सिल्कयारा सुरंग हादसा: हादसे की जिम्मेदारी तय कर अभी तक क्यों नहीं हुई है किसी के खिलाफ कोई कार्यवाही!
इसका जवाब सरकार को देना होगा कि सिल्कयारा सुरंग को मेन टेक्टोनिक थ्रस्ट लाइन के बगल में क्यों बनाया जा रहा है। इस हादसे में किसी पर कोई जिम्मेदारी नहीं डाली गई है। सरकार कहती रही है कि श्रमिक बाहर आ जाएं तो एफआईआर बाद में हो जाएगी।।
विडंबना ही है कि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी 28 नवंबर को देहरादून में आयोजित ‘छठे विश्व आपदा प्रबंधन सम्मेलन’ में अतिथि थे। सम्मेलन का उद्देश्य आपदाओं से निपटने, इन्हें रोकने की चुनौतियों पर समेकित चर्चा के लिए निर्माताओं, कार्यकर्ताओं और वैज्ञानिकों को एक मंच पर लाना था। संयोग ही था कि उसी शाम एक दर्जन ‘चूहा खनिकों’ और चूहे के बिलों में काम करने के उनके अनुभव की बदौलत, सिल्क्यारा सुरंग में फंसे 41 श्रमिकों की 17 दिन लंबी कठिन परीक्षा और दुःस्वप्न खत्म हुआ।
यदि 4.5 किलोमीटर लंबी सुरंग में आपात मार्ग निर्माण सहित आपदा प्रबंधन सिस्टम लागू होता तो इस दुःस्वप्न की नौबत ही न आती। शायद डब्लूडीएमसी अब इस बात पर ध्यान दे कि आगे ऐसे हादसे रोकने के लिए क्या होना चाहिए?
400 घंटे लंबा सस्पेंस भरा बचाव अभियान समाप्त होने और सिल्कयारा सुरंग में फंसे 41 श्रमिकों को सीमेंट पाइपों के सहारे स्ट्रेचर पर रखकर बाहर निकाले जाने के बाद पूरा देश राहत की सांस लेता नजर आया।
मोदी सरकार ने इस पूरे रेस्क्यू ऑपरेशन को मीडिया इवेंट में तब्दील कर दिया। जब बचाए गए श्रमिक सुरंग से बाहर लाए जा रहे थे, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी उन्हें माला पहनाते और केन्द्रीय परिवहन व राजमार्ग राज्यमंत्री जनरल वीके सिंह (सेवानिवृत्त) उनके गले में सफेद रेशमी दुपट्टा डालते दिखे। 17 दिन की खौफनाक कैद से निकले स्तब्ध श्रमिकों ने जो अभी त्रासदी से उबर भी नहीं पाए थे कि खुद को बड़ी संख्या में वीआईपी से घिर पाया।
अब जबकि बचाव अभियान सफल हो चुका है, यही समय है जब हम देखें कि हमारा देश पारिस्थितिकीय रूप से नाजुक हिमालयीन क्षेत्र में सुरंगनुमा गुफाओं और अन्य आपदाओं की बढ़ती संख्या झेलने को अभिशप्त क्यों है और भविष्य में ऐसी आपदाएं रोकने के लिए अधिक से अधिक और तत्काल क्या सुरक्षा इंतजाम होने चाहिए।
भारती इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी की अनुसंधान निदेशक डॉ. अंजलि प्रकाश की चेतावनी कि हमारी मौजूदा नीतियां हिमालय से खिलवाड़ कर रही हैं, दरअसल इसी लोकप्रितावादी मनोदशा का बयान है: ‘हम जैसे नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र में रह रहे हैं, ऐसी आपदाएं बढ़ने वाली हैं। हमें उन सभी परियोजनाओं पर नए सिरे से सोचना होगा जिन्हें हम हिमालयीन क्षेत्र में क्रियान्वित कर रहे हैं। सुरक्षा पहलुओं के मद्देनजर इनमें से हर परियोजना का पुनर्मूल्यांकन जरूरीहै।’
