विशेष लेख: आखिर क्यों जरूरी है आज पंडित जवाहर लाल नेहरू को याद करना!

आज हम नेहरू को एक ऐसे दौर में याद कर रहे हैं जब उन सभी मूल्यों पर खतरा मंडरा रहा है जिनके लिए उन्होंने संघर्ष किया और जिनकी बुनियाद पर भारत नाम के राष्ट्र का जन्म हुआ और उसका विकास हुआ।

16 जनवरी 1961 को भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर के उद्घाटन के मौके पर पंडित नेहरू (फोटो -  Getty Images)
16 जनवरी 1961 को भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर के उद्घाटन के मौके पर पंडित नेहरू (फोटो - Getty Images)

एक फासीवादी शासन युग की याद दिलाने वाले एक व्यापक प्रचार तंत्र का उपयोग करके आज पंडित नेहरू को बदनाम करने का प्रयास किया जा रहा है, उनके बारे में लगातार गाली-गलौज और झूठ को दोहराया जा रहा है। पंडित नेहरू को भारत में सभी बुराइयों, आर्थिक पिछड़ेपन, गरीबी, स्वास्थ्य और शिक्षा की कमी, कृषि क्षेत्र के पिछड़ेपन, कश्मीर और चीन की समस्याओं, सांप्रदायिकता में बढ़ोत्तरी और यहां तक कि भारत के विभाजन तक के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। यह भी कहा जाता है कि नेहरू तो वास्तव में एक मुसलमान थे, जैसे कि मुसलमान होना ही उनके लिए आखिरी अभियोग होगा। केरल के एक बीजेपी नेता ने तो आरएसएस की पत्रिका 'केसरी' में यहां तक लिख डाला कि गोडसे को गांधी के बजाय नेहरू पर गोलियां चलानी चाहिए थीं!

यहां तक कि ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारियों ने भी, जिनसे लड़ते हुए नेहरू ने अपने जीवन के 30 साल बिताए, उनमें से नौ साल तो जेल में थे (यह एक ऐसा तथ्य है जिसे बहुत आसानी से नजरंदाज कर भुला दिया गया है), उन पर इस तरह से हमला नहीं किया जितना कि आज की वह धार्मिक सांप्रदायिक ताकतें उन पर हमाल करती हैं जो भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को रोकने में अंग्रेजों को साथ थीं।

विशेष लेख: आखिर क्यों जरूरी है आज पंडित जवाहर लाल नेहरू को याद करना!

हमें आज अपने आप से यह सवाल पूछना चाहिए कि अगर नेहरू में इतनी ही बुराइयां थीं तो फिर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी (सुभाष बोस बापू को इसी नाम से बुलाते थे) ने उन्हें अपने उत्तराधिकारी के तौर पर क्यों चुना?

25 जनवरी 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में दिए एक भाषण में गांधी जी ने ऐलान किया था, “….किसी ने सुझाव दिया कि....मेरे और नेहरू के बीच मतभेद हैं और हम अलग हो गए हैं, यह एकदम निराधार है...आप पानी को लाठी मारकर अलग नहीं कर सकते, हमें अलग करना इतना ही कठिन है..।” (यह उस प्रचार मशीनरी के लिए एक खुली चेतावनी है जो आज गांधी, नेहरू, बोस, पटेल, भगत सिंह, मौलाना आज़ाद जैसे हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं के बीच मतभेद पैदा करने और तथ्यों को तोड़मरोड़र पेश करने की कोशिश में लगी हुई है।) गांधी जी ने आगे कहा था, ““मैंने हमेशा कहा है कि न राजाजी, न सरदार वल्लभभाई, बल्कि जवाहरलाल मेरे उत्तराधिकारी होंगे…। जब मैं चला जाऊंगा... वह मेरी भाषा भी बोलेगा। अगर ऐसा न भी होता तो कम से कम मैं तो इसी विश्वास के साथ मर जाता।"

