आकार पटेल का लेख: सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (AFSPA) खत्म करने की मांग क्यों तर्कसंगत नहीं लगती कुछ लोगों को !
कुछ लोग इस विशेष कानून को खत्म किए जाने के खिलाफ हैं। उन्हें इस बात को भी सोचना चाहिए कि क्या वे नगालैंड जैसी घटनाएं देखना चाहते हैं। इस कानून को खत्म करने से सिर्फ यह होगा कि किसी भी अपराध के लिए आम अपराधों की तरह अदालत में मुकदमा चलेगा, बस और कुछ नहीं।
नागालैंड में सेना द्वारा 14 भारतीयों की हत्या ने सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (AFSPA) को निरस्त करने की मांग को फिर से जिंदा कर दिया है। उत्तर पूर्व के दो मुख्यमंत्रियों ने कहा है कि वे चाहते हैं कि उनके राज्यों से इस कानून को खत्म कर दिया जाए। इस महीने के अंत में नागालैंड विधानसभा एक विशेष सत्र बुलाने वाली है जिसमें मांग की जाएगी कि इस कानून उनके राज्य से खत्म कर दिया जाए।
लेकिन इस कानून के पक्ष या विपक्ष में हम कोई राय रखें, दो बातों पर गौर करना जरूरी और रोचक होगा। पहली तो यह कि आखिर वे कौन सी विशेष शक्तियां हैं जो सशस्त्र बलों को मिली हुई हैं और दूसरी यह कि अगर इस कानून को खत्म किया गया तो इसके क्या अर्थ होंगे?
सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (AFSPA) का प्रमुख प्रावधान पुलिस, सेना और अर्धसैनिक बलों को ऐसे असीमित अधिकार देना है जिसके तहत 'अगर उन्हें लगता है कि कानून व्यवस्था बनाए रखने के गोली चलाना आवश्यक है' तो वे ऐसा करने के लिए स्वतंत्र हैं। सशस्त्र बलों की इस कार्रवाई में अगर किसी की मृत्यु भी हो जाती है तो भी उन पर बिना केंद्र सरकार की मंजूरी के कोई मुकदमा दर्ज नहीं किया जा सकता है।
दूसरी बात यह कि अगर सशस्त्र बलों को लगता है कि किसी जगह कोई अपराधी, या ऐसा व्यक्ति छिपा है जो सुरक्षा के लिए खतरा है तो वे उस जगह नेस्तनाबूद कर सकते हैं। इसके अलावा वे किसी भी व्यक्ति को बिना किसी वारंट के गिरफ्तार कर सकते हैं या हिरासत में ले सकते हैं और उस पर बल प्रयोग कर सकते हैं।
सोचिए, अगर सशस्त्र बलों को ऐसे अधिकार होंगे, तो जिस जगह वे तैनात हैं उस जगह की स्थिति कैसी होगी। ऐसे बलों को उन जगहों पर तैनात किया गया है जिन्हें सरकार ने होस्टाइल यानी गड़बड़ी वाली जगह घोषित किया हुआ है।
इस कानून को खत्म करने का क्या अर्थ होगा? इसका अर्थ होगा कि कोई भी व्यक्ति कोई अपराध करता है तो उसके खिलाफ पहले एफआईआर दर्ज होगी और फिर पुलिस मामले की जांच करेगी और फिर प्रथम दृष्टा साक्ष्यों के आधार पर चार्जशीट फाइल करेगी, इसके बाद उस व्यक्ति पर अदालत में मुकदमा चलेगा। अगर वह व्यक्ति दोषी साबित हुआ तो उसे सजा मिलेगी। इस कानून को खत्म करने का इतना ही अर्थ है।
तकनीकी तौर पर इस विशेष कानून में भी ऐसा ही प्रावधान है। सशस्त्र बलों के खिलाफ तैयार चार्जशीट को दिल्ली में सेना के मामलों के लिए रक्षा मंत्रालय और अर्धसैनिक बलों के मामले में गृह मंत्रालय को भेजा जाता है। इसके बाद ये मंत्रालय तय करते हैं कि ऐसा कृत्य करने वाले व्यक्ति को मिली हुई छूट जारी रहेगी या उस पर अदालत में मुकदमा चलेगा। पहली जनवरी 2019 को राज्यसभा में बताया गया कि 1989 से अब तक हत्या, यातना, अपहरण या बलात्कार जैसे किसी भी मामले में किसी भी व्यक्ति के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं दी गई
