क्या है मोदी सकार की मंशा, आखिर यूपीए की जनहित की बड़ी उपलब्धियों से इतनी छेड़छाड़ क्यों?

एक स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था में अगर एक सरकार व्यापक सहमति के कोई अच्छे काम करती है तो बाद की सरकार भी उसे आगे बढ़ाती है। लेकिन बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने दोबारा सत्ता में वापसी के बाद यूपीए सरकार की दो बड़ी उपलब्धियों पर लगातार प्रहार किया है।

फोटोः सोशल मीडिया
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भारत डोगरा

यूपीए सरकार की दो बड़ी उपलब्धियां ऐसी रही हैं जिनकी प्रशंसा विश्व स्तर पर उस समय भी हुई और उसके बाद भी लंबे समय तक होती रही। इनमें से पहली उपलब्धि है देश को सूचना के अधिकार का प्रभावशाली कानून देना और दूसरी उपलब्धि थी ग्रामीण रोजगार गारंटी का कानून।

किसी भी अच्छी लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह गुण होता है कि एक सरकार ने जो व्यापक सहमति के अच्छे काम किए हैं, उन्हें बाद में आने वाली सरकार भी अपनाती है और आगे बढ़ाती है। लेकिन बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में ही इन दोनों उपलब्धियों से बड़ी छेड़छाड़ की और अब फिर से सत्ता में वापसी के बाद तो इस छेड़छाड़ को और भी आगे बढ़ाया जा रहा है।

गौरतलब है कि जब सूचना के अधिकार का कानून और ग्रामीण रोजगार गारंटी के कानून बने थे तब इन मुद्दों पर व्यापक सहमति थी और विपक्षी दलों द्वारा भी इन्हें कुल मिलाकर स्वीकृति मिली थी। अतः लोकतांत्रिक परंपरा की मांग तो यही थी कि इन महत्त्वपूर्ण कदमों का एनडीए सरकार भी अनुसरण करती और आगे बढ़ाती। लेकिन कड़वी सच्चाई तो यह है कि इन दोनों उपलब्धियों से एनडीए सरकारों ने निरंतरता से ऐसी छेड़छाड़ की है कि जिससे इन उपलब्धियों को बड़ा नुकसान हुआ है।

जब भारत में सूचना के अधिकार की आवाज जन-आंदोलन के स्तर पर उठी थी तो उस आरंभिक दौर में इस मांग को अधिक मान्यता प्राप्त नहीं थी। इस आरंभिक दौर में सूचना के जन अधिकार की राष्ट्रीय समन्वय समिति का समन्वयक होने के नाते इस लेखक को भरपूर अनुभव है कि उस समय इस अधिकार को सही और व्यापक अर्थ में समझने और समर्थन देने की बहुत कमी थी।


फिर जब इसे कुछ मान्यता मिलने लगी तो भी मजबूत कानून बनाने से राज्य सरकारें अक्सर पीछे हट रहीं थीं। इस स्थिति में जब यूपीए सरकार ने सूचना के अधिकार का मजबूत कानून बनाया तो इसका देश में ही नहीं विश्व स्तर पर बहुत स्वागत हुआ था। उन दिनों अनेक देशों में सूचना के अधिकार का कानून बनाने के प्रयास चल रहे थे। भारत जैसे महत्त्वपूर्ण देश में मजबूत कानून बन जाने से इन अन्य देशों के प्रयासों को भी बल मिला।

ऐसा नहीं है कि भारत में जो सूचना के अधिकार का कानून बना उसमें कोई कमी नहीं थी। थोड़ी-बहुत कमी तो इसमें भी थी, लेकिन कुल मिलाकर यह एक असरदार और मजबूत कानून था और एक व्यापक विमर्श से जो जरूरी मांगें निकली थीं उनकी बहुत हद तक स्वीकृति इस कानून में उपलब्ध हुई थी। यही वजह थी कि इस कानून को विश्व स्तर पर प्रशंसा मिली और इस दिशा के अपने प्रयासों में अनेक देशों ने इसे एक आदर्श कानून या माॅडल की तरह माना।

लेकिन साल 2014 में एनडीए सरकार के सत्ता में आने के बाद इस कानून के क्रियान्वयन में अनेक कमियां आईं। एक समस्या तो यह रही कि सूचना आयोगों में आयुक्तों के बहुत से पद रिक्त रहे जिससे सूचना न मिलने पर अपील पर सुनवाई बहुत देर से होने लगी। एक ओर सूचना समय पर देने के प्रति उपेक्षा बढ़ी और दूसरी तरफ अपील की व्यवस्था गड़बड़ाने लगी। इतना ही नहीं, केंद्रीय सूचना आयोग के बजट में काफी कटौती होने से भी इसका कार्य ठीक से करने में कठिनाईयां आईं। सूचना के अधिकार के पूरक अन्य काननी जैसे व्हिसल ब्लोअर प्रोटेक्शन कानून बनाने की उपेक्षा की गई।

अब हाल में मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में तो इस कानून का संशोधन कर सूचना आयोगों की स्वायत्ता और उनकी गरिमा पर सीधा प्रहार किया गया है। सूचना आयुक्त स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकें इसकी संभावना कम की गई है। हालांकि, अनेक विपक्षी दलों ने बहुत विरोध किया और इसे संसदीय समिति को भेजने के लिए कहा पर यह मांग स्वीकार नहीं की गई।


ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के कानून को भी विश्व स्तर पर प्रशंसा प्राप्त हुई थी। यह कानून भारत में ऐसे समय में बनाया गया था जब कि नियो-लिबरिज्म या नव-उदारवाद के दौर में अधिकांश देशों में राज्य जरूरतमंद लोगों के प्रति जिम्मेदारियों से पीछे हट रहा था। ऐसी स्थिति में लोगों को यह आश्चर्यजनक रूप से आशाप्रद लगा कि जिस देश की जनसंख्या विश्व में दूसरे नंबर पर है और जहां गांवों में अधिक लोग रहते हैं वहां की सरकार ने ग्रामीण रोजगार गारंटी का कानून बनाने की हिम्मत की है।

हालांकि, इस कानून में भी एक-दो कमजोरियां रह गईं थी पर कुल मिलाकर यह एक ऐसा कानून था जिसके अन्तर्गत ग्रामीण निर्धन वर्ग के लिए और गांवों में हरियाली लाने, वहां का जल-संकट दूर करने जैसे कार्यों के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है।

लेकिन इसके बावजूद बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के दौर में इस कानून के लिए पर्याप्त बजट की व्यवस्था नहीं की गई। अगर बढ़ती महंगाई और पिछले साल के बकायों को देखकर हिसाब लगाया जाए तो यह आवंटन और भी कम लगते हैं। बहुत कम दिनों के लिए काम मिलने और भुगतान देरी से होने के कारण लोगों का इस कानून में विश्वास कम होने लगा और इस कारण इस कानून की बेहद सार्थक संभावनाएं भी निरंतर कम होने लगी।

इन दोनों महत्त्वपूर्ण कानूनों की जरूरत और इनसे आम लोगों को मिलने वाले लाभ और अधिकारों को देखते हुए इनकी रक्षा करने और इनके उचित क्रियान्वयन के लिए जमीनी स्तर पर प्रयास जारी रखने चाहिए।

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