आखिर गांधी जी को पंडित नेहरू पर इतना विश्वास क्यों था? पहली बात यह क्योंकि नेहरू ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के सभी बुनियादी मूल्यों का प्रतिनिधित्व किया और उनके लिए लड़ाई लड़ी, जिसे टैगोर ने "भारत का विचार" कहा था। इनमें देश की संप्रभुता और आत्मनिर्भरता के मूल्य, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, एक गरीब-समर्थक अभिविन्यास और एक आधुनिक वैज्ञानिक स्वभाव का समावेश था। दूसरी बात यह क्योंकि, नेहरू को भारत के विचार को उस नवजात राष्ट्र में लागू करने में सबसे सक्षम व्यक्ति के रूप में देखा गया था, जिसका नया जन्म होने वाला था। यह एक ऐसा कार्य था, जिसे नेहरू ने प्रधानमंत्री के रूप में आजादी के बाद के पहले 17 वर्षों तक बड़ी महिमा के साथ निभाया।


आज उसी भारत के विचार पर खतरा है, तो हम नेहरू से क्या सीख सकते हैं?

भारत के विचार के लिए सबसे बड़ी चुनौती स्वतंत्रता के साथ ही सामने आई जब विभाजन के पहले और बाद में धार्मिक सांप्रदायिक दंगों के कारण प्रलय जैसी स्थिति पैदा हुई जिसमें लाखों लोगों की जान गई और लाखों लोग शरणार्थी बन गए। इससे भी बड़ी आपदा यह आई कि हिंदू सांप्रदायिक ताकतों ने गांधी जी की हत्या कर दी। इस हत्या को नेहरू ने साफ तौर पर एक देश की प्रकृति बदलने की कोशिश के तौर पर देखा। जैसा कि पंडित नेहरू ने 5 फरवरी 1948 को मुख्यमंत्रियों को लिखा था "...जानबूझकर तख्तापलट की एक योजना बनाई गई थी जिसमें कई व्यक्तियों की हत्या कर सामान्य अव्यवस्था को बढ़ावा देना शामिल था ताकि एक खास समूह को सत्ता पर कब्जा करने में सक्षम बनाया जा सके।" भारत को एक 'मुस्लिम पाकिस्तान' के प्रतिबिंब के रूप में, 'हिंदू भारत' की छवि बनाने की कोशिश की गई। लेकिन हमारे राष्ट्रवादी नेता ऐसा नहीं होने देने वाले थे। नेहरू ने सरदार पटेल के पूर्ण समर्थन से आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया था और उसके 25,000 कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया। उन्होंने हिंसा को रोकने और धार्मिक समुदायों के बीच शांति लाने के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी।

यह बात भी जानना-समझना जरूरी है कि पंडित नेहरू ने 1951-52 के आम चुनाव को इस बात के साफ जनादेश में बदल दिया था कि लोग एक धर्मनिरपेक्ष भारत के पक्ष में हैं या फिर ‘मुस्लिम पाकिस्तान’ की तरह एक ‘हिंदू भारत’ के हिमायती। उन्होंने कम से कम 40,000 किलोमीटर की यात्रा की और करीब 3.5 करोड़ लोगों (हर दसवें भारतीय को) को संबोधित किया और देश में धर्मनिरपेक्षता को प्रोत्साहित किया। नतीजे इस नाते भी बहुत नाटकीय थे क्योंकि इससे पहले देश सांप्रदायिक तनाव का गवाह बना था। हिंदू सांप्रदायिक दल, हिंदू महासभा, जनसंघ, रामराज्य परिषद आदि मिलकर भी सिर्फ 6 फीसदी वोट और 489 में से सिर्फ 10 लोकसभा सीटें जीत पाए। यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी। सांप्रदयिक चुनौती को दशकों के लिए मात दे दी गई थी, लेकिन दुर्भाग्यवश यह खत्म नहीं हुई थी।

अब जब सांप्रदायिक ताकतें फिर से सिर उठाकर खड़ी हो गई हैं, तो नेहरू की चेतावनी को याद रखना आवश्यक है कि बहुसंख्यक सांप्रदायिकता "स्वयं को राष्ट्रवाद का चोला पहनकार सामने आ सकती है" और दरअसल यह "फासीवाद का भारतीय संस्करण ..." है और इसके खिलाफ अथक संघर्ष किया जाना चाहिए।

