाचार पर अपने रिकॉर्ड का बचाव करने के लिए मजबूर कर दिया गया था और बीजेपी ने अपने नेता की संभावित क्षमताओं के आधार पर हावी होकर चुनाव लड़ा था।

2009 में बीजेपी ने लाल कृष्ण आडवाणी को एक मजबूत नेता के तौर पर स्थापित करने के लिए फ्रैंक सीमोज-टैग और यूटोपिया नाम की दो एजेंसियों की सेवाएं ली थी। मनमोहन सिंह को एक अनिर्णायक या फैसला नहीं ले पाने वाला नेता बताते हुए, जो वे निश्चित तौर पर नहीं थे, बीजेपी की तरफ से नारा दिया गया था, ‘मजबूत नेता, निर्णायक सरकार’। उस चुनाव में कांग्रेस ने जे वाल्टर थॉम्पसन की सेवाएं ली गई थीं, जिसने ‘आम आदमी’ का नारा तैयार किया था, जिसे निश्चित तौर पर बाद में अरविंद केजरीवाल के द्वारा हड़प लिया गया।

कभी-कभी चुनाव अभियान का सबसे प्रमुख नारा जीत में नहीं बदल पाता है। प्रचार एजेंसी ग्रे वर्ल्डवाइड द्वारा तैयार किया गया अटल बिहारी वाजपेयी का 2004 का चुनावी अभियान- 'इंडिया शाइनिंग' का परिणाम एक ऐसी हार के रूप में आया जिसकी भविष्यवाणी किसी ने नहीं की थी और जिसकी वजह अभी तक कोई भी पूरी तरह से समझ नहीं पा रहा है।

मुझे नहीं लगता है कि 2019 का चुनाव अभियान सकारात्मक होगा। मेरे कहने का मतलब यह है कि सरकार या विपक्ष की तरफ से 'अच्छे दिन' के जैसे नारों की कोई संभावना नहीं दिखाई दे रही है। विशेष रूप से अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में कुछ खास अच्छा नहीं हो रहा है और मुझे नहीं लगता है कि नागरिक के तौर पर हमारी हालत जैसी 2014 में थी, उसमें कोई उल्लेखनीय बदलाव आय़ा है।

कुछ दिनों पहले मैं एक बीजेपी नेता से बात कर रहा था और जिसमें उन्होंने मुझे बताया कि अयोध्या मुद्दे को तेजी से केंद्र में लाया जाएगा। फिलहाल, बीजेपी इसे नहीं छू रही है, लेकिन बहुत जल्द इस रणनीति में बदलाव आ सकता है। सुप्रीम कोर्ट मामले की सुनवाई कर रहा है और इस बात की संभावना है कि जल्द ही कोई फैसला आएगा। कुछ दिनों पहले, अदालत ने सुब्रमण्यम स्वामी जैसे लोगों के आवेदनों को खारिज कर दिया, जो इस मामले में हस्तक्षेप करने की कोशिश कर रहे थे। अदालत ने समझौते के विचार को भी खारिज कर दिया और समझदारी भरी टिप्पणी करते हुए कहा कि "एक भूमि विवाद में कैसे कोई बीच का रास्ता खोजा जा सकता है?"

इस बात की संभावना है कि अयोध्या मामले में जो भी फैसला आएगा, वह आगामी चुनाव का मुद्दा बनेगा और यह सोच कर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि उसके बाद जो चुनाव अभियान के नारे होंगे वो कैसे होंगे।

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia