नागरिकों को निशाना बनाकर प्रताड़ित करने के लिए बनाए गए कानूनों पर क्यों नहीं करता मीडिया बहस, क्या ये 'खबर' नहीं है!
हम जिस अंत-स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं, जैसा कि मैंने पहले भी कई बार लिखा है, वह उसी का विस्तार है। पिछले कुछ वर्षों में जो हो रहा है वह होता रहेगा, लेकिन हम इसके बारे में कम और कम सुनेंगे क्योंकि ये सब अब समाचार नहीं है।
खबरों की परिभाषा होती है, “हाल की किसी घटना या हाल में बदलते हालात के बारे में सूचना”। लेकिन इस परिभाषा में कुछ कमी है, और वह है वह फिल्टर यानी कांट-छांट जो समाचारों पर लागू किया जाता है। ऐसी बातें या चीजें जो बहुत महत्वपूर्ण हैं, बहुंत रोचक हैं, बहुत प्रासंगिक हैं उन्हें समाचार संपादक और समाचार प्रोड्यूसर अन्य कम रोचक चीजों पर अधिक महत्व देंगे। कई बार खबरें पहले पन्ने से अंदर के पन्नों पर सिमट जाती हैं और अगर एक ही किस्म की बातें या घटनाएं बार-बार होती रहें, तो फिर वह ‘न्यूज़’ रह ही नहीं जाती हैं।
जिस बीबीसी डायक्यूमेंट्री से मौजूदा केंद्र सरकार नाराज है, उसमें मैंने हिंसा की एक ऐसी कैटेगरी यानी रूप के बारे में बात की है जिसमें हम बीफ लिंचिंग कहते हैं। अपने कई दशक के पत्रकारिता जीवन में मेरे सामने कभी भी बीफ लिंचिंग जैसी घटना की खबर सामने नहीं आई, हिंसा के इस रूप से जुड़ी तमाम घटनाएं हमारे सामने 2015 के बाद ही सामने आई हैं। इन सबकी शुरुआत प्रधानमंत्री के उस भाषण से हुई थी जिसमें उन्होंने पिंक रिवाल्यूशन (गुलाबी क्रांति) का जिक्र किया था और उसके बाद तमाम बीजेपी शासित राज्यों ने बीफ रखने को अपराध की श्रेणी में शामिल कर दिया। इसकी शुरुआत महाराष्ट्र और हरियाणा से हुई और उसेक बाद हिंसा के मामले सामने आने लगे।
सवाल है कि क्या उस किस्म की हिंसा का दौर थम चुका है? अभी 6 फरवरी को एक खबर की हेडलाइन थी, ‘असम में कई लोगों की लिंचिंग हुई, स्थानीय लोगों ने किया गिरफ्तारी का विरोध।’ इस मामले में जो मृतक था वह मुस्लिम था और उस पर एक गाय की चोरी का आरोप था। लेकिन यह खबर न्यूज चैनलों में नजर नहीं आई और न ही इस पर कोई डिबेट ही हुआ। इन लोगों को ऐसा करने के लिए समझाने का भी कोई अर्थ नहीं रह गया है। कोई मान सकता है कि मीडिया के लिए अब लिंचिंग या उसी किस्म के मामले अब महत्व के नहीं रहे या उनकी प्रासंगिकता और रोचकता खत्म हो चुकी है।
उसी दिन एक और खबर नजर आई जिसमें कहा गया था कि, ‘हरियाणा के मुस्लिम बहुल नूह इलाके में गौ हत्या के आरोपियों के बरी होने की दर 94 फीसदी’। वैसे तो इस खबर के विस्तार में जाने की जरूरत है लेकिन इससे साफ हो जाता है कि अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करने के लिए पुलिस का इस्तेमाल किया जा रहा है।
एक और खबर गुजरात से आई। हालांकि यह तीन महीने पुरानी घटना थी। इसमें 22 साल के एक व्यक्ति को पशु ले जाने के लिए उम्र कैद की सजा दे दी गई। जिन खबरों में इसका जिक्र था उनकी हेडलाइन में फैसला सुनाने वाले जज का बयान था। ऐसा ही एक बयान था, “धर्म का जन्म गाय से हुआ है, जिस दिन पृथ्वी पर गौहत्या रुक जाएगी उस सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा: गुजरात कोर्ट”