भारत के विचार के दूसरे तत्व लोकतंत्र पर भी खतरा गहरा चुका है। विश्व के जाने-माने संस्थानों ने डेमोक्रेसी इंडेक्स (लोकतंत्र का मापने वाले सूचकांकों) में भारत की रैंकिंग को कम कर दिया है और भारत को एक “त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र” या "चुनावी निरंकुशता" वाले देश के रूप में वर्णित किया है। इस मामले में भी नेहरू से बहुत कुछ सीखना है। नेहरू के लिए, लोकतंत्र और नागरिक स्वतंत्रता पर किसी किस्म का कोई समझौता नहीं हो सकता था। उन्होंने कहा था, “मैं किसी भी चीज के लिए लोकतांत्रिक पद्धति का त्याग नहीं करूंगा।” उनके लिए लोकतंत्र का अर्थ था स्वतंत्र प्रेस जो सबसे बड़े अधिकारी या पद पर बैठे किसी भी व्यक्ति की कड़ी से कड़ी आलोचना कर सकती हो। उनके लिए लोकतंत्र का अर्थ था एक मजबूत विपक्ष को प्रोत्साहित करना और उसका सम्मान करना।

1950 में पंडित नेहरू ने ऐलान किया, “मैं एक ऐसा भारत नहीं चाहता जहां लाखों लोग किसी एक व्यक्ति के लिए हां बोलें। मैं एक मजबूत विपक्ष चाहता हूं।” एक और जगह उन्होंने हाल की घटनाओं का आभास करते हुए कहा था, “यह इतना बड़ा देश है जिसमें तमाम वैध विविधताएं हैं जो किसी भी कथित ‘मजबूत व्यक्ति’ को लोगों और उनके विचारों को कुचलने की अनुमति नहीं देतीं।”

संप्रभुता और आत्मनिर्भरता के मुद्दे पर नेहरू के कृत्य उनके शब्दों जितने ही महत्वपूर्ण थे। उन्हें इस बात में कोई संदेह नहीं था कि जब तक आर्थिक स्वतंत्रता नहीं हासिल कर ली जाती तब तक राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं है। उन्होंने नेहरू-महालनोबिस रणनीति और सार्वजनिक क्षेत्र का इस्तेमाल कर भारत को स्वतंत्रता के वक्त के एक आभासी नव-औपनिवेश स्थिति से उबारा जब हम पूंजीगत वस्तुओं और मशीनरी के लिए उन्नत या विकसित देशों पर लगभग पूरी तरह यानी 100 फीसदी निर्भर थे। और ऐसी स्थिति बनाई कि 1960 तक हम सिर्फ 43 फीसदी और 1970 तक सिर्फ 9 फीसदी आयात पर निर्भर थे। आर्थिक आत्मनिर्भरता की दिशा में इस कदम ने भारत को एक स्वतंत्र विदेश नीति बनाने और गुटनिरपेक्ष आंदोलन में 100 से अधिक देशों का नेतृत्व करने में सक्षम बनाया, जिसने किसी भी महाशक्ति के आगे घुटने टेकने से इनकार कर दिया।

कृषि क्षेत्र को नजरंदाज करना तो दूर की बात, नेहरू ने तो भूमि सुधार और आवश्यक तकनीकी बदलाव कर भारत को हरित क्रांति के रास्ते पर अग्रसर कर स्थापित किया। उन्हें मालूम था कि खाद्य सुरक्षा के बिना सच्ची संप्रभुता प्राप्त नहीं की जा सकती। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डेनियल थॉर्नर ने इस झूठ की धज्जियां उड़ा दीं जिसमे कहा जाता है कि "शुरुआती पंचवर्षीय योजनाओं में कृषि की उपेक्षा की गई।" उन्होंने कहा, "तथ्य यह है कि भारत की आजादी के पहले इक्कीस वर्षों में, कृषि में परिवर्तन को बढ़ावा देने के लिए और कहीं अधिक काम किया गया है जोकि पिछले दो सौ सालों की तुलना में कहीं अधिक काम था।”


