आकार पटेल का लेख: क्या नोटबंदी की तरह ही विघटनकारी साबित होगी भारतीय न्याय संहिता!
इससे न सिर्फ न्यायपालिका, पुलिस, वकील और आम नागरिकों को नए कानून जानने-समझने की जरूरत होगी, बल्कि इससे पुराने कानूनों पर स्थापित न्यायशास्त्र को भी खतरे पैदा हो जाएगा और कई तरह की छोटी-बड़ी समस्याओं का जन्म होगा जो फिलहाल मौजूद नहीं हैं।
'अगर यह टूटा नहीं है, तो इसे ठीक न करें।'
शब्दकोश में इस वाक्य को एक लोक कहावत के तौर पर बताया गया है और पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर के दौर में एक अधिकारी द्वारा इस्तेमाल किए जाने के बाद से यह लोकोक्ति लोकप्रिय हुई।
इसका मोटे तौर पर अर्थ यह निकाला जाता है कि अगर कोई चीज़ अच्छे से काम कर रही है तो उसे बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) 150 साल पुरानी है। यह न सिर्फ भारत में बल्कि बाकी दक्षिण एशिया में भी कारगर रही है।
पाकिस्तान भले ही खुद को इस्लामिक देश कहता हो, लेकिन 1947 के बाद वहां के लगभग सभी कानून वही रहे जो अंग्रेज छोड़कर गए थे और पूरे उपमहाद्वीप में आमतौर पर इस्तेमाल होते हैं। इन कानूनों को थॉमस मैकाले ने 1830 में लिखा था और 1862 से यह प्रभावी हैं।
यहां तक कि 2023 में भी भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और पाकिस्तान दंड संहिता (पीपीसी) लगभग एक जैसे हैं। 1947 में जो बदलाव आया वह यह था कि दोनों देशों ने इन कानूनों में कुछ-कुछ बदलाव किए। लाहौर के रहने वाले जानते हैं कि धारा 144 का अर्थ यही है जैसाकि चेन्नई या दिल्ली में इस धारा के लागू होने का अर्थ खास परिस्थितियों में लोगों का जमावड़ा अपराधिक कृत्य हो सकता है।
ये कानून जाने-पहचाने थे और कारगर भी थे। थानेदार और कांस्टेबिल से लेकर आम नागरिक तक, हर कोई इन्हें जानता है। पाकिस्तानी भी वैसे ही जानते हैं कि हत्या करने की धारा 302 और धोखाधड़ी की धारा 420 होती है। ये वे धाराएं हैं जो उपमहाद्वीप की 1947 में स्वतंत्रता के बाद भी इस्तेमाल होती रही हैं।
आखिर क्यों? इसलिए क्योंकि कानून काम करता है। अगर अदालतों में मुकदमों का अंबार लगा हुआ है तो इसलिए नहीं कि कानून में कुछ खामियां हैं, और नए कानून भी इसे बदल नहीं पाएंगे। (दरअसल इसका उलटा ही हो सकता है, इसे हम आगे देखेंगे)। अगर मुद्दा सिर्फ यह है कि अंग्रेजों के बनाए कानून हमारे देश के लिए सही नहीं हैं, और हमें अधिक उदारवादी व्यवस्था चाहिए तो संहिता तो इसे नहीं बदलती।
इन कानूनों को बदलने की भारत में किसी ने मांग भी नहीं की थी। हम ऐसा नहीं कह रहे कि इन कानूनों में मामूली बदलाव, यानी कुछ चीजों को हटाने या कुछ को जोड़ने की जरूरत नहीं थी। हम बात कर रहे हैं इनमें आमूल-चूल बदलाव की। बिना किसी कारण के किसी इमारत को पूरी तरह नष्ट कर देना। सवाल तो यह है कि जो चीज़ काम कर रही है उसे क्यों बदला जाए?