सेना का कहना है कि ऐसे मामलों में वह अपने आंतरिक अनुशासन पद्धति का इस्तेमाल करती है। हालांकि इसके लिए सैन्य अपराध वाली पद्धति का इस्तेमाल होना चाहिए। इसे आम नागरिकों या सिविलियन्स के खिलाफ हुए अपराधों में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। फिर भी आइए देखते हैं कि ऐसे मामलों में क्या होता है।
11 मई 2006 को जांच के बाद सीबीआई ने श्रीनगर के चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट की अदालत में सेना की 7 राष्ट्रीय राइफल्स यूनिट के एक कार्यरत सैन्यकर्मी के खिलाफ हत्या के आरोप दायर किए। सीबीआई का कहना था कि यह ठंडे दिमाग से की गई हत्या का मामला है और इसे सरकारी काम करते हुए की गई कार्रवाई नहीं कहा जा सकता, ऐसे में आरोपी को नहीं छोड़ा जाना चाहिए। लेकिन भारतीय सेना ने विशेष कानून का इस्तेमाल कर 5 सैन्यकर्मियों को बचा लिया। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी सेना के फैसले को सही माना और पूछा कि क्या वह इनका कोर्ट मार्शल करेगी या नहीं।
सितंबर 2012 में पथरीबल के पांच आम नागरिकों की हत्या के करीब 12 साल बाद सेना इस मामले को सैन्य न्यायिक सिस्टम में लाकर कोर्ट मार्शल की कार्रवाई शुरू करने का फैसला किया। 24 जनवरी 2014 को सेना ने सभी सैन्यकर्मियों को सबूतों के आधार पर बरी कर दिया। जो क्लोजर रिपोर्ट श्रीनगर की सीजेएम अदालत में दाखिल की गई उसके मुताबिक सेना ने मुकदमा तक नहीं चलाया और प्री-ट्रायल प्रक्रिया में ही सबको बरी कर दिया।
एक और केस में कश्मीर के माछिल इलाके की घटना में सैन्यकर्मियों पर तीन सिविलियन्स यानी आम नागरिकों की हत्या का मामला दायर हुआ, लेकिन सेन्य अभिकरण ने बिना किसी कवायद के इन्हें बरी कर दिया। 23 फरवरी 1991 को 4 राजपूताना राइफल्स उत्तरी कुपवाड़ा जिले के कुनन और पोशपोरा गांव में पहुंची। सेना ने सभी पुरुषों को घर के बाहर निकलने को कहा और फिर उनके घरों में सैनिक घुस गए।
वे पूरी रात घरों में रहे और आरोप है कि इस दौरान उन्होंने गांव की महिलाओं के साथ बलात्कार किया। इनमें 14 बरस की एक विकलांग बच्ची से लेकर 70 साल की एक दादी तक शामिल थीं। हालांकि इस मामले की एफआईआर दर्ज हुई थी लेकिन कुछ नहीं हुआ।
जो लोग इस विशेष कानून को खत्म किए जाने का विरोध कर रहे हैं उन्हें इस बात को भी सोचना चाहिए कि क्या वे ऐसी घटनाएं देखना चाहते हैं। इस विशेष कानून को खत्म करने से सिर्फ यह होगा कि किसी भी अपराध के लिए आम अपराधों की तरह अदालत में मुकदमा चलेगा, बस और कुछ नहीं।
सेना को खुद के द्वारा किए गए अपराधों के लिए खुद ही न्याय करने का अधिकार देना क्या उचित है। सरकार का अंग होने के नाते यह तो चाहेगी कि उसके इस अधिकार में कोई कमीबेशी न हो। लेकिन, यह कहना क्या तार्किक नहीं है कि अगर कोई सैन्यकर्मी अपराध करता है तो उस पर भी सिविल अदालत में वैसे ही मुकदमा चले जैसा कि किसी भी आम नागरिक पर चलता है? हालांकि अभी तो ऐसी उम्मीद करना ही अतार्किक लगता है। लेकिन, जो लोग इस विशेष कानून को हटाए जाने या खत्म किए जाने के विरुद्ध हैं, उन्हें तो ऐसा ही लगता है।
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