इतना ही नहीं, नेहरू ने इस बात को भी समझ लिया था कि विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हुए बिना संप्रभुता को हासिल नहीं किया जा सकता। यह वह क्षेत्र था जो औपनिवेशिक काल में बिल्कुल बंजर पड़ा रहा था। ज्ञान क्रांति को भांपते हुए नेहरू ने 1950 के दशक में ही आईआईटी, आईआईएम, एनपीएल, एनसीएल, बार्क, एम्स आदि की स्थापना की। वास्तविकता यह है कि आज देश का सेवा क्षेत्र सबसे बड़ा सेक्टर है जो देश की जीडीपी में आधे से अधिक का योगदान देता है, वह सिर्फ उस ज्ञान क्रांति पर आधारित है जिसकी शुरुआत जवाहर लाल नेहरू ने की थी। इस शुरूआत के चलते ही देश के वैज्ञानिक नजरिए में इजाफा हुआ जिसे आज ध्वस्त करने की कोशिशें सर्वोच्च पदों से यह दावा करके की जा रही हैं कि प्लास्टिक सर्जरी और न्यूक्लियर मिसाइल (अर्जुन के नाभिकीय बाण) प्राचीन काल से ही भारत में थे और कोरोना को ताली, थाली, गोबर, गौ-मूत्र और गंगा स्नान से भगाया जा सकता है।

और अंतिम बात, हालांकि यह अंतिम नहीं हो सकती, अपने गुरु महात्मा की तरह ही नेहरू ने कभी भी गरीबों के उत्थान का मार्ग नहीं छोड़ा। उन्होंने इस बात को 1952 में कुछ इस तरह कहा था, “अगर गरीबी और (जीवन का) निम्न स्तर जारी रहा तो अपने शानदार संस्थानों और आदर्शों के बावजूद लोकतंत्र एक मुक्ति शक्ति नहीं रह जाएगा। इसलिए गरीबी उन्मूलन का लक्ष्य सदा सामने रहना चाहिए...” यह वह विरासत है जिसे हमें ऐसे समय में याद करने की जरूरत है जब भारत हंगर इंडेक्स में सबसे निचले पायदान पर पहुंच गा है, हमारी आधे से अधिक बच्चे कुपोषण का शिकार हैं और गंगा में तैरती लाशें हमें याद दिला रही हैं कि गरीबों के पास अपने प्रियजनों के अंतिम संस्कार तक के साधन नहीं हैं।

भारत को उस स्थिति से. जिसे टैगोर ने कहा था कि अंग्रेजों द्वारा छोड़ी गई ‘कीचड़ और गंदगी’ (उस समय 84 फीसदी देश अनपढ़ था और स्वतंत्रता के समय भारतीयों का आम जीवन मात्र 30 साल हुआ करता था) निकालने के लिए नेहरू के शानदार प्रयासों को आज तब और अधिक याद करने की जरूरत है जब हम देश को अंधकार में गिरते हुए देखते हैं। बहुत ही नाजुक रूप से तैयार किए गए धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को तहस-नहस कर दिया गया है, गरीबों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है और 'बोलने और समूब बनाने की स्वतंत्रता' जो कि हमारे राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक थी, उसे नागरिकों से तेजी से छीना जा रहा है

(मृदुला मुखर्जी जेएनयू में आधुनिक भारतीय इतिहास की प्रोफेसर थीं और आदित्य मुखर्जी समकालीन इतिहास के प्रोफेसर थे। इस लेख में उनके निजी विचार हैं)

(यह लेख 27 मई 2022 को पहली बार प्रकाशित हुआ था। आज पंडित नेहरू की पुण्यतिथि है, इसलिए इस लेख को आज पुन: प्रकाशित कर रहे है)

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Published: 27 May 2022, 8:00 AM