चार धाम योजना क्रियान्वित करने वाली नोडल संस्था भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के पूर्व अध्यक्ष राघव चंद्रा तो एक कदम और आगे की बात करते हैं। चंद्रा ‘विकास की महत्वाकांक्षा और पर्यावरण संरक्षण’ के बीच संतुलन बनाने पर जोर देते हैं। उनकी चेतावनी है कि सरकार द्वारा नियुक्त किए जा रहे सलाहकार सही दिशा में काम नहीं कर रहे। उनका मानना है कि “सलाहकार डीपीआर बनाते समय कोताही कर रहे हैं। उचित तकनीकी मूल्यांकन नहीं हो रहा और नतीजतन उन्हें लापरवाही से निष्पादित किया जा रहा है।”
रेलवे के पूर्व सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता आलोक वर्मा की टिप्पणी और भी तीखी है: “यह सुरंग क्यों ढह गई? दुनिया भर में सुरंगों का ढहना एक दुर्लभ घटना है और यह डिजाइन और निर्माण- दोनों की विफलता दर्शाता है। इस सुरंग का निर्माण करने वाली हैदराबाद नवयुग इंजीनियरिंग कंपनी के सभी दस्तावेज तत्काल जब्त कर लेने चाहिए ताकि वे महत्वपूर्ण सबूत नष्ट न कर सकें।”
वर्मा सिल्कयारा सुरंग ढहने और भारतीय रेलवे द्वारा निर्माण कार्य के दौरान बारह सुरंग ढहने की घटनाओं के बीच भी कड़ी जोड़ते हैं। उनका कहना है कि “सड़क मंत्रालय और रेलवे- दोनों अलग-अलग खोल में रहकर काम नहीं कर सकते बल्कि उन्हें एक-दूसरे से सीखने की जरूरत है। आखिर निर्माण भी उसी माहौल में हो रहा है।” दो दुर्घटनाओं का जिक्र करते हुए वर्मा कहते हैं कि किस तरह पिछले साल मिजोरम के आइजॉल में एक रेल पुल ढहने से 23 श्रमिकों की मृत्यु हुई थी। एक और बड़ी दुर्घटना में, 2022 में मणिपुर के नोनी जिले में एक मेगा रेलवे परियोजना के बीच भारी भूस्खलन से 62 लोग मर गए जिनमें तीन रेलवे इंजीनियर भी थे। वर्मा ने कहा, “इनमें से किसी भी दुर्घटना को वैसा प्रचार नहीं मिला जैसा ‘सिल्कयारा’ को मिला, और न वैसी सक्रियता और संसाधन दिखे जो इस मौजूदा बचाव अभियान में झोंके गए थे।”
कोई संदेह नहीं है कि सरकार ने इन श्रमिकों को बचाने में अपनी पूरी मशीनरी लगा दी लेकिन अन्य सड़क या ट्रेन संबंधी आपदाओं में प्रायः ऐसा नहीं होता। फरवरी, 2021 में 200 से ज्यादा श्रमिकों की मृत्यु हो गई जब ऋषिगंगा जल विद्युत परियोजना और एनटीपीसी की तपोवन विष्णुगाड परियोजना बाढ़ में बह गईं लेकिन उनके परिवारों को अभी भी मृत्यु प्रमाण पत्र नहीं मिला। वे प्रति श्रमिक 20 लाख रुपये के मुआवजे का इंतजार भी कर रहे हैं जिसकी घोषणा आपदा के वक्त की गई थी।
दूसरा विवादास्पद सवाल यह कि जब केन्द्र सरकार हिमालय में एक विशाल ढांचागत विकास कार्यक्रम कर रही है, तो सिल्क्यारा सुरंग आपदा में सामने आई स्थितियों का पूर्व-आकलन कर कोई उचित आपदा प्रबंधन तैयारी क्यों नहीं की गई। यह एक ‘ट्रायल एंड एरर’ था जिसमें विशेष भारतीय वायुसेना के विमानों में देश के लगभग हर कोने से महंगी मशीनरी लाई गई थीं।
वर्मा कहते हैं, “इन ऑगुर मशीनों का इस्तेमाल करने के लिए कुशल तकनीशियन चाहिए होते हैं। लगता है कि उन पर दिन-रात सुरंग खोदते रहने का भारी राजनीतिक दबाव था, और इसीलिए इसके पाइप लोहे की छड़ों और अन्य बाधाओं से टकराने के बावजूद वे वही करते रहे जबकि उन्हें ड्रिलिंग तुरंत बंद कर देना चाहिए था।”
वर्मा कहते हैं कि “एक और सवाल यह भी कि उचित जमीनी सर्वेक्षण बिना बचाव अभियान शुरू क्यों किया गया? जबकि सुरंग के विभिन्न छोरों और ऊपर से हो रही ड्रिलिंग से बड़ी आशंका थी कि सुरंग का कोई हिस्सा धंस न जाए जिससे कोई बड़ी आपदा हो सकती थी।”