इस खबर के तीन महीने बाद अंग्रेजी मीडिया में सामने आने का कारण यह था कि फैसला गुजराती में सुनाया गया था और स्थानीय मीडिया ने किसी कारण से इस खबर के महत्व नहीं दिया। वैसे अगर यह खबर छपती भी तो अंदर के ही पन्नों पर होती क्योंकि अखबारों के लिए ऐसी खबरें न तो महत्वपूर्ण या प्रासंगिक रही हैं और न ही रोचक।
इन सभी मामलों में एक खास बात है और वह यह कि इन सभी केसों में उस कानून का इस्तेमाल हुआ है जिसमें सबूत पेश करने की जिम्मेदारी का नियम उलट दिया गया है और सरकारों को मामलों में किसी के निर्दोष होने से अधिक उनके दोषी होने पर ही विश्वास रहा। 22 वर्षीय व्यक्ति के मामले में, कानून कहता है कि अगर कोई भी व्यक्ति बिना किसी सरकारी प्रमाणपत्र के मवेशियों को ले जाता पाया जाएगा तो उसे तब तक ऐसा माना जाएगा कि वह पशु को वध के लिए ले जा रहा है, जब तक कि वह संबंधित अधिकारियों के सामने उनकी आश्वस्ति के मुताबिक यह सिद्ध न कर दे कि ऐसा नहीं है।
इस मामले में महत्वपूर्ण जज की टिप्पणी नहीं, बल्कि यह तथ्य है कि फैसला एक तरह से वैध नजर आता है। वैसे भी अगर हम कानूनों को सिर्फ किसी खास समुदाय को प्रताड़ित करने की मंशा से बनाएंगे तो ऐसे ही नतीजे हमारे सामने आएंगे।
गुजरात में ही 2019 में एक मुस्लिम पर गाय के बछड़े को काटकर अपनी बेटी की शादी के खाने में परोसने का आरोप लगा। पुलिस इस आरोप को साबित नहीं कर पाई कि ऐसा हुआ, लेकिन पुलिस को तो यह साबित करना ही नहीं था। कानून के मुताबिक आरोपी को ही साबित करना था कि जो भी मांस कई दिनों या सप्ताहों पहले परोसा गया था वह बीफ नहीं था। लेकिन जाहिर है वह ऐसा नहीं कर सका, इसलिए जज ने उसे 10 साल की सजा सुना दी।
बाद में हाईकोर्ट ने इस फैसले को बदला, वैसे इसमें भी कोई खास कारण नहीं दिया गया सिवाए इसके कि सिर्फ न्यायिक अधिकार के तहत ऐसा किया जा रहा है। संभव है कि हाईकोर्ट इस बात से शर्मिंदा हो या असहज हो कि आखिर ये सब हो क्या रहा है। लेकिन मुद्दा तो यह है कि जिस जज ने सजा सुनाई वह भी तो कानून का ही पालन कर रहा था।
खैर, पिछले मामलों के छोड़ते हैं और देखते हैं कि बड़ी तस्वीर क्या है। क्या हम, क्या मीडिया इस कानूनों पर अपने यहां ही डिबेट कर रही है, ऐसे कानून जो बेतुके हैं और सिर्फ लोगों को निशाना बनाने और उन्हें नुकसान पहुंचाने के लिए बने हैं? यह निश्चित रूप से एक आलंकारिक प्रश्न है। मीडिया की ऐसी चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं है और ऐसा बहुत लंबे समय से चल रहा है। हम दूसरों पर क्रूरता करने और अपने आप पर बेहूदगी थोपने के मामले में बिल्कुल सही हैं।
इस सबसे हमारे समाज और हमारे लोकतंत्र के बारे में क्या तस्वीर बनती है? यह एक गहरा सवाल है लेकिन इसका जवाब आसान नहीं है। बहुत से आधुनिक लोकतांत्रिक देशों ने इस स्थिति तक पहुंचने में नागरिकों को निशाना बनाने के लिए कानून और मीडिया का उपयोग का सहारा नहीं लिया है। ऐसा नहीं हो सकता कि हमारे सामाजिक ताने-बाने को कोई नुकसान न हो, और चूंकि सोशल मीडिया से अल्पसंख्यकों की चिंता और उन पर हमलों के बारे में पता चलता रहता है क्योंकि वे ही इस हमले का सामना कर रहे हैं।
इस विचारधारा के साथ हम जिस अंत-स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं, जैसा कि मैंने पहले भी कई बार लिखा है, वह उसी का विस्तार है। पिछले कुछ वर्षों में जो हो रहा है वह होता रहेगा, लेकिन हम इसके बारे में कम और कम सुनेंगे क्योंकि ये सब अब समाचार नहीं है।
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