क्यों बिना किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत वाली संसद उम्मीद जगाती है सामाजिक व्यवस्था की!

क्यों ऐसी संसद सहभागी सामाजिक व्यवस्था की आशा दिला रही है जिसमें किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला।

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गणेश एन देवी

चुनावों के राजनीतिक नतीजों के बारे में पहले ही बहुत कुछ कहा जा चुका है - मीडिया से लेकर सड़कों पर, ड्राइंग रूम से लेकर कार्यालयों में। इतना कहा गया कि लगने लगे कि इसके बारे में शायद ही कुछ अनकहा रह गया हो। फिर भी, आपातकाल के बाद मार्च, 1977 के हुए चुनाव को छोड़कर पिछले सभी चुनावों से 2024 का यह चुनाव इतना अलग रहा है कि टिप्पणीकार और इतिहासकार लंबे समय तक इस पर चर्चा करते रहेंगे।

1977 में आपातकाल चुनावों पर हावी था और कोई नहीं जानता था कि परिणाम क्या होगा। इंदिरा गांधी की हार के बाद खुशी स्वतःस्फूर्त थी। 2024 के चुनाव अभूतपूर्व प्रचार, संस्थागत कब्जे, राज्य की निगरानी और राजनीतिक विरोधियों एवं असंतुष्टों को डराने-धमकाने के बीच अत्यधिक सांप्रदायिक माहौल में हुए।

जब 4 जून को यह स्पष्ट हो गया कि नतीजे पूर्व नियोजित एग्जिट पोल के अनुसार एकतरफा नहीं हैं, तो राहत की सांस ली गई, कुछ हद तक 1977 के नतीजों के बाद की स्थिति की तर्ज पर। बीजेपी ने राम मंदिर और खुलेआम विभाजनकारी अभियान से जिस चुनावी लाभ की उम्मीद की थी, वह साकार नहीं हुआ। साफ है कि प्रचार अभियान ने मतदाताओं को उम्मीद के मुताबिक प्रभावित नहीं किया।

किसी भी पार्टी को निर्णायक बहुमत नहीं मिला। काउंटिंग के दिन शुरू में ही स्पष्ट हो गया कि संभवत: किसी को बहुमत न मिले लेकिन इसके बाद भी लोग खुश थे। क्योंकि उन्हें भारतीय लोकतंत्र के लिए उम्मीद की एक नई किरण दिखी। इस उम्मीद की प्रकृति क्या थी? इस सवाल का जवाब देने के लिए मैं राहुल गांधी द्वारा चुनाव के अंतिम चरण के दौरान चंडीगढ़ की एक बैठक में नागरिक समाज के सदस्यों से कही गई बातों का उल्लेख करना चाहूंगा।

वह ‘आधुनिक भारत की नींव रखने वाली तीन ऐतिहासिक बहसों’ के उल्लेख पर प्रतिक्रिया दे रहे थे। इनमें से पहली बहस 19वीं सदी की शुरुआत में हुई थी जिसमें विवाद करने वाले भारतीय समाज के भविष्य के लिए ‘सनातन’ (पारंपरिक) और ‘नूतन’ (आधुनिक) मूल्यों के गुणों पर बहस कर रहे थे। दूसरी बहस नागरिकता की प्रकृति पर थी जिसमें एक पक्ष संविधान और ‘भारत में मौजूद सभी लोगों’ को नागरिक मानने की अवधारणा का पालन कर रहा था जबकि दूसरा पक्ष इस बात पर जोर दे रहा था कि जिन लोगों की ‘पितृभूमि’ उनकी ‘पुण्यभूमि’ (उनके मुख्य धार्मिक स्थान) भी है, वे प्राथमिक नागरिक हैं। तीसरी बहस भारत की संरचना के बारे में थी: एक ‘राज्यों के संघ’ (जैसा कि संविधान में परिभाषित किया गया है) बनाम मजबूत केंद्र और ‘मजबूत नेता’ के प्रभुत्व वाले ‘राष्ट्र’ के रूप में भारत।


ये तीनों बहसें बहुत पहले सुलझ चुकी थीं। भारतीयों ने संविधान के माध्यम से भारी सर्वसम्मति से चुना कि भारत को ‘एक आधुनिक राष्ट्र’ होना चाहिए; सभी नागरिकों को उनके अलग-अलग धर्मों और जातीयता के बावजूद समान अधिकारों की गारंटी दी जानी चाहिए; और भारत को एक साझा इतिहास से बंधे राज्यों का संघ होना चाहिए।

राहुल गांधी इन बहसों की आधारभूत प्रकृति पर सहमत थे लेकिन उन्होंने कहा कि संविधान कई अन्य बहसों पर भी आधारित था। उन्होंने कहा कि संविधान मूलतः ‘सत्ता हस्तांतरण का दस्तावेज’ है, यह ‘सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया को स्पष्ट रूप से इंगित करने वाला दस्तावेज’ भी है। फिर उन्होंने पूछा: ‘क्या हस्तांतरण हुआ है? जब लगभग सभी दलित, आदिवासी, विमुक्त जनजाति, अनुसूचित जाति, मजदूर, किसान, ग्रामीण, महिलाएं और अन्य हाशिये पर पड़े लोगों को सत्ता से बाहर रखा जाता है, तो हम संविधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को कैसे पूरा मान सकते हैं?’