अभी तक इस सुरंग के मामले में किसी भी संगठन पर कोई जिम्मेदारी नहीं डाली गई है। मुख्यमंत्री धामी और जनरल सिंह से जब यह सवाल पूछा गया, तो उनका जवाब था कि फिलहाल तो उनका ध्यान इन फंसे हुए श्रमिकों को बचाना था, एफआईआर बाद में हो जाएगी।
इस रेस्क्यू ऑपरेशन की लागत कई करोड़ में होगी। क्या अब एनईसी कार्रवाई करेगी या सरकार उन सलाहकारों पर भी कोई जुर्माना लगाएगी जिन्होंने कथित तौर पर घटिया डीपीआर बनाई। इस भयावह आपदा के लिए किस पर जिम्मेदारी तय होती है, बहुत ज्यादा पारदर्शिता की जरूरत है।
ऑस्ट्रेलियाई सुरंग विशेषज्ञ डिक्स जो एक वकील और भूविज्ञानी दोनों हैं, ने उत्तरकाशी में प्रेस को बताया कि यह उनके जीवन के सर्वाधिक मुश्किल ऑपरेशनों में से एक था क्योंकि इसमें बहुत बड़ा जोखिम था। फंसे श्रमिकों को कोई चोट नहीं आई थी, ऐसे में बचावकर्मियों को यह सुनिश्चित करना था कि हर व्यक्ति सुरक्षित और स्वस्थ बाहर आए।
ज्यादातर पर्यावरणविदों का मानना है कि इन हिमालयीन आपदाओं की जड़ असल में राजनेताओं द्वारा हजारों करोड़ रुपये के ठेके अपने करीबी निर्माण एजेंसियों को देने की होड़ है।
वर्मा मानते हैं कि, “देश में घरेलू विशेषज्ञों के इस्तेमाल की कोई व्यवस्था नहीं है। सरकार सड़क और रेल निर्माण में विदेशी सलाहकार ला रही है। कश्मीर में चल रहे रेल निर्माण में मदद के लिए 30 विदेशी सलाहकारों की सेवाएं ली गई हैं। ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लिंक में इनपुट देने के लिए अन्य सात सलाहकार नियुक्त हुए हैं। होना तो यह था कि सड़क और रेल संरेखण (अलाइनमेंट) में सबसे पहले जमीनी सर्वेक्षण होता जो नहीं हो रहा है और गड़बड़ी की स्थिति में भारी लागत पर विदेशी सलाहकार लाये जाते हैं, जैसा इस आपदा में भी दिखा।”
संपूर्ण चार धाम योजना में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ समिति के पूर्व सदस्य, हेमंत ध्यानी जोर देकर कहते हैं कि एक संकरी सुरंग बनाने के उनके सुझाव की लगातार अनदेखी की गई, नतीजतन विस्फोट होते रहे और ढहने का खतरा बढ़ गया। ध्यानी का मानना है कि पर्यावरणीय जोखिम आकलन की उपेक्षा हुई क्योंकि परियोजना के 100 किलोमीटर से कम के खंडों में बंटे होने के कारण सुरंगों को छूट दी गई। ध्यानी कहते हैं, “यह हम सभी के लिए गंभीर चेतावनी है।”
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज में भूविज्ञानी और सहायक प्रोफेसर सीपी राजेंद्रन पांच वर्षों से इन नाजुक और युवा पहाड़ों में बड़े पैमाने पर चल रहे निर्माण कार्य के खिलाफ चेतावनी देते रहे हैं। सिलक्यारा सुरंग के सवाल पर राजेंद्रन ने कहा कि उत्तरकाशी में सिलक्यारा-बड़कोट सुरंग का निर्माण शुरू होने से पहले टेक्टोनिक फॉल्ट लाइनों पर ध्यान नहीं दिया गया था। हिमालय के साथ मुख्य सेंट्रल थ्रस्ट टेक्टॉनिक फॉल्ट लाइन सड़कों और सुरंगों के निर्माण के लिए खतरा पैदा करती है और बड़ा सवाल है कि सिल्क्यारा सुरंग इस फॉल्ट लाइन के करीब क्यों स्थित थी जिसके कारण यह पूरा निर्माण बेहद जोखिम भरा उद्यम बन गया।
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