इसका उत्तर फिलहाल तो हमारे पास नहीं है और शायद मिलेगा भी नहीं। बॉलीवुड के स्क्रिप्ट राइटर्स को अपनी फिल्मों के संवाद बदलने पड़ेंगे और फिल्मों के जजों और पुलिस वालों को नई संख्याएं याद करना पड़ेंगी, लेकिन समस्याएं इससे कहीं ज्यादा गहरी हैं।
पहली बात तो यह कि इससे मुकदमे बढ़ेंगे। वकील संजय हेगड़े ने इस तरफ इशारा किया है कि चेक बाउंस होने को अपराध बनाए जाने के बाद अदालतों में इस बाबत मुकदमों के ढेर लग गए। दूसरे वकील कॉलिन गोंजाल्विस कहते हैं कि आखिर पुलिस को नागरिकों पर इतने मनमाने अधिकार क्यों दिए जा रहे हैं जो कि अंग्रेजी दौर से भी अधिक हैं। कांग्रेस नेता और वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने पूछा है कि आखिर अस्तित्वहीन (सरकार के मुताबिक) लव जिहाद को क्यों 10 साल की सजा वाला अपराध बनाया जा रहा है। इसी तरह अन्य लोग पूछ रहे हैं कि राष्ट्र द्रोह को एक नया नाम देकर नई दंड संहिता में क्यों शामिल किया जा रहा है।
कथित मास्टरस्ट्रोक को सरलता से समझने का एक ही तरीका है कि वे मास्टरस्ट्रोक हैं और उनके पीछे की बुद्धिमत्ता पर सवाल नहीं उठाया जा सकता।
हाल ही में पूर्व सेना प्रमुख एम एम नरवणे ने अपने संस्मरणों की किताब में लिखा है, और अगर उन्हें प्रकाशित करने की अनुमति मिली तो, कि अग्निवीर योजना अचानक से सेना के सामने डाल दी गई थी। सेना ने तो शॉर्ट सर्विस कमीशन के जरिए शुरु की जाने वाली एक योजना का प्रस्ताव रखा था, जिसे उलट दिया गया। नई योजना में सिर्फ एक-चौथाई लोगों को ही सेना में रखा जाएगा बाकी को 22 साल की उम्र में सेवानिवृत्त कर दिया जाएगा। और, इस योजना को नौसेना और वायु सेना तक के लिए लागू कर दिया गया था, जहां न तो इसकी जरूरत थी और न ही मंशा।
इसका अर्थ हुआ कि इसे ऊपर से थोपा गया और इसे प्रधानमंत्री का (क्योंकि किसी और की तो कोई गिनती है ही नहीं) मास्टर स्ट्रोक बता दिया गया। इससे सेना का वह रूप पूरी तरह बदल जाएगा जो 18वीं सदी से यानी करीब 200 साल से काम कर रही है।
आखिर कोई चीज़ कारगर है तो उसे क्यों बदलना?
सवाल इस अद्भुत फैसले पर भी पूछा जा सकता है कि आखिर नोटबंदी कर सारे नोटों को एक साथ क्यों रद्द कर दिया गया था। आखिर किसकी मांग थी कि ₹1000 और ₹500 को नोटों पर पाबंदी लगा दी जाए? रिजर्व बैंक ने इसकी मांग करना तो दूर, उलटे इसका विरोध करते हुए चेतावनी भी दी थी, जो सही साबित हुई कि इस फूहड़ फैसले से अर्थव्यवस्था बरबाद हो जाएगी।
न ही अर्थशास्त्रियों या कारोबारी समुदाय ने और नागरिकों ने तो बिल्कुल भी इसकी मांग नहीं की थी। बस सरकार को ऐसा लगा तो कर दिया गया। नए अपराध कानून बनाने के पीछे भी यही सोच है।
इससे न सिर्फ न्यायपालिका, पुलिस, वकील और आम नागरिकों को नए कानून जानने-समझने की जरूरत होगी, बल्कि इससे पुराने कानूनों पर स्थापित न्यायशास्त्र को भी खतरे पैदा हो जाएगा और कई तरह की छोटी-बड़ी समस्याओं का जन्म होगा जो वर्तमान में मौजूद नहीं हैं। इसकी मिसालें तो यह है कि जिन सामान्य कानून का हम पालन करते हैं उनका आधार पहले जैसा हो जाएगा। तो फिर इस बदलाव की कौन मांग रहा था? न्यायाधीश या पुलिस या वकील या नागरिक तो बिल्कुल नहीं।
संजय हेगड़े ने चेतावनी दी है कि एक बार यह कानून अमल में आ गए तो हमारी नई संहिता पहले से कहीं ज्यादा और नोटबंदी से अधिक विघटनकारी हो जाएगी।
सिर्फ उम्मीद कर सकते हैं कि ऐसा न हो, हालांकि बीते एक दशक के सबूत इस बात के लिए काफी हैं कि किसी भी बदलाव को लागू करने से पहले न तो पर्याप्त सोच-विचार किया गया और न ही उन्हें लागू करने की वैसी तैयारी जितनी जरूरत थी। और उन लोगों के लिए जो ऐसे फैसलों से लगातार हैरान रहते हैं और फिर भी सवाल पूछते हैं: आखिर हम ऐसा क्यों कर रहे हैं?, इसका उत्तर शायद उस मानसिकता में निहित है जो मानती है कि 'अगर कुछ टूटा नहीं है तो इसे तोड़ दो'।
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