राहुल ने उपस्थित लोगों से एकजुट होने और भारत को सत्ता का हस्तांतरण पूरा करने में मदद करने की अपील की जो कुछ लोगों के हाथों में सिमट गई है जो सब कुछ नियंत्रित करते हैं- राजनीतिक सत्ता, नौकरशाही, न्यायपालिका, उच्च शिक्षण संस्थान और बड़े व्यवसाय- उन लोगों के हाथों में हैं जिनका श्रम सत्ता पिरामिड का समर्थन करता है।  

यह एक बहुत ही परिवर्तनकारी विचार है जो संसद में किसे कितनी सीटें मिलती हैं और कौन सी पार्टी अधिक सफल है, तक सीमित नहीं है। अपने संबोधन का समापन करते हुए उन्होंने कहा, ‘उनके (रूढ़िवादी, इकरंगे, क्रोनी कैपिटलिस्ट) पास एक दृष्टि है, इसलिए हमारे पास भी एक दृष्टि है। अगर उनकी दृष्टि किसी गूढ़ प्राचीन स्रोत से ली गई है, तो हमारी दृष्टि बुद्ध, बासव, नानक, कबीर, फुले, गांधी और आंबेडकर से जुड़ी विचार परंपरा पर आधारित है और हम इसके लिए लड़ेंगे।’ 

सामाजिक, राजनीतिक परिवर्तन की यह दृष्टि चुनावी सभाओं में नेताओं द्वारा वोट मांगने के दौरान सुनी जाने वाली बातों से कहीं अधिक व्यापक है। पिछले दशक से भारतीयों को जिस चीज की प्यास थी, वह सिर्फ शासन परिवर्तन नहीं था। मोदी शासन की ज्यादतियों, उसके अधिनायकवाद, उदार विचारों के प्रति उसकी असहिष्णुता से चुनावी तौर पर लड़ा जा सकता है लेकिन भारतीय समाज और भारतीय राजनीति में मौलिक परिवर्तन तभी संभव होगा जब देश का राजनीतिक और आर्थिक आभिजात वर्ग सच्चे अर्थों में एक सम समाज बनाने और सभी के लिए सम्मान का भाव पैदा करने के लिए अपनी जगह खाली करे।


राहुल गांधी ने भारत के सामने जो दृष्टि रखी है, वह भारतीय समाज के कई छोटे वर्गों की सोच से मेल खाती है- सामुदायिक कार्यकर्ता, सामाजिक विचारक, लेखक, कलाकार, तर्कवादी, नारीवादी, शिक्षाविद, वैज्ञानिक, शोधकर्ता, जनांदोलन करने वालों, एनआरआई समूह, प्रगतिशील उद्यमी, पर्यावरणविद और संविधान कार्यकर्ता। वह पिछले कुछ वर्षों से सक्रिय रहे हैं और उनके काम ने लोगों में एक अलग तरह की उम्मीद जगाई है।

अब जब चुनाव खत्म हो चुके हैं और हमारे पास एक ऐसी सरकार है जिसे कम जनादेश मिला है, तो यह समय है कि फासीवाद की ओर बढ़ते राष्ट्र का विरोध करने वाले सभी समूह एक साथ आएं, इस दृष्टिकोण को विकसित करें और इसके इर्द-गिर्द एक मजबूत नैरेटिव का निर्माण करें।

इस तरह की पहल में राजनीतिक दलों और नागरिक समाज के लोगों के प्रस्तावित गठबंधन का केंद्र बिंदु निस्संदेह कांग्रेस बनी रहेगी। पहली प्राथमिकता तालुका और जिला स्तर पर पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच वैचारिक साक्षरता को बढ़ावा देने के लिए एक विशाल कार्यक्रम होना चाहिए। यह काम जल्द से जल्द शुरू होना चाहिए क्योंकि जल्द ही कई राज्यों में चुनाव के मैदान खुल जाएंगे और राहुल गांधी द्वारा व्यक्त किए गए वैचारिक सुधार पीछे छूट सकते हैं।

साथ ही, अगर यह काम राजनीतिक दलों और नागरिक समाज पर छोड़ दिया जाता है, तो यह कभी भी पूर्ण रूप से सफल नहीं हो सकता। देश, इसकी राजनीति और सामाजिक व्यवस्था के बारे में बात करने का एक नया तरीका खोजना जरूरी है, एक ऐसा तरीका जो हर गांव और कस्बे को बदलाव की प्रक्रिया से जोड़े। इसके लिए मौजूदा संवेदनशीलता में बड़े पैमाने पर बदलाव की ज़रूरत है।

इन चुनावों में इतने सारे लोगों ने जो बदलाव महसूस किया, उसके मूल में एक नई संवेदनशीलता का बीज है। 2024 के चुनाव भारत के समाज के बारे में सोचने के एक नए तरीके की शुरुआत का प्रतीक हैं, जहां सिर्फ सरकार का बदलाव उतना महत्वपूर्ण नहीं है। इस दृष्टि से कुछ हद तक लोगों की खुशी को समझा सकता है, भले ही उन्हें संसद में बहुमत न मिला हो।

(गणेश एन देवी लेखक और सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